नई दिल्ली। भारत तथा अमरीका दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और दोनों का सौहार्द का डीएनए भी एक जैसा है और शायद इसीलिए अमरीका के राजनीतिक दलों डेमोक्रेट्स एवं रिपब्लिकन के बीच परस्पर असहमति के बावजूद भारत से संबंधों को लेकर दोनों में गहरी सहमति है।
यह विचार अमरीकी राजनयिक तथा हावर्ड विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर निकाेलस बर्न्स ने शुक्रवार को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ बातचीत के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि अमरीका के राजनीतिक दल डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन के बीच बहुत कम सहमति है लेकिन उन्हें लगता है कि जब भारत का सवाल आता है तो दोनों राजनीतिक दल चाहते हैं कि भारत के साथ अमरीका के बहुत करीबी और सहयोगपूर्ण होने चाहिए।
उन्होंने कहा कि अमरीका भारत के साथ गहरा रिश्ता चाहता है और इसकी वजह यह है कि हम विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। इस रिश्ते की सबसे मजबूत कड़ी भारतीय-अमरीकी समुदाय है और यह अमरीका में एक असाधारण समुदाय है। अब हमारे सदन में वरिष्ठ राजनेता, राज्यों में गवर्नर्स, सीनेटर हैं, जो भारतीय-अमरीकी हैं, हमारे जीवन के हर पहलू में भारतीय-अमरीकी हैं। कैलिफ़ोर्निया में हमारी कुछ प्रमुख टेक कंपनियों के सीईओ भारतीय-अमरीकी हैं। इस समुदाय में परिपक्वता रही है और यह दोनों देशों के बीच गहरा नाता बनाते हैं।
बर्न्स ने कहा कि जिस तरह से माहौल बदल रहा है उसे देखते हुए उन्हें बहुत उम्मीद है कि न केवल दोनों देशों की सरकारें बल्कि हमारे समाज भी बहुत बारीकी से परस्पर जुड़े हुए और संगठित हैं और यह एक बड़ी ताकत है। उन्होंने इस संबंध की वजह बताते हुए कहा कि दोनों देशों को मालूम है कि हमारे सामने आने वाली चुनौतियों में से एक अधिनायकवादी देशों की शक्ति है। मैंने चीन और रूस का उल्लेख किया है। हम कभी भी लड़ना नहीं चाहते, हम युद्ध नहीं चाहते लेकिन हम अपने जीने के तरीके और विश्व में अपनी स्थिति की रक्षा करना चाहते हैं इसलिए मैं हमारे बारे में बहुत सोचता हूं, मुझे लगता है कि हमारे दोनों देशों के बीच सम्बन्ध इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
उन्होंने कहा कि भारत और अमेरिका का सैन्य संबंध बहुत मजबूत है। बंगाल की खाड़ी और पूरे हिंद महासागर क्षेत्र में अमरीकी-भारत नौसेना और वायु सेना के परस्पर सहयोग को देखें तो साफ नजर आता है कि दोनों एक साथ हैं और यह देखकर उन्हें लगता है कि दोनों देशों को एक दूसरे के लिए दरवाजे खुले रखने चाहिए और दोनों देशों के बीच लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध कम करना चाहिए।
बर्न्स ने कहा कि बहुत सारे विद्यार्थी और उच्च तकनीक वाले भारतीय कारोबारी एच -1 बी वीजा पर अमरीका आते हैं लेकिन हाल के वर्षों में इस संख्या में काफी कमी आई है जबकि अमेरिका को पता है कि अपनी अर्थव्यवस्था चलाने के लिए उसके पास पर्याप्त इंजीनियर नहीं हैं और भारत उन इंजीनियरों की आपूर्ति कर सकता है। इन सब स्थितियों को देखते हुए लोगों की आवाजाही, विश्वविद्यालय के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि कोविड-19 ने दुनिया को और खासकर भारत तथा अमेरिका को मिलकर आगे बढने के संकेत दिया है। इन संकेतों में साफ है कि भविष्य में यदि इस तरह की कोई महामारी दोबारा आए, जिसकी बहुत आशंका भी है, तो दोनों देश मिलकर अपने समाज के गरीब लोगों के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं और दोनों देशों के बीच के रिश्ते उसी दिशा में आगे बढ़ने चाहिए।
अमरीकी राजनयिक ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए एक साथ काम करने का यह एक अवसर था जिसमें वैश्विक भलाई का काम हो सकता था। हम सभी ने इस महामारी का सामना किया है।मैंने संकट की शुरुआत में अनुमान लगाया कि देशों ने अपने मतभेदों को कम किया होगा और वैक्सीन पर काम करने के लिए साथ आए होंगे या उसके समान वितरण पर विचार कर रहे होंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ है क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप अंतरराष्ट्रीय सहयोग में भरोसा नहीं करते। वह एकतरफा हैं और अमेरिका को दुनिया में अकेले रखना चाहते हैं। शी जिनपिंग भी ट्रंप की तरह हैं।
उन्होंने कहा कि उन्हें अब भी लगता है कि दुनिया में मानव स्वतंत्रता, लोकतंत्र और लोगों के शासन को बढ़ावा देने के लिए भारतीयों, अमरीकियों और दोनों देशों की सरकारों के लिए एक रास्ता खोजना है। यह एक शक्तिशाली विचार है जो भारतीयों और अमेरिकियों को दुनिया के बाकी हिस्सों में एक साथ ला सकता है। हम चीन के साथ संघर्ष नहीं चाह रहे हैं, लेकिन हम एक तरह से चीन के साथ विचारों की लड़ाई लड़ रहे हैं।