नई दिल्ली। सुप्रीमकोर्ट ने गुरुवार को केंद्र से ऐसे उपाय बताने को कहा, जिससे समलैंगिक जोड़ों की शादी को मान्यता दिए बगैर उनके लिए संयुक्त बैंक खाते या बीमा पॉलिसियों में भागीदार को नामित करने जैसे बुनियादी सामाजिक लाभ की व्यवस्था हो सके।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की संविधान पीठ ने मौखिक रूप से केंद्र सरकार की इस दलील पर सहमति जताई कि समान-लिंग विवाह के लिए कानूनी मंजूरी संसद का अधिकार क्षेत्र है।
पीठ का यह रुख केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की इस दलील के बाद सामने आया कि अगर ऐसे (समलैंगिक) जोड़ों को कानूनी मान्यता देने की दलील स्वीकार की जाती है, तो हो सकता है उनमें से कोई भी पक्ष अपने साथ व्यभिचार के खिलाफ अदालत में यह कहते हुए आए कि यदि दो वयस्कों ने यौन संबंध बनाने का फैसला किया है तो राज्य को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।
संविधान पीठ ने मेहता से कहा कि एक बार जब आप कहते हैं कि शारीरिक संबंध का अधिकार एक मौलिक अधिकार है तो यह समझें कि राज्य का दायित्व है कि शारीरिक संबंध के सभी सामाजिक प्रभाव को कानूनी मान्यता प्राप्त है।
पीठ ने कहा कि बैंकिंग, बीमा, प्रवेश आदि जैसी सामाजिक आवश्यकताएं होंगी, जहां केंद्र को कुछ करना होगा। शीर्ष अदालत ने सामाजिक लाभों पर अपनी प्रतिक्रिया तीन मई तक अदालत के समक्ष रखने को कहा।
पीठ ने केंद्र से यह भी जानना चाहा कि सुरक्षा और सामाजिक कल्याण की भावना कैसे पैदा की जाती है और यह भी कि कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसे (समलैंगिक) संबंध समाज में बहिष्कृत न हों।
इससे पहले मेहता ने अदालत से एक ऐसी स्थिति की कल्पना करने के लिए कहा, जिसमें पांच साल के बाद कोई व्यक्ति कह सकता है कि वह उन व्यक्तियों के प्रति आकर्षित है, जिनका उल्लेख निषिद्ध संबंध से है। मेहता ने पीठ के समक्ष कहा कि अनाचार दुनिया में असामान्य नहीं है और यह हर जगह प्रतिबंधित है।
मेहता ने दलील देते हुए कहा कि यदि विशेष विवाह अधिनियम के तहत समान लिंग विवाह की अनुमति है तो व्यक्तिगत कानूनों का समाधान नहीं किया जा सकता है।