परीक्षित मिश्रा
सबगुरु न्यूज-सिरोही। देश और राज्य के राजनीतिक और प्रशासनिक अमले के लिए राज्य के जालोर, सिरोही और पाली जिले शायद महत्व के हों या ना हों, लेकिन दुनिया के भूगर्भशास्त्रियों के लिए जोधपुर के साथ ये तीनों जिले इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनका यहां पर आना लगा रहा है।
आगामी 2-8 मार्च 2019 तक देश में होने वाली विश्व में भूगर्भशास्त्रियों के सबसे बड़े सम्मेलन इंटरनेशनल जीयोलॉजी कांग्रेस के दौरान दुनिया भर के वैज्ञानिक यहां आएंगे। राजस्थान विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्री प्रोफेसर एमके पंडित ने बताया कि यह आयोजन चार साल में एक बार होता है और 1964 के बाद इस बार इसकी मेजबानी भारत को मिली है।
इस बार ग्लोबल टेक्टोनिक के अध्ययन के लिए इस क्षेत्र से चट्टानों की सेम्पलिंग के लिए वे सिरोही राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य और भूगर्भशास्त्री सहायक प्रोफेसर केके शर्मा, जीयोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया के प्रशांत पारीक और सिरोही के जीयोलॉजिस्ट मोहन कुमावत के साथ कांग्रेस से पहले चट्टानों से सेम्पल्स एकत्रित करने पहुंचे।
-प्रकृति ने दी है ये विरासत
आजादी के बाद सरकारों ने इन चार जिलों को कुछ दिया हो या ना दिया हो लेकिन, पृथ्वी की उत्पत्ति से ही इस क्षेत्र को प्रकृति ने ऐसी चट्टानें दी हैं, जो सौ करोड़ वर्ष पुरानी हैं। यह चट्टाने विश्व के भूगर्भ शास्त्रियों के लिए 90 करोड़ वर्ष पूर्व के विश्व और 100 करोड़ वर्ष पूर्व की भारत की स्थिति के बारे में अध्ययन करने में महत्वपूर्ण हैं। ऐसी पुरातन चट्टानें पश्विमी राजस्थान के अलावा और कहीं नहीं हैं।
-आखिर किस चीज के अध्ययन के लिए आएंगे वैज्ञानिक
प्रोफेसर एमके पंडित ने बताया कि वे लोग ग्लोबल टेक्टोनिक के तहत इस बात निर्णय के प्रतिपादन के लिए अध्ययन कर रहे हैं कि रोडिनिया में भारत की स्थिति विश्व स्तर पर प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार नहीं होकर ग्लोब में उत्तर की तरफ थे।
वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो सिद्धांत प्रतिपादित है उसके अनुसार 100 करोड़ वर्ष पूर्व भारत की स्थिति ग्लोब के दक्षिण में आस्ट्रेलिया के साथ मानी जाती है। जबकि ग्लोबल टेक्टोनिक में भारतीय और वैश्विक भूगर्भ शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भारत की स्थिति ग्लोब के दक्षिण में न होकर के ग्लोब के उत्तर में है।
प्रोफेसर पंडित ने बताया कि इसके लिए कई पेपर्स और जनरल में इस सिद्धान्त का प्रकाशन और प्रदर्शन भी किया जा चुका है। साइंस कांग्रेस के दौरान इस सिद्धांत को विश्व मंच पर रखा जाएगा। इसके बाद विश्व के वैज्ञानिक जो इसी सिद्धांत पर अध्ययन करेंगे वा जोधपुर, जालोर, पाली और सिरोही आएंगे। इस दौरान मौके पर ही इन चट्टानों का अध्ययन करके चर्चा करेंगे।
-चुम्बकीय प्रकृति होती है इस अध्ययन में सहायक
इतने करोड़ साल बाद आखिर भारतीय उपमहाद्वीप की गति का अध्ययन करने के लिए कौनसी तकनीक और सिद्धांत का उपयोग किया जाता होगा यह विचार आपके दिमाग में जरूर कौंध रहा होगा। इसे कुछ इस तरह समझें। पृथ्वी के निर्माण के समय एक गर्म गोला थी,धीरे-धीरे यह ठंडी हुई।
इस पर जीवन की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी की उत्पत्ति के समय से ही इसमें हेमेटाइट और मेग्नेटाइट जैसे फेरो मेगनेटिक और पैरा मैगनेटिक सबस्टेंसेस हैं। इनमें चुम्बकीय प्रकृति है। इसी चुम्बकीय प्रकृति को भारत की या किसी भी भूभाग की गति की दिशा देखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
इस तकनीक को एनआरएम(नेचुरल रेमीनेंट मेगनेटिस्म) कहते हैं। इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति के समय चट्टानों के आकार को आधार माना जाता है। यह माना जाता है कि इन चट्टानों की उत्पत्ति के दोरान इनमें उपस्थित फेरो मेगनेटिक (लौहचुम्बकीय) और पैरा मेगनेटिक (पराचुम्बकीय)तत्वों की जो चुम्बकीय दिशा है वहीं अब भी है।
इसी के आधार पर यह देखा जाएगा कि इस महाद्वीप की गति के आधार पर सौ करोड़ वर्ष पूर्व अरावली में अवस्थित जोधपुर, पाली, जालोर, सिरोही और माउण्ट आबू की उसक काल की चट्टानों के मेगनेटिक डाइपोल की दिशा क्या थी। इसी के आधार पर भारत की 100 करोड़ वर्ष पूर्व की स्थिति का अध्ययन किया जा रहा है।
इस सिद्धांत पर भूगर्भशास्त्री पहले भी तर्क कर चुके हैं, लेकिन तब इसे वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने के लिए इतने संवेदनशील उपकरण नहीं थे। अब उपकरणों की मदद से इस निष्कर्ष को और अधिक वैज्ञानिक तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है।