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The Jalore-Sirohi loksabha seat, thus far away from the congress - Sabguru News
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यूं जालोर-सिरोही लोकसभा पर हो गया भाजपा का कब्जा

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यूं जालोर-सिरोही लोकसभा पर हो गया भाजपा का कब्जा
jalore loksabha constituency
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सबगुरु न्यूज-जालोर/सिरेाही। जालोर-सिरोही लोकसभा क्षेत्र के मतदाता 29 अप्रेल को अपने 16 वे सांसद को चुनने जा रहे हैं। अब तक के 15 सांसदों ने इस लोकसभा क्षेत्र में पडऩे वाले दो जिलों का कितना ध्यान दिया इसका पता नीति आयोग के पिछडे जिलों की सूची से पता चल जाता है।

71 साल बाद अब भी लोकसभा का सिरोही जिला देश के 100 सबसे पिछडे जिलों में शामिल है। 15 में से आठ सांसद कंाग्रेस के चार बीजेपी के रहे। दो सांसद स्वतंत्र पाटी्र और बीएलडी के थे और एक बार बूटासिंह निर्दलीय सांसद रहे। पिछले लगातार 15 सालों से यह सीट भाजपा के पास रही, लेकिन 2014 के अलावा कभी भी भाजपा की जीत क अंतर इतना नहीं रहा कि इस सीट का स्थायी रूप से भाजपा की सीट माना जा सके।
-यूं बदलते गए सांसद
देश के कई लोकसभा क्षेत्रों में मतदाता अपना 17 वां सांसद चुन रही है। लेकिन, सिरोही का 16 वा सांसद इस बार चुना जाएगा। इसके पीछे प्रमुख वजह यह है कि 1951 में हुए देश के प्रथम लोकसभा चुनाव के दौरान सिरोही क्षेत्र का विलय भारत के गणतंत्र में नहीं हो पाया था।

1956 में सिरेाही रियासत के भारत में विलय के बाद जब वर्तमान जालोर लोकसभा अस्तित्व में आई तो 1957 में सूरज रतन यहां के पहले सांसद बने, जो कांग्रेस के थे। 62 में कांग्रेस के हरीश चंद्र, 67 में स्वतंत्र पार्टी के डी पाटोदिया, 71 में कंाग्रेस के नरेन्द्र कुमार, 77 में बीएलडी के हुकमराम, 1980 में कांग्रेस के विरदा राम और 1980 में कांग्रेस के बूटासिंह सांसद बने। बूटासिंह इस सीट से एकमात्र सांसद थे तो केन्द्रीय केबीनेट में गृहमंत्री बने।

स्थानीय लोगों की माने तो जालोर सिरेाही लोकसभा के दोनों जिलों ने पहली बार विकास की रफ्तार इसी काल में देखी। इसकी परिणिति यह हुई कि 1989 में यह सीट पहली बार भाजपा के कैलाश मेघवाल ने जीती और जीतने के बाद यहां के मतदाताओं को यह ताना भी मिला कि जो बूटासिंह जैसे विकास कराने वाले नेता को हरा सकती है वह दूसरों को कहां बख्शेगी।

जीतने के बाद मेघवाल पर जालोर-सिरोही की तरफ मुडकर भी नहीं देखने पर यहां के मतदाताओं ने फिर से बूटासिंह को 1991 में सांसद चुना। 1996 में कांग्रेस के पारसाराम यहां से सांसद चुने गए। 1998 में बूटासिंह निर्दलीय के रूप में यहां से सांसद बने। इसके बाद 1999 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी कांग्रेस की तरफ से खड़ हुए बूटासिंह को यहां का सांसद चुना गया।

फिर इस सीट का मिजाज बदल गया। यहां पर करीब 22 साल बाद सुशीला बंगारू भाजपा की दूसरी सांसद बनी। 2009 और 2014 में देवजी पटेल यहां से सांसद चुने गए। इस बार भी देवजी पटेल ही यहां से भाजपा के प्रत्याशी हैं। अपनी विकास पुरुष की छवि के कारण बूटासिंह के अलावा कोई भी यहां से तीसरी बार सांसद नहीं बना और जीत की हेट्रिक तो वे भी नहीं बना पाए।
-2014 जैसी जीत कभी नहीं मिली
आंकड़ों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि भाजपा ही नहीं किसी भी पार्टी को यहां से 2014 जैसी अभूतपूर्व जीत कभी नहीं मिली। कांग्रेस के दस साल के शासन और एक के बाद एक भ्रष्टाचारों के खुलासों ने यह परिणाम दिया। 2009 के आंकड़ो ंपर नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि कांग्रेस के बागी के रूप में बूटासिंह खड़े नहीं होते तो भाजपा के वर्तमान सांसद देवजी पटेल उसी चुनाव में करीब 50 हजार वोटों से बाहर हो जाते।

ऐसे में ये आंकड़े अभी भी यहीं दर्शा रहें है कि शहरी क्षेत्र की बजाय ग्रामीण क्षेत्र के इलाके ज्यादा होने के कारण यह सीट अभी भी स्थायी रूप से भाजपा की नहीं हुई है। काम के आधार पर यहां की जनता ने अपने सांसदों को सिर पर बैठाना और सजा देना लगातार जारी रखा है, फिर पार्टी चाहें जो भी हो।