स्नेह और सौम्यता|अपने परम तेजस्वी तमतमाते हुए रक्त वर्ण मुखारबिन्द के साथ जब सुर्य देव घर पहुंचे तो उनकी पत्नी संज्ञा ने आंखें बंद कर ली। सुर्य देव कुपित होकर बोले क्यों? तुम्हें मेरा तेजस्वी रूप नहीं रूचता। संज्ञा की आंखे नीचे हो गई। उन्होंने बादलों के घुंघट में अपने कोमल मुख को ढक लिया। यह व्यवहार सुर्य देव को और भी व्याकुल कर दिया। वह लाल–पीले होकर अपना दर्प दिखाने लगे। संज्ञा भयभीत होकर अपने पिता के घर कुरूप्रदेश चली गई।
सुर्य देव अपनी पत्नी का विछोह सहन न कर सकें। और उदास रहने लगे। एक योगी का रूप धारण कर संज्ञा के पास पहुंचे और उसकी तपस्या का कारण पूछा। वह तपस्वी संज्ञा बोली ” हे तात! मेरे पति और भी तेजस्वी हो पर उनका स्वभाव इतना सरल हो कि मैं अपलक उनके दर्शन कर सकूँ।”
यह सुन कर सूर्यदेव द्रवित हो गये। अपनी प्रचंडता को व्यर्थ मानते हुए उन्होंने अपने सोलह कलाओं में से एक के साथ ही प्रकाशित होना प्रारंभ कर दिया। संज्ञा उसके बाद घर लौट आई और सूर्यदेव को सौम्य पाकर उनसे बोली ” नाथ वैभव कितना भी बड़ा क्यों न हो स्नेह तो सौम्यता ही ढूंढता है और उसी में तृप्त रहता है। ”