झांसी। कलाइयों के दम पर दुनिया भर में एक दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय हॉकी का एक छत्र साम्राज्य स्थापित करने वाले ध्यानचंद के जीवन ऐसा लम्हा भी आया जब ओलम्पिक में जीत हासिल करने वाली पूरी भारतीय टीम जश्न में डूबी हुई थी और उनकी आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे।
29 अगस्त 1905 में इलाहाबाद में जन्मे विख्यात ध्यानचंद में देशभक्ति और राष्ट्रीयता इस हद तक कूट कूट कर भरी थी कि वर्ष 1936 ओलम्पिक में जीत के बाद जब झंडे के नीचे भारतीय टीम खड़ी थी तब वह रो रहे थे। साथी खिलाड़ियों ने उनसे रोने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि काश इस समय यहां यूनियन जैक की जगह मेरा तिरंगा फहर रहा होता।
उन्होंने गुलाम भारत की टीम को एक नहीं तीन बार ओलंपिक मे स्वर्ण पदक दिलाया। वर्ष 1936 में बर्लिन ओलंपिक में तो ध्यानचंद ने अपने जादुई खेल का वह करिश्मा दिखाया कि फाइनल में अपनी टीम की पराजय नाजी तानाशाह हिटलर भी नहीं देख पाया और मैच के बीच से उठकर चला गया। वह मैच बेहद खराब परिस्थितयों में खेला गया।
फाइनल मैच से पहले जबरदस्त बरसात हुई और बरसात के कारण 14 अगस्त की जगह 15 अगस्त को खेला गया लेकिन मैदान काफी भीगा हुआ था और उस पर साधारण जूते पहनकर खेल रही भारतीय टीम को काफी दिक्कतें हो रहीं थी इसी कारण मैच में मध्याहन से पहले भारत जर्मनी के खिलाफ केवल एक ही गोल कर पाया था।
इस मैच में ध्यानचंद और उनके भाई रूपसिंह दोनों ही खेल रहे थे। ब्रेक के दौरान दोनों भाइयों ने कुछ विचारविमर्श किया और दोबारा मैच शुरू होने पर उन्होंने अपने जूते उतार दिए और नंगे पैर ही हॉकी स्टिक लेकर मैदान पर उतर आए।