इलाहाबाद । पितृ पक्ष के दौरान पितरों की सद्गति के लिए विशेष परिस्थितियों में महिलायें भी श्राद्ध करने की हकदार हैं। गरूड़ पुराण में बताया गया है कि पति, पिता या कुल में कोई पुरुष सदस्य नहीं होने या उसके होने पर भी यदि वह श्राद्ध कर्म कर पाने की स्थिति में नहीं हो तो महिला श्राद्ध कर सकती है। घर में कोई वृद्ध महिला है तो युवा महिला से पहले श्राद्ध कर्म करने का अधिकार उसका होगा।
किसी के पुत्र न/न हो और पति भी जीवित नहीं हो तो ऐसी स्थिति में पत्नी दिवंगत पति की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर सकती है। उसी कुल की विधवा स्त्री भी श्राद्ध कर्म कर सकती है। पिता एवं माता के कुल में यदि कोई पुरुष न हो तो स्त्री को भी श्राद्ध कर्म करने का अधिकार है।
वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केंद्र के आचार्य डॉ. आत्माराम गौतम ने कहा कि शास्त्रों में बताया गया है कि श्राद्ध से प्रसन्न पितरों के आशीर्वाद से सभी प्रकार के सांसारिक भोग और सुखों की प्राप्ति होती है। पितराें के प्रति श्रद्धा पूर्वक किया गया कर्म ही श्राद्ध कहलाता है। पितृगण भोजन नहीं बल्कि श्रद्धा के भूखे होते हैं। वे इतने दयालु होते हैं कि यदि श्राद्ध करने के लिए पास में कुछ न भी हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आँसू बहा देने भर से ही तृप्त हो जाते हैं।
आचार्य ने कहा कि आजकल पारिवारिक परिस्थितियों मे परिवार के पुरुष सदस्य, पुत्र एवं पौत्र नहीं होने पर कई बार कन्या या धर्मपत्नी को भी मृतक के अन्तिम संस्कार करते या मरने के बाद श्राद्ध करते देखा गया है। परिस्थितियो के अनुसार यह एक अन्तिम विकल्प ही है, जो अब धीरे धीरे चलन में आने लगा है।
उन्होंने बताया कि कि धर्मसिन्धु समेत मनुस्मृति और गरुड पुराण आदि ग्रन्थ भी महिलाओं को पिण्डदान आदि करने का अधिकार प्रदान करती है। गरूड़ पुराण के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान अमावस्या के दिन पितृगण वायु के रूप में घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे अपने स्वजनों से श्राद्ध की इच्छा रखते हैं और उससे तृप्त होना चाहते हैं, लेकिन सूर्यास्त के बाद यदि वे निराश लौटते हैं तो श्राप देकर जाते हैं। श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किए जाने से पितर वर्ष भर तृप्त रहते हैं और उनकी प्रसन्नता से वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो श्राद्ध नहीं कर पाते उनके कारण पितरों को कष्ट उठाने पड़ते हैं।
आचार्य ने बताया कि गीता में लिखा है कि यज्ञ करने से देवता के संतुष्ट होने पर व्यक्ति उन्नति करता है लेकिन श्राद्ध नहीं करने से पितृ कुपित हो जाते हैं और श्राप देते हैं। ब्रह्म पुराण और गरूड़ के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितर की तिथि आने पर जब उन्हें अपना भोजन नहीं मिलता तो वे कुद्ध होकर श्राप देते हैं जिससे परिवार में मति, रीति, प्रीति, बुद्धि और लक्ष्मी का विनाश होता है।
डा गौतम ने मार्कण्डेय और वायु पुराण के हवाले से बताया कि किसी भी परिस्थिति में पूर्वजों के श्राद्ध से विमुख नहीं होना चाहिए। व्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करे लेकिन श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितरों के श्राद्ध के लिए व्यक्ति के पास कुछ भी नहीं होने की स्थिति में श्राद्ध कर्म कैसे किया जाए इस पर आचार्य गौतम ने बताया कि श्राद्ध करने वाला अपने दोनो हाथों को उठाकर पितरों से प्रार्थना करे ‘हे पितृगण मेरे पास श्राद्ध के लिए न तो उपयुक्त धन है, न ही धान्य आदि। मेरे पास आपके लिए केवल श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं से आपको तृप्त करना चाहता हूँ।’
सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार पितरों (पूर्वजों) के लिए किए गए कार्यों से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। श्राद्ध शब्द, श्रद्धा से बना है। इसलिए पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना ही श्राद्ध है। गरुड़ पुराण के अनुसार पितरों की पूजा करके मनुष्य आयु, पुत्र, यश और कीर्ति प्राप्त करता है। देवकार्य में पितृ को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। अतः देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अनिवार्य है। शास्त्र में श्राद्ध के अधिकारी के रूप में विभिन्न व्यवस्थाएं दी गईं हैं। इस व्यवस्था के पीछे उद्देश्य यही रहा है कि श्राद्ध कर्म विलुप्त न हो जाए।
उन्होंने बताया कि जो लोग दान श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं करते, माता-पिता और बडे बुजुर्गो का आदर सत्कार नहीं करते, पितृ गण उनसे हमेशा नाराज रहते हैं। इसके कारण वे या उनके परिवार के अन्य सदस्य रोगी, दुखी और मानसिक और आर्थिक कष्ट से पीड़ित रहते है। पितृदोष के कारण उनको संतान का सुख भी दुर्लभ रहता है।
आचार्य गौतम ने बताया कि नेपाल समेत महाराष्ट्र और कई उत्तरी राज्यो में अब पुत्र/पौत्र नहीं होने पर पत्नी, बेटी, बहिन या नातिन भी सभी मृतक संस्कार करने आरंभ कर दिये। काशी के कुछ गुरुकुल आदि की संस्कृत वेद पाठशालाओ में तो कन्याओं को पांण्डित्य कर्म और वेद पठन की शिक्षा भी दी जा रही है।
उन्होंने बताया कि परिस्थितियों के कारण सीता जी के पास श्राद्ध करने के लिए कुछ नहीं था तो उन्होंने महाराज दशरथ का पिण्डदान बालू का पिण्ड बनाकर किया था। वाल्मिकी रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। वनवास के दौरान भगवान राम लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए “गया धाम” पहुंचे।
वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग से गया में फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड गई।
सीता मां ने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। सामान के अभाव में श्रीराम ने पिण्डदान देने पर सीता पर विश्वास नहीं किया तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर बताया कि ऐन वक्त पर सीता ने ही उन्हे पिंडदान दिया।
गौरतलब है कि हिंदू संस्कृति में मनुष्य पर माने गये सबसे बड़े ऋण “ पितृ ऋण’’ से मुक्त होने के लिए निर्धारित विशेष समयकाल “ पितृपक्ष ” की शुरूआत पिछले मंगलवार से हो गया है । इस दौरान सनातन धर्म के अनुयायी अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक पूर्वजों का मुक्तिकर्म अर्थात श्राद्ध करेंगे।
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार पितृपक्ष में श्राद्ध की महिमा अपार है, लेकिन जो भी श्रद्धालु अपने दिवंगत माता-पिता, दादा-परदादा, नाना-नानी आदि का श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करता है पितर उस पर प्रसन्न हो दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से सुरक्षा कर खुशियां प्रदान करते हैं। श्राद्ध कर्म योग्य ब्राह्मणों द्वारा ही कराया जाना चाहिए। श्राद्ध के दौरान उपवास रखकर ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र और दक्षिणा देना श्रेयस्कर है।