Warning: Constant WP_MEMORY_LIMIT already defined in /www/wwwroot/sabguru/sabguru.com/18-22/wp-config.php on line 46
'दा कश्मीर फाइल्स' : मर्ज से उठे दर्द की दवा क्या है? - Sabguru News
होम Breaking ‘दा कश्मीर फाइल्स’ : मर्ज से उठे दर्द की दवा क्या है?

‘दा कश्मीर फाइल्स’ : मर्ज से उठे दर्द की दवा क्या है?

0
‘दा कश्मीर फाइल्स’ :  मर्ज से उठे दर्द की दवा क्या है?

विनीत शर्मा

यह कोई छिपा हुआ सत्य नहीं है कि संपत्ति से लोगों को अपार मोह होता है। लोग क्या-क्या जतन नहीं करते संपत्ति को सहेजने के लिए। जो लोग तिनका-तिनका जोडक़र मकान खरीदते हैं, रकम जुटाने के लिए बैंक से लोन भी लेते हैं। और जब किश्त नहीं चुकाने पर बैंक उस संपत्ति को जब्त करती है तो जार-जार रोते हैं। मैं ऐेसे कई परिवारों को जानता हूं, जो किश्तें नहीं चुका पाए और उनके मकान नीलाम हो गए। हालांकि इस मकान में उन्होंने भले जिंदगीभर की कमाई का एक हिस्सा ही लगाया हो, लेकिन मकान के छिनने का दर्द जिंदगीभर सालता है।

लोग तो सरकारी मकान का भी मोह नहीं छोड़ पाते। इतिहास गवाह है कि हमारे-आपके पसीने की गाढ़ी कमाई से जिस सरकारी बंगले को महल बनाया था, सत्ता से बेदखली पर उसेे जमींदोज करने में देर नहीं लगाई। सत्ता जाने की झुंझलाहट का आलम यह था कि उसे छोडऩे से पहले बगीचा उजाड़ दिया, दीवारों के पलस्तर उखाड़ दिए, महंगी टोंटियां तक नलों से निकाल दीं। और न जाने क्या-क्या किया। महल को खंडहर बना दिया।

एक महिला जो कभी किसी पद पर नहीं रही, लेकिन परिवार में पीढिय़ों से लोग संसद में थे, इसलिए पूर्ववर्ती सरकारों ने उन्हें भी सरकारी बंगला अलॉट किया था। निजाम बदला और वह सरकारी बंगला वापस लिया गया तो चाटुकारों ने इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का विषय बना दिया था। यह जिक्र इसलिए कि मकान अपना हो या सरकारी, उसके छिनने का दर्द सालता है।

दूसरी बात जब आप अपनी मां, बहन, बेटी या पत्नी के साथ अपने घर की छत पर भी खड़े होते हैं और राह गुजरता कोई व्यक्ति नजर भर कर घर की महिलाओं को देखभर ले तो भुजाएं फडक़ने लगती हैं। मैं या आप सबका पौरुष जाग जाता है। कई बार तो जान लेने और देने तक मामला पहुंच जाता है। इस बात से कोई नाइत्तफाकी रखता हो तो सामने आए।

अब बात मुद्दे की। जो लोग सरकारी मकानों के छिनने का दर्द दिलों में पाले बैठे हैं, उन्होंने कश्मीर पलायन पर 32 बरसों तक मुंह सिले रखे। अब एक फिल्मकार ने उस नरसंहार और पलायन पर फिल्म क्या बना दी, उन लोगों के घुटने और कमर का दर्द उभर आया है। हर तरफ मोर्चेबंदी करके आलोचना हो रही है। सबसे बड़ा आरोप यह कि एक ही पक्ष दिखाया गया।

अरे भाई पीडि़त एक ही पक्ष था तो उसे ही दिखाया जाता ना। जाने कितने वर्णसंकर क्रमों से गुजरने के बाद भी अपना गोत्र बचाए रखने का दावा करने का जिगर हर किसी में तो होता नहीं। बात हो रही है कि एक भी मुसलमान ऐसा नहीं दिखाया जिसने कश्मीरी पंडितों की मदद की। अरे भाई किसी एक ने भी मदद का हाथ बढ़ाया होता तो पीडि़तों में से कोई तो उसका जिक्र करता। फिल्मकार ने नहीं किया तो आप खोज लाओ एक ऐसा मुसलमान, जिसने अपने पड़ोसी कश्मीरी पंडित की मदद की हो।

कई प्रबुद्ध लोग कह रहे हैं कि दावा तो शिंडलर्स लिस्ट जैसा कुछ बनाने का था। तो जान लीजिए, एक विवेक अग्निहोत्री नहीं पूरा बॉलीवुड मिलकर भी हॉलीवुड की एक क्लासिक जैसा कुछ नहीं बना पाएगा। जोधा अकबर बनाते वक्त दावा था कि बहुत बड़ी रिसर्च की है। कई इतिहासकार जोधा के करेक्टर को लेकर भी एकमत नहीं हैं। यह कैसी रिसर्च थी। जो संसाधान संपन्न हैं वो फिल्ममेकर कथित रिसर्च पर जो रकम खर्च करते हैं, उतने में उसे पूरी फिल्म बनानी थी। इसके बावजूद उसने जो बड़ा काम किया, बड़े-बड़े नहीं कर पाए।

फिर भी चलो मानी आपकी बात, फिल्म तकनीकी पक्ष में बहुत कमजोर लगी होगी। अभिनेताओं का अभिनय स्तरहीन भी मान लिया। कहानी बेदम है माना। लेकिन दिखाया गया एक भी वाकया झूठा है क्या? विरोध की आंच में तपा कोई अब यह दावा न कर बैठना कि रिटायर्ड जज की हत्या नहीं आत्महत्या थी। यह न कह बैठना कि शांतिदूत बचाने गए थे और सेना के अफसर आपस में ही एक-दूसरे पर गोलीबारी कर बैठे। आरे से लकड़ी चीर रहे थे और गिरजा का पांव फिसल गया। पति के खून में सने उन चावलों को केसर मत बता दीजिएगा, जो महिला को खिलाए गए।

यह ऐतिहासिक तथ्य हैं, जिन्हें पूरी एक पीढ़ी ने जिया है। अरे भाई विवेक भी महज एक फीसदी ही दिखा पाए हैं, उस पर यह हाल है। होलोकास्ट में प्रणय के दृश्य नहीं होते। विचारधारा पर कोई बात नहीं होती। जो हुआ उसे हूबहू बस सामने रख दिया जाता है। यही तो किया विवेक ने। जो हुआ था, उसका अगर दस फीसदी दिखा दिया होता तो हिंदुस्तान के कई सेक्युलरों का मिसकैरेज हो गया होता। और सौ फीसदी दिया दिया होता तो…।

1990 में पूरी एक नस्ल अपनी जड़ों से उखड़ गई। सरकारी बंगले छिनने पर जिनका इतिहास दीवारों के पलस्तर उखाडऩे का रहा हो, उन्हें भी लोगों की जमीन छिनने का दर्द समझ नहीं आया। पहले आबरू और फिर जान गंवा चुकी कश्मीरी महिलाओं की तकलीफ वो समझ ही नहीं सकते, जिनकी उम्र बच्चों से गलती होने की दलील देकर रेप को जस्टीफाई करने में ही बीती हो। जिनके जीजाजी औने-पौने में किसानों की जमीनों के सौदे करते रहे हों, वो क्या जानें लोगों के जमीन से उखडऩे का दर्द।

इस विरोध की वजह सिर्फ यह है कि इससे कथित रूप से किसी एक राजनीतिक दल को फायदा होने की उम्मीद है। तो तय मान लीजिए कि इस फिल्म की रिलीज की टाइमिंग गलत थी। यह फिल्म जनवरी में रिलीज हो गई होती तो मोदी-योगी के जलवे का क्रेडिट खा जाते विवेक। एक बात समझिए कि यह मामला राजनीतिक नफे-नुकसान नहीं मानवीय संवेदनशीलता का है। अंगुली कटने पर खून तो आपका और हमारा भी निकलता है ना। फिर किसी व्यक्ति की संवेदना का स्तर शून्य कैसे हो सकता है।

किस दल की सरकार और कौन जिम्मेदार कहकर आप अपनी राजनीतिक विचारधाराओं को पुष्ट करते रहिए, लेकिन जितना दिखाया गया वह शतप्रतिशत सच है। आलोचना को समृद्ध करने के लिए फिल्म में दिखाए एक भी दृश्य के झूठा होने का प्रमाण सामने रखिए। सच यह है कि जो काम 1990 और उसके बाद की सरकारों को करना था, वह विवेक की रिसर्च टीम ने किया। उनके पास पीडि़तों में से सात सौ लोगों का वीडियो डाक्यूमेंटेशन है। जो विरोध में खड़े हैं, उनके पास किसी एक भले व्यक्ति का वीडियो डाक्यूमेंटेशन है तो सामने लाएं।

कोई व्यक्ति तो खोज लाइए जो कहे कि अपनी जान पर खेलकर उसने कश्मीरी पंडितों की महिलाओं की आबरू बचाई। कई सारे पीड़ित तो यह दावा भी कर रहे हैं कि उनके पड़ोसी ने ही उनकी जानकारियां बलवाइयों को दीं। उसे भी जाने दीजिए। चाहे जिन परिस्थितियों में जिन लोगों ने पलायन किया था, उनमें कितनों के पड़ोसी ऐसे हैं, जिन्होंने उनकी छूट गई संपत्तियों की देखभाल अमानत समझ कर की। एक भी ऐसा व्यक्ति हो तो सामने ला दो या सिर्फ गाल बजाओगे।

अब रही बात कश्मीर से पलायन की। कश्मीर के ज्ञात इतिहास में यह सातवां मौका है, जब हिंदुओं को अपनी ज़मीन से पलायन करना पड़ा। तारीख पर मत जाइए और मोटा-मोटा समझिए। पहली बार शाह मीर के समय 14वीं सदी में पलायन हुआ था। 16वीं सदी के शुरुआती दिनों में दूसरा और इसी सदी के आखिरी दिनों में मुगल शासन में तीसरा पलायन हुआ। चौथा पलायन 18वीं सदी के मध्य में हुआ फकीरुल्लाह के काल में। पांचवां पलायन 13 जुलाई 1931 में हुआ। छठा पलायन आजाद हिंदुस्तान में 1986 में और सातवां पलायन 1990 में उस वक्त हुआ जब फारुख अब्दुल्ला और कांग्रेस की सरकार कश्मीर में सत्ता में थी।

अब बात आजादी के बाद देश में हुए नरसंहारों की। 1947 में आजादी के दौरान हुए नरसंहार को छोड़ दें तो अब तक देश में चार बार नरसंहार हुए और हर हादसे में प्रत्यक्ष या परोक्ष कांग्रेस सत्ता में रही। इनमें तीन बार ब्राह्मणों को अपनी जानें गंवानी पड़ी हैं। 1986 और 1990 में कश्मीर में कश्मीरी पंडित नरसंहार और पलायन के लिए मजबूर हुए।

इससे पहले 1984 में एक महिला की मौत का हरजाना हजारों सिखों को अपनी जान गंवा कर चुकाना पड़ा। और इससे भी पहले 1948 में कथित रूप से अहिंसा के पुजारी की जान का बदला हिंसा से लिया गया। इसकी कीमत हजारों महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों ने अपनी जान देकर चुकाई थी। दो अलग-अलग दौर मेें दो लोगों की हत्या का बदला लेने के लिए अमानुषों ने हजारों निर्दोषों से जीने का अधिकार छीन लिया।

जिस संविधान को लोग आज खतरे में बता रहे हैं, उन्हें ऐसा करते वक्त ना संविधान पर यकीन था और ना ही कोर्ट-कचहरी पर। इसीलिए खुद जज बन गए और कत्लेआम का फैसला सुना दिया। 1984 में देश के अबतक के सबसे मासूम प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सिख नरसंहार का बचाव यह कहकर किया कि बड़ा पेड़ गिरा था इसलिए जमीन हिली और भूकंप में जमींदोज हो गईं हजारों सिखों की जानें।

संविधान बनाने का दावा करने वाली कांग्रेस के लिए संविधान कोई पवित्र किताब नहीं पतलून की जेब में रखा रुमाल भर है। जब जैसी परिस्थिति दिखे उसे सिर पर ओढ़ लो, माथे का पसीना पोंछ लो, जूते पोंछ लो और जरूरत पड़े तो शौच के बाद गीले हो चुके पिछवाड़े को पोंछ लो। संविधान न हो गया…।

जब भी कश्मीर फाइल की आलोचना करें तो विवेक से पूछिए कि सरला भट का किस्सा क्यूं नहीं दिखाया। ऊषा कौल और दुर्गा कौल की कहानी क्यूं छिपाई गई। प्रेरणा गंजू पर जो बीती उसे भी दुनिया के सामने लाना था। और भी ऐसे किस्से जो इतिहास की गर्द में छिप गए, बाहर आने चाहिए थे। ईमानदार तो विवेक भी नहीं रहे। उन्होंने 99 फीसदी सच छिपा लिया, जो दुनिया के सामने आना चाहिए था।

ईमानदारी से होलोकॉस्ट बनाया होता तो दुनिया को यह पता चलता कि चेहरे को लिपापुता बनाए रखने के लिए खून की कितनी परतों का फाउंडेशन लगाना पड़ता है। कभी किसी को अवसर मिले तो विवेक से यह सवाल जरूर कीजिएगा। साथ ही कश्मीर फाइल्स के समर्थकों को अपनी जेब में सुई-धागा और बोरोलीन के कई सेट साथ रखने चाहिए।

कहीं भी दुखी कोई मन मिले, उसे गिफ्ट में दें सुई-धागे और बरनोल का एक सेट। कहें कि बहुत बुरी तरह उधड़ी होगी, पहले सिल लो फिर बरनोल लगा लेना, ठंडक मिलेगी। हां धागा हरे रंग का होना चाहिए। हरा रंग पुराने जख्मों की भी तेजी से हीलिंग करता है। प्रकृति का रंग है हरा जो हर घाव की खुद सबसे बड़ी दवा है।