क्या याद है आपको, यही वे दिन थे जब हमने पूर्वोत्तर में संघ के 4 वरिष्ठ कार्यकर्ता खोए थे? याद है 6 अगस्त, 1999 की वह सुबह, जब उत्तरी त्रिपुरा के धोलाई जनपद के कंचनछेड़ा नामक स्थान से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 4 वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का अपहरण कर लिया गया था? दो वर्ष बाद उनकी निर्मम हत्या की खबर मिली थी।
पूर्वांचल के क्षेत्र कार्यवाह श्री श्यामल कांति सेनगुप्ता (आयु 67 वर्ष), दक्षिण असम प्रांत के प्रांत शारीरिक प्रमुख श्री दीनेन्द्र नाथ डे (आयु 51 वर्ष), अगरतला के विभाग प्रचारक श्री सुधामय दत्त (आयु 51 वर्ष) एवं उत्तर त्रिपुरा के प्रचारक श्री शुभंकर चक्रवर्ती (आयु 37 वर्ष) का उस समय अपहरण कर लिया गया था जब वे कंचनछेड़ा के वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास में आयोजित बैठक में भाग लेने के लिए एकत्रित हुए थे।
11 अगस्त को अपहरण की जिम्मेदारी लेते हुए त्रिपुरा के अलगाववादी संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा ने मांग की थी कि त्रिपुरा सरकार त्रिपुरा स्टेट रायफल्स (टी.एस.आर.) को भंग कर दे, तभी इनकी रिहाई होगी। देखते-देखते एक वर्ष बीत गया, संघ के स्वयंसेवकों का क्षोभ बढ़ता रहा, पर त्रिपुरा सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इन कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए गए।
इस क्षोभ का प्रकटीकरण अपहरण के 1 वर्ष बाद 6 अगस्त, 2000 को हुआ, जब सम्पूर्ण देश में जिला मुख्यालयों पर धरने, प्रदर्शन एवं मानव श्रृंखला का निर्माण कर स्वयंसेवकों ने राज्य सरकार व केन्द्र सरकार से मांग की कि वे इनकी शीघ्र रिहाई कराएं।
जैसे-जैसे बैप्टिस्ट चर्च से समर्थन प्राप्त नेशनल लिबरेशन फ्रंट आफ त्रिपुरा के उग्रवादियों को लगा कि सरकार उनकी मांग नहीं मानेगी, तब उन्होंने रा.स्व.संघ से 2 करोड़ रुपए फिरौती की मांग की। पर न तो संघ ही अपहर्ताओं के सामने झुका और न ही अपह्मत कार्यकर्ताओं ने ही इसके लिए कहा। यह था राष्ट्रभक्ति का अनुपम उदाहरण।
…और फिर मातृभूमि की बलिवेदी पर उन चार कार्यकर्ताओं के बलिदान का समाचार आया। 28 जुलाई, 2001 को केन्द्र व राज्य सरकार ने अपने लिखित संदेश में कहा कि उग्रवादियों ने इन चारों कार्यकर्ताओं की लगभग 6 माह पूर्व ही हत्या कर दी थी। सूत्रों के अनुसार दिसम्बर, 2000 में सीमान्तपुर के निकट दीर्घाबाला क्षेत्र में इन कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई थी।
यह था उन हुतात्माओं का अमर बलिदान। लगभग डेढ़ वर्ष तक वे सर्दी, गर्मी, बरसात में जंगल-जंगल भटकते रहे होंगे, उग्रवादियों ने जो रूखा-सूखा दिया होगा, वह भी आधा-अधूरा ही खाया होगा। पर राष्ट्रभक्ति उनमें इस कदर कूट-कूट कर भरी थी कि अपने जीवन की रक्षा के लिए राष्ट्र के धन की चाह नहीं की।
यह दुर्भाग्य ही है कि इन चार कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या को कई वर्ष होने जा रहे हैं, पर न तो उनकी हत्या करने वाले आतंकवादियों को ही पकड़ा जा सका और न ही केन्द्र सरकार ने बंगलादेश सरकार से स्पष्टीकरण मांगा, जहां इन कार्यकर्ताओं को अपहरण के बाद रखा गया था।
सआभार