दीपावली यह शब्द दीप+आवली (पंक्ति) इन दो शब्दों की संधि से बना है। इसका अर्थ है, दीयों की पंक्ति। दीपावली पर सर्वत्र दीये जलाए जाते हैं। चौदह वर्षों का वनवास पूरा कर के प्रभु श्रीराम अयोध्या लौट आए, उस समय प्रजा ने दीपोत्सव किया। तब से दीपावली उत्सव शुरू हुआ। दीपावली भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी उत्साह से मनाई जाती है।
कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी (धनत्रयोदशी), कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी), अमावस्या (लक्ष्मीपूजन) और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) ऐसे चार दिन दीपावली मनाई जाती है। कुछ लोग धनत्रयोदशी को दीपावली में नहीं गिनते, दीपावली शेष तीन दिन की है, ऐसे समझते हैं। वसुबारस और भाई दूज यह दिन दीपावली के साथ आते हैं, इसलिए उनको दीपावली के साथ जोड़ दिया जाता है; परंतु वास्तव में यह त्यौहार अलग-अलग है। प्रत्येक दिन का धार्मिक और अध्यात्म शास्त्रीय महत्त्व है।
दीपावली का बदलता स्वरूप
दीपावली शब्द सुनते ही स्मरण होता है, अभ्यंगस्नान, घर में बनती हुई विविध मिठाईयां व नमकीन, दीये से की जाने वाली सजावट और रंगोलियां! परंतु आजकल इसका मूल स्वरूप बदल गया है। बाहर से लायी हुई नमकीन, मिठाईयां और चॉकलेट, बिजली के दीयों की मालाएं, जोर जोर से बजने वाले गाने और पटाखे, हीरे के गहनों की भेंट, इन सभी बातों में वास्तविक दीपावली का स्वरूप लुप्त हुआ है।
पहले दीपावली के पूर्व सभी मिलकर घर की साफ सफाई करना, दिये को रंगाना, मिठाईयां बनाना यह सभी काम एकत्रित करते थे। अभी परिस्थिती अलग है लड्डू, चिवडा, चकली, गुझिया इत्यादी सभी पदार्थ बाहर वर्ष भर मिल सकते हैं। इसलिए उस पदार्थ का नयापन, बनाने के लिए लगने वाला कौशल्य भी लुप्त हो रहा है। लोगों को अब अपने स्वास्थ्य को बहुत संभालना पड़ता है, इसलिए ये पदार्थ बनाना टाला जाता है परंतु उसी समय पिज्जा, पास्ता और कैडबरी चॉकलेट बहुत रुचि से खाए जाते हैं और भेंट भी दिए जाते हैं। घर की बनी हुई मिठाईयां पड़ोसियों को देने की अपेक्षा बाजार से क्रय की हुई मिठाई भेंट देते हैं, ऐसे अभी दिखाई देता है।
स्वदेशी दीपावली मनाएं
मिट्टी की दीये जलाना, घर में आकाश दीप बनाने की अपेक्षा, चित्र विचित्र आकार के आकाश दीप और बिजली की मालाएं लगाए जाते हैं। इस से त्यौहार की सात्विकता तो कम होती ही है और विदेशी उद्योग धंधों को बढ़ोतरी मिलती है, इस के द्वारा एक प्रकार से देश के पारंपारिक अर्थव्यवस्था पर परिणाम होता है। इस पर उपाय यह है कि स्वदेशी उत्पादकों से और भारतीय पारंपरिक वस्तु क्रय करना चाहिए। इससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।
पटाखे फोड़ना यह और एक ज्वलंत विषय
मूलत: इसे कोई धर्मशास्त्रीय अथवा अध्यात्मशास्त्रीय आधार नहीं है। केवल मजे करने के नाम पर इसके लिए देशभर में सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। पटाख़ों पर श्रीलक्ष्मी, श्रीगणेश इन देवताओं के चित्रवाले पटाखे लक्ष्मीपूजन के दिन फोड़कर हम से अनजाने में इन देवताओं की विडंबना हो रही है यह ध्यान में नहीं आता। हमारे देवताओं की इस प्रकार की विडंबना न हो इस पर हमें ध्यान देना चाहिए। लक्ष्मीपूजन के माध्यम से जिस दिन लक्ष्मी की पूजा हम करते हैं उस दिन ही उसकी इस प्रकार से विडंबना हुई तो श्रीलक्ष्मी की कृपा हम पर होगी क्या? साथ ही इससे निर्माण होने वाली ध्वनी और वायू प्रदूषण, इस के कारण निर्माण होने वाले श्वसन के विकार, जलना, अपघात होना इस प्रकार की दुःखदायी घटनाओं से होनेवाले कष्ट और दुःख इसका स्वरूप भयावह है। इस प्रकार की सभी घटनाओं का गंभीरता से विचार होना आवश्यक है।
विदेशी संस्कृति का प्रभाव
आजकल कोई भी भारतीय त्यौहार आता है, तो चॉकलेट और विदेशी बादाम, पिस्ता इनके विज्ञापन सभी जगह दिखाई देते हैं। देखा जाए तो प्रत्येक त्यौहार में क्या बनाना है, क्या भेंट देना है यह परंपरा से निश्चित है और उसका आध्यात्मिक और शास्त्रीय महत्व भी है। संपूर्ण भारत में उस-उस स्थान के भौगोलिक परिस्थिती के अनुसार यह निश्चित है परंतु आज कल उसे एक ही रंग देकर विदेशी अर्थव्यवस्था को महत्व देने का भाग हो रहा है ऐसे ध्यान में आया है। आजकल सोने के आभूषणों की अपेक्षा हीरा और प्लेटिनम के आभूषण भेंट देने की पद्धति शुरू हो रही है। यदि वह हमारे बजट से बाहर हो तब भी उसे लेने के लिए आग्रह किया जाता है। भारत इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था है कि कुछ प्रतिशत लोगों ने भी यदि वस्तु क्रय किया तब भी उससे बहुत बड़े प्रमाण में आस्थापनो को लाभ होता है।
इससे होने वाली हानि ध्यान में रखकर योग्य कृति करने के लिए हमें प्रयत्न करना चाहिए और अन्यों को भी यह करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, इसमें ही त्योहार का खरा आनंद मिलने वाला है। इसलिए पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने की अपेक्षा भारतीय पद्धति से दीपावली मनाकर इस महत्वपूर्ण पर्व का खरा अर्थ में लाभ लें।
सौजन्य – सनातन संस्था