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सम्मान, स्वाभिमान, स्वायत्तता और संवेदनाओं की रक्षा करना ही परमार्थ : युवाचार्य अभयदास महाराज
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सम्मान, स्वाभिमान, स्वायत्तता और संवेदनाओं की रक्षा करना ही परमार्थ : युवाचार्य अभयदास महाराज

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सम्मान, स्वाभिमान, स्वायत्तता और संवेदनाओं की रक्षा करना ही परमार्थ : युवाचार्य अभयदास महाराज

पाली। पाली स्थित पिंजरा पोल गौशाला में श्रीअभय हरि सेवा संकीर्तन समिति की ओर से आयोजित श्रावणमासीय चातुर्मास्य कथा के पांचवे दिन युवाचार्य अभयदास महाराज ने श्रद्धालुओं को कथा का महात्म्य समझाते हुए कहा कि अन्य के अधिकार, सम्मान, स्वाभिमान, स्वायत्तता और संवेदनाओं की रक्षा करना ही परमार्थ है।

देव-कृपा, ईश्वरीय-अनुग्रह और संत-आशीष वहां फलीभूत होने लगते हैं जहां परमार्थ है। अतः अंतःकरण में पारमार्थिक भाव सहेज कर रखें। परमार्थ ही आनन्द साम्राज्य की कुंजी है। दूसरों से सम्मान पाना है तो सम्मान देना सीखें। सम्मान एक ऐसी चीज है, जो पहले हमें दूसरों को देनी होती है और बाद में हमें मिलती है। सम्मान उपहार में नहीं मिलता। इसे कमाया जाता है।

अगर हम सम्मान चाहते हैं तो हमें दूसरों को सम्मान देना होगा। दूसरों के सम्मान-स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा करना सीखें, यही अध्यात्म का पहला पाठ है। धन्यवाद और क्षमा जैसे शब्दों का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करें और अपनी भाव-भंगिमा व बोलने के तरीके में विनम्रता लायें। आप जितना ज्यादा विनम्र होंगे, लोग आपका उतना ही सम्मान करेंगे।

इस संसार की हर चीजें आपसे जुड़ी हुई है। वस्तुओं से ज्यादा रिश्तों को महत्त्व दें, क्योंकि वे आपके जीवन में कहीं अधिक मूल्य रखते हैं। सुख, शांति और प्रेम दूसरों को देने पर ही प्राप्त होता है। दूसरों के प्रति दया, करुणा, सद्भावना रखने से ही हमें शांति मिलेगी। हम जैसी दूसरों के प्रति भावना प्रकट करते हैं, लौटकर वही हमें प्राप्त होती है।

यदि हम अपने जीवन को सुखी बनाना चाहते हैं तो पहले अपने से ही प्रारंभ करना होगा। सम्मान व आदर चाहते हैं तो दूसरों को भी सम्मान व आदर देना होगा। जैसे हम होंगे वहीं तो हमें दर्पण में दिखाई देगा। अतः आप जो करते हैं वही चीज कई गुना होकर आपके ही पास आती है।

युवाचार्य ने कहा कि भक्ति मार्ग में लोभ बाधक है, लोभ से भक्ति का नाश होता है। ज्ञान मार्ग में क्रोध बाधक है, क्रोध से ज्ञान नष्ट हो जाता है। अंतःकरण को मलिन करने वाली स्वार्थ व संकीर्णता की सब क्षुद्र भावनाओं से हम सभी ऊपर उठें। स्थिर व शांत अन्तःकरण में यथार्थ का बोध होता है। आदर-सत्कार को भारतीय संस्कृति में बहुत महत्व दिया गया है। प्रकृति का नियम है कि हर क्रिया की उसी अनुपात में प्रतिक्रिया होती है। यदि हम दूसरों को आदर देते हैं तो हमें भी आदर मिलेगा।

मनुष्य आदर के प्रति अत्यधिक आसक्त होता है। वह सदैव आदर चाहता है। इसका कारण यह है कि उसके भीतर ईश्वर का अंश है। इसी कारण उसे स्वयं के लिए आदर-सम्मान की इच्छा जागृत होती है, इसलिए यदि आप आदर चाहते हैं तो आदर बोइए, क्योंकि आदरणीय वही होते हैं, जो दूसरों को आदर देते हैं। पूज्य आचार्यश्री जी कहा करते हैं कि बड़ों का आदर करने से यश, बुद्धि, विद्या और आयुष में वृद्धि होती है।

भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण ने भी जब पृथ्वी पर अपनी लीलाएं दिखाई तो उसमें भी उन्होंने सभी को एक-दूसरे का आदर करने की सीख दी है। महापुरुषों का जीवन दर्शन हमें शिष्टाचार, सदाचार और अनुशासन का पाठ पढ़ाता है। हम अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीते हैं। अतः अपने लिए जीना स्वार्थयुक्त जीवन जीना होता है, जबकि दूसरों के लिए जीना परमार्थ युक्त-जीवन होगा।

युवाचार्य जी ने भगवद् भक्तों से कहा कि अध्यात्म विद्या से परम सत्य का बोध ही विश्व में मानवीय एकता स्थापित कर सकता है जिससे संसार के समस्त समस्याओं का समाधान संभव है। भारतीय मूल चिंतन सबके कल्याण का है। हमारे यहां दूसरों के लिए त्याग को आनंद से जोड़ा है। जो दूसरों को आनंद दे वही धर्म है।

सुख तात्कालिक होते हैं जबकि आनंद स्थायी होता है। अपने आप में ऐसी कला विकसित करें कि दूसरों के मन की बात को समझें और अपने वचनों से दूसरों का मन जीतें। मानव-जीवन का यह परम कर्तव्य है कि हम श्रेष्ठता की ओर बढ़ें, सदमार्ग अपनाएं और दूसरों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। शास्त्रों में भी यही कहा गया है कि बड़ों के प्रति आदर-सत्कार का पवित्र भाव रखें। इसका आध्यात्मिक महत्व यह है कि इससे जीवन का सर्वांगीण विकास होता है।

धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के परम साधन यही हैं। इसमें जीवन के सारे सद्गुण का सार समाहित है। दया, क्षमा, करुणा, सहनशीलता, परोपकार, अहिंसा, सत्य, प्रेम और सौहार्द आदि गुणों के ये प्रेरणास्रोत कहे गए हैं। सभी प्राणियों के सम्मान, स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा कीजिए; यही परमार्थ है। अतः परोपकार की प्रवृत्ति को अपना कर हम एक प्रकार से ईश्वर की रची सृष्टि की सेवा करते हैं और ऐसा करने से हमें आत्मसंतोष एवं ईश्वरीय-अनुग्रह की अनुभूति होने लगती है।

कथा में आज के यजमान पूनमचंद घांची रहे तथा प्रसाद लाभार्थी उमियादेवी डिडवानिया परिवार रहा। समिति के संयोजक परमेश्वर जोशी, अध्यक्ष रामाकिशन सोलंकी, उपाध्यक्ष अनोपसिंह चौहान, सचिव मेवाड़ा चम्पालाल सिसोदिया, लालचन्द मेवाड़ा, हीरालाल व्यास, सोहनलाल बिरला, सोनाराम पटेल, परमेश्वर शर्मा, पवन पाण्डेय, अर्जुनसिंह कुम्पावत, भेरूसिंह बीकानेर, शीतलदास शीतल, रोचिराम सम्भवानी, किशनलाल व्यास, ओमप्रकाश मेवाड़ा, शंकरलाल गणेश आयरन समेत कई भक्त मौजूद रहे।