नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम के तहत अलग-अलग मामलों में जेल में बंद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नेताओं नवाब मलिक और अनिल देशमुख को महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में वोट डालने के लिए अस्थायी रिहाई की मांग संबंधी याचिका सोमवार को मतदान से कुछ समय पहले खारिज कर दी।
शीर्ष अदालत ने हालांकि कहा कि वह जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 62(5) की व्याख्या पर विचार करेगी कि गिरफ्तार सांसदों और विधायकों को राज्यसभा और विधान परिषदों के चुनाव में मतदान करने की अनुमति दी जा सकती है या नहीं।
न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की अवकाशकालीन पीठ ने संबंधित पक्षों की दलीलें सुनने के बाद याचिकाकर्ताओं को अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया।
बाॅम्बे उच्च न्यायालय के 17 जून को वोट डालने के लिए याचिकाकर्ताओं अंतरिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। इस प्रकार जनप्रतिनिधित्व (आरपी) अधिनियम की धारा 62(5) ने कैदी को मतदान करने से रोक दिया।
शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र सरकार और केंद्र को नोटिस जारी करते हुए कहा कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 62(5) की व्याख्या पर विचार किया जाएगा ताकि यह तय किया जा सके कि गिरफ्तार सांसदों और विधायकों को राज्यसभा और विधान परिषदों के चुनाव में मतदान करने की अनुमति दी जा सकती है या नहीं।
पीठ ने कहा कि यह कहन विचार करने की आवश्यकता होगी कि क्यों कोई व्यक्ति निर्वाचित होने के बाद भी मतदान नहीं कर सकता। याचिकाकर्ताओं का पक्ष रख रहीं वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा ने सोमवार को ही मतदान होने का तथ्य हवाला देते हुए अंतरिम राहत की गुहार लगाई। उन्होंने कहा कि चुनाव में वोट डालने के लिए सांसदों को ‘एस्कॉर्ट’ में अस्थायी तौर पर रिहा किया जा सकता है।
शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा कि मतदान एक संवैधानिक और वैधानिक अधिकार है और सवाल यह था कि क्या जेल में बंद व्यक्ति वोट डालने का हकदार था या नहीं। पीठ ने याचिकाकर्ताओं के वकील से कहा कि यदि आप हिरासत में हैं तो निवारक निरोध के संबंध में कोई रोक नहीं है, लेकिन यदि यह धन शोधन के अंतर्गत आता है तो प्रथम दृष्टया धारा 62(5) लागू होती है।
अदालत के समक्ष याचिकाकर्ताओं की वकील अरोड़ा ने तर्क दिया कि उनके मुवक्किलों को वोट देने से रोक कर उनके निर्वाचन क्षेत्रों को परिषद में अपना वोट डालने से वंचित किया जा रहा है।
इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि शीर्ष अदालत ने पहले आरपी अधिनियम की धारा 62 (5) की वैधता को बरकरार रखा था। उन्होंने कहा कि कुछ प्रतिबंधों की कसौटी पर मौलिक अधिकारों को भी कम किया जा सकता है।