सिरोही। परम्परागत वोटों के लिहाज से देखा जाए तो भी जालोर लोकसभा सीट पर कांग्रेस के स्थाई वोटर भाजपा से ज्यादा है। पिछले तीन चुनावों के वोटों का वेरिएशन देखा जाए तो भी जालोर लोकसभा में भाजपा कांग्रेस से बहुत ज्यादा दूर नजर नहीं आ रही है।
2009 के चुनावों में भी भाजपा कांग्रेस के परम्परागत वोटों से हारती हुई नजर आ रही है इसके बावजूद आखिर ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस पिछले चुनावों में इस सीट पर 1999 से पहले जितनी मजबूत थी उतनी अब नहीं है।
इसकी मूल वजह रही अशोक गहलोत की सरपरस्ती में यहां पर गुटबाजी का पर्याय बन चुके कांग्रेस के वे क्षेत्रीय क्षत्रप जिन्होंने खुदका कद कांग्रेस से उपर बनाने के चक्कर में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का दोहन करना शुरू कर दिया था। पिछले सभी लोकसभा चुनावों के विधानसभावार आंकडों पर नजर डालें तो ये स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा कि ये क्षेत्रीय क्षत्रप अपने प्रभाव वाले इलाकों में भी कांग्रेस को सफलता दिलावने में नाकामयाब रहे।
जालोर लोकसभा चुनाव के विष्लेषण से पहले इस लोकसभा को दो कालखण्ड में बांटना होगा। एक कालखण्ड वह जब अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री नहीं थे। दूसरा कालखण्ड जब अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए थे। गहलोत के राजस्थान का मुख्य्मंत्री बनने से पहले 1977 को छोड़कर शेष समय जालोर लोकसभा की सभी विधान सभाओं पर कांग्रेस का दबदबा रहा।
राजस्थान में 1998 के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद अशोक गहलोत ने पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में कमान संभाली। इस चुनाव में यहां पर कांग्रेस को 153 और भाजपा को सिर्फ 33 सीटें मिलीं थीं। जालोर लोकसभा क्षेत्र में पडने वाली आठ विधानसभा सीटों में से सिर्फ जालोर विधानसभा को छोडकर शेष सातों सीटों पर कांग्रेस जीती।
ये कांग्रेस का जालोर लोकसभा में अंतिम सबसे बेहतर प्रदर्शन था। अशोक गहलोत राजस्थान के मुख्यमंत्री बने और फिर इस क्षेत्र में कांग्रेस ने अपनी जमीन खोनी शुरू कर दी। अशोक गहलोत ने दोनों जिलों में धीरे धीरे अपने करीबियों को इतनी ताकत दी कि वे कार्यकर्ताओं और दूसरे प्रभावशाली नेताओं के हितों को दरकिनार करते हुए उन्हें निगलने को आतुर हो गए, परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस कमजोर होती चली गई।
अशोक गहलोत के अपने करीबियों ने जो सबसे बडी गलती की वो थी अन्य जिलों के जाटों की तरह यहां के कलबी चौधरियों को पार्टी से दरकिनार करवाने की। जालोर की जालोर और आहोर विधानसभा सीट पर अपनी महत्वाकांक्षा की फसल रोपने के लिए परम्परागत वोट बैंक और प्रभावशाली नेताओं को दरकिनार करने की शुरूआत पुखराज पराशर ने की। पराशर उस जाति से ताल्लुक रखते हैं जिस जाति के वोट भी ज्यादा नहीं हैं और वे आंशिक रूप से भी कांग्रेस को वोट नहीं करती।
अपना तीसरा कार्यकाल आते आते तो अशोक गहलोत ने पुखराज पराशर को इस क्षेत्र में इतना हावी कर दिया कि उन पर ये आरोप लगने लगा कि उन्होंने जिला और जालोर व आहोर की कार्यकारिणियों में से कलबी चौधरी जाति की भागीदारी आंशिक कर दी। उनकी महत्वाकांक्षा थी कि वो आहोर सीट से चुनाव लडें। पुरोहित जाति के प्रत्याशी को वहां से टिकिट नहीं मिलता तो कांग्रेस से आहोर से पुखराज पराषर ही चुनाव लडते।
लेकिन, जैसे ही भाजपा ने यहां पुरोहित जाति का टिकिट दोहराया उन्होंने इरादा बदल दिया। स्थानीय कांग्रेसी आरोप लगाते हैं कि पुखराज पराशर को अशोक गहलोत ने इस क्षेत्र में इतना ज्यादा ताकतवर बनाया कि उन्होंने अनुसूचित जाति बहुल जालोर विधानसभा सीट पर भी कांग्रेस के परम्परागत वोट बैंक को अपने करीबियों का हित साधने के चक्कर में खोने की परवाह नहीं की। दरअसल पुखराज गहलोत अशोक गहलोत के साथ उस समय से जुडे हुए हैं जब वे एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस के प्रदेश पदाधिकारी थे।
जालोर की सांचोर सीट पर अशोक गहलोत सरकार के मंत्री सुखराम बिशनोई का दबदबा रहा है। यहां पर उन्होंने अन्य जाति के कांग्रेस नेताओं को पनपने नहीं दिया। जातीय लिहाज से देखा जाए तो इस क्षेत्र में कांग्रेस चाहती तो चौधरी और देवासियों को भी साध सकती थी। अशोक गहलोत और सुखराम बिष्नोई ने इस बार पथमेडा गोशाला के माध्यम से यहां पर पुरोहितों को साधने की कोशिश की लेकिन, उनकी ये कोशिश नाकाम रही।
जालोर लोकसभा क्षेत्र में ये मान्यता है कि सांचौर जीता तो जालोर जीता। पिछले लोकसभा चुनाव तक सांचौर जालोर जिले की तहसील थी। लेकिन, अशोक गहलोत सरकार द्वारा बनाए गए नए जिलों में जालोर से काटकर सांचौर और आंशिक रानीवाडा तहसील को सांचौर जिले में शामिल कर दिया है। जालोर लोकसभा में पहले जहां जालोर और सिरोही जिले आते थे। अब जालोर, सांचौर और सिरोही जिले आते हैं।
यूं अशोक गहलोत को ये आशा थी कि सांचौर को जिला बनाने का फायदा उन्हें मिलेगा लेकिन, विधानसभा चुनावों सुखराम बिश्नोई और जालोर के सांसद देवजी पटेल के कथित गठबंधन से यहां के लोग इस कदर परेशान थे कि यहां पर कांग्रेस प्रत्याशी सुखराम बिश्नोई और भाजपा प्रत्याशी देवजी पटेल को हराकर भाजपा के बागी जीवाराम चौधरी को विधायक चुना।
जालोर लोकसभा में दो और सीटें पडती हैं भीनमाल और रानीवाडा। भीनमाल में फिलहाल कांग्रेस के समरजीतसिंह विधायक हैं। उन्होंने लगातार तीन बार से यहां के विधायक रहे भाजपा के पुराराम चौधरी को हराया। समरजीतसिंह की राह भी गहलोत सरकार में आसान नहीं रही। अशोक गहलोत के कार्यकाल में सचिन पायलट और गहलोत के बीच अदावतें बढी तो उसका असर राजस्थान के अंतिम छोर पर स्थित विधानसभाओं तक भी पहुंची।
समरजीत सिंह पर सचिन पायलट के गुट से नजदीकी होने का आरोप लगाकर उन्हे साइडलाइन करने की कोशिश की जाती रही। समरजीतं सिंह ने 2018 में भी कांग्रेस के टिकिट से भीनमाल से चुनाव लडा था। वो हार गए थे। ऐसे में कांग्रेस की सत्ता होने पर उनके पास विधायकों वाले सारे प्रोटोकॉल होने चाहिए थे। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। ट्रांसफर पोस्टिंग और पसंदीदा अधिकारियों को लाने में भी उनकी नहीं चलने दी गई। यहां की बागडोर भी पुखराज पराशर के हाथों में रही।
रानीवाडा विधानसभा के वर्तमान विधायक रतन देवासी को भी अशोक गहलोत के कार्यकाल में कम प्रताडना नहीं मिली। उन्हें दो जगहों पर विफल करने का निरंतर प्रयास जयपुर से अशोक गहलोत सरकार के समय में किया जाता रहा। एक रानीवाडा में दूसरा माउण्ट आबू में। माउण्ट आबू में अपने दम पर कांग्रेस का बोर्ड बनाने के बावजूद रतन देवासी को दरकिनार करने के लिए ऐसे उपखण्ड अधिकारी और नगर परिषद आयुक्त बेठाए गए जो रतन देवासी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए रहे। स्थिति यहां तक पहुंची कि रतन देवासी और कांग्रेसी नेताओं को उपखण्ड अधिकारी कार्यालय के सामने धरना देना पडा था।
रानीवाडा में भी यही हाल था। समरजीतसिंह की तरह ही रतन देवासी 2018 में रानीवाडा से कांग्रेस के टिकिट पर चुनाव लडे और हार गए। लेकिन, सत्ता होने पर विधायक वाले प्रोटोकॉल इन्हीं के पास आने चाहिए थे। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। यहां भी उनका राजनीतिक हस्तक्षेप खत्म करने का पूरा प्रयास किया गया। लेकिन, देवासी अपने क्षेत्र में लगे रहे। दोनों जगह पर लोगों को राहत मिले इसके लिए वो पुखराज पराशर को लगातार फ्रंट पर रखे रहे लेकिन, मजाल क्या कि गहलोत सरकार में उनके द्वारा कहे गए काम हो जाएं। इन विपरीत परिस्थितियों के बाद भी 2023 में वो रणनीतिक रूप से चुनाव जीत गए।
जालोर लोकसभा में पडने वाले सिरोही जिले की सिरोही विधानसभा सीट में कांग्रेस पर संयम लोढा का एकछत्र राज है। मूल कांग्रेस को खतम करके संयम लोढा ने अपने जुझारू तेवरों से अपने लिए नई कांग्रेस तैयार की। वो कांग्रेस जो जरूरत पडने पर मूल कांग्रेस से भी बगावत करने से नहीं चूके। जैसा कि 2018 में हुआ। कभी अशोक गहलोत के करीबी रहने के कारण लोढा 1998 में सिरोही से टिकिट लेकर लगातार दो बार विधायक बने। लेकिन, 2008 आते आते सीपी जोशी से नजदीकी की वजह से उनके और अशोक गहलोत के बीच में टकराव बढता गया।
इसी दौरान रेवदर विधानसभा में संयम लोढा के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बने नीरज डांगी को कांग्रेस का टिकिट दिया गया। वो अशोक गहलोत के करीबी थे और आगे चलकर जिले में लोढा के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरे। गहलोत से अदावत का का खामियाजा संयम लोढा को 2008 और 2013 के चुनावों में हार के साथ चुकाना पडा। 2018 में निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद संमय लोढा अशोक गहलोत के संकट मोचक बने। जिले में कांग्रेस के तत्कालीन जिलाध्यक्ष जीवाराम आर्य और उनकी टीम पर सचिन पायलट के करीबी होने का आरोप लगा।
2018 में सिरोही के कांग्रेस के प्रत्याशी रहे जीवाराम आर्य को कांग्रेस की सत्ता में विधायक वाले प्रोटोकॉल हासिल होने थे लेकिन, गहलोत के मुख्यमंत्री काल में समरजीतसिंह और रतन देवासी की तरह इन्हें भी खामियाजा झेलना पडा। डांगी भी चुनाव हार चुके थे। राज्यसभा सांसद बन चुके थे। ऐसे में सिरोही जिले की सिरोही विधानसभा और जिला मुख्यालय पर संयम लोढा का दबदबा बढता गया। काफी हद तक ये रेवदर और पिण्डवाडा आबू विधानसभा में भी रहा।
संयम लोढा जुझारू नेता हैं। लेकिन, जीतने के बाद सत्ता सुख सिर्फ खुद तक सीमित रखने और काम निकलने पर अपने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करने की आदत 2008 की तरह 2023 में भी हार का मुंह दिखाया। उनके खुद के करीबी कार्यकर्ताओं ने उनके लिए मन से काम नहीं किया। अशोक गहलोत ने संयम लोढा के आगे जिले में किसी कांग्रेस कार्यकर्ता पर ध्यान नही दिया। बिपरजॉय के दौरान आबूरोड हवाई पट्टी की घटना इसका उदाहरण है।
जिले की पिण्डवाडा-आबू विधानसभा सीट पर अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बाद से आरएसएस के वनवासी कल्याण परिषद ने अपना प्रभाव बढा दिया। अपने तीन मुख्यमंत्री कार्यकाल में अशोक गहलोत यहां पर एक आदिवासी नेता खडा नहीं कर पाए। इस विधानसभा को नीरज डांगी और संयम लोढा ने अखाडा बनाया हुआ है।
माउण्ट आबू रतन देवासी के हिस्से में थी जिस पर अशोक गहलोत सरकार ने उपखण्ड अधिकारियों और नगर पालिका आयुक्तों को बैठा रखा था। इस क्षेत्र में आदिवासी बहुल कांग्रेस के परम्परागत वोट थे। कांग्रेस के द्वारा यहां पर मेहनत नहीं करने से यहां पर बने निर्वात को भारत आदिवासी पार्टी ने भर दिया और कांग्रेस के लिए इस विधानसभा में संभावनाएं सिकोड दी हैं। जालोर लोकसभा की आठो सीटों पर अषोक गहलोत ने अपने कार्यकाल में सिर्फ तीन नेताओं को तरजीह दी। ष्षेष चार विधानसभाओं में तो बडे नेताओं को प्रताडित करने में कोई कमी नहीं छोडी।
अब तकदीर का पहिया घूमा है। जालोर लोकसभा सीट में अशोक गहलोत ने अपनी सरकार में जिन चार नेताओं का एकछत्र राज स्थापित किया वो चारों ही यहां की किसी विधानसभा से विधायक नहीं हैं। पुखराज पराशर और संयम लोढा जैसे जिन नेताओं को सत्ता में रहते हुए सबसे ज्यादा ताकत बख्शी थी उनका अपना कोई जातिगत वोट बैंक नहीं है। जिन्हें प्रताडित किया उनकी जातियों के वोटों पर वैभव गहलोत की जीत का दारोमदार है। ऐसे में अब अषोक गहलोत की सबसे ज्यादा आशा इन्हीं नेताओं पर टिकी हैं।
वैसे 2019 में जब वैभव गहलोत जोधपुर लोकसभा से चुनाव लडे थे उस समय भी पुखराज गहलोत और संयम लोढा प्रमुख भूमिका निभा रहे थे। सूत्रों की मानें तो वहां बाहरी नेताओं को इससे स्थानीय कांग्रेसी खफा थे। जालोर सिरोही में संवाद कार्यक्रम में दिए भाषणों से भी यहीं लग रहा है कि इस बार वैभव गहलोत को जालोर लोकसभा से चुनाव लडवाने में इन दोनों नेताओं के आष्वासन की अहम भूमिका रही है।
वैभव गहलोत ने जालोर लोकसभा में भाजपा की जीत को उतना आसान नहीं रखा है जितने पहले तीन चुनावों में रही। यदि अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री के रूप अंतिम कार्यकाल में स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की राह मे ब्यूरोक्रेसी के माध्यम से चुभवाए गए कांटों का दर्द शांत हो गए होंगे तो परिणाम कांग्रेस के पक्ष में भी बन सकते हैं लेकिन, वो दर्द उन्हें अब भी साल रहा होगा तो परिणाम निराशाजनक हो सकते हैं। वैसे जालोर सिरोही के जिन नेताओं को पिछले पांच साल अशोक गहलोत ने एक ना सुनी उनसे वे अपने जोधपुर स्थिति निवास और जालोर व सिरोही में मिल तो रहे हैं।
आबूरोड में भाजपा प्रत्याशी का रोड शो, शुरु से अंत तक इसलिए रही चर्चित