नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों के दौरान सामूहिक दुष्कर्म-हत्या के लिए दोषी ठहराए गए 11 लोगों की आजीवन कारावास की सजा पर राज्य सरकार को फैसला करने का निर्देश देने के शीर्ष अदालत के फैसले पर समीक्षा करने की बिलकिस बानो की याचिका खारिज कर दी है।
दंगों में अपने परिवार के कई लोगों की जान गंवाने वाली दुष्कर्म पीड़िता बिलकिस बानो ने शीर्ष अदालत के इस साल 13 मई के फैसले को चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की अध्यक्षता वाली पीठ ने 13 दिसंबर को बिलकिस बानो की समीक्षा याचिका को खारिज की। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने बिलकिस बानो की वकील शोभा गुप्ता को एक आधिकारिक संदेश भेजकर जानकारी दी है।
न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था। अपनी समीक्षा याचिका में बिलकिस बानो ने शीर्ष अदालत से अपने उस आदेश को पलटने की मांग की थी, जिसमें उसने दोषियों की सजा में छूट की याचिका पर गुजरात सरकार से विचार करने को कहा था।
याचिकाकर्ता बिलकिस ने अपनी समीक्षा याचिका में कहा था कि अपराध की शिकार होने के बावजूद उसे दोषियों की सजा में छूट या समय से पहले उनकी रिहाई की ऐसी किसी प्रक्रिया के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। साथ ही याचिका में यह भी कहा गया था कि दोषियों की सजा में छूट का आदेश पूरी तरह से कानून की अनदेखी करता है। यह भी कहा गया है कि इस जघन्य मामले में सजा में छूट पूरी तरह से सार्वजनिक हित के खिलाफ होगी और सामूहिक सार्वजनिक अंतरात्मा को झकझोर देगी।
इसके अलावा अदालत का यह फैसला पूरी तरह से पीड़िता (जिसके परिवार ने सार्वजनिक रूप से उसकी सुरक्षा के लिए चिंताजनक बयान दिए हैं) के हितों के खिलाफ है। गुजरात सरकार ने 11 दोषियों को 15 अगस्त 2022 को रिहा कर दिया था, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। मामले में सभी 11 आजीवन कारावास के दोषियों को 2008 में उनकी सजा के समय गुजरात में प्रचलित सजा में छूट की नीति के अनुसार रिहा कर दिया गया था।
मार्च 2002 में गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ कथित तौर पर सामूहिक दुष्कर्म किया गया था। वडोदरा में जब दंगाइयों ने उनके परिवार पर हमला किया तब वह पांच महीने की गर्भवती थीं।