पेशवाई : नागा साधुओं के क्षात्रतेज की अलौकिक परंपरा

किसी भी कुंभ पर्व के कुछ दिन पूर्व परंपरा के अनुसार विभिन्न अखाडों के साधु-संतों की ओर से कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करने हेतु हथियारों के साथ निकाली जाने वाली शोभायात्रा है पेशवाई! मुगलों से युद्ध कर उनका निर्मूलन करने वाले साधुओं के प्रचंड सामर्थ्य का साक्ष्य देनेवाली पेशवाई की यह परंपरा अलौकिक ही है।

मुगल शासक जहांगीर का हिन्दूद्वेष

मुगल शासक अकबर का पुत्र जहांगीर वर्ष 1605 में प्रयागराज का (उस समय के इलाहाबाद का) शासक बना। जहांगीर ने स्वयं का प्रभाव दिखाने के लिए अपने नाम की मुद्रा तैयार कर उसे विनिमय में ले आया। अन्य मुगल आक्रांताओं की भांति जहांगीर ने भी सनातन धर्मियों का, अर्थात हिन्दुओं का उत्पीडन करना आरंभ किया। उसने प्रयागराज में स्थित हिन्दुओं की अति प्राचीन धरोहर ‘अक्षय वट’ को अनेक बार तोडा तथा जला दिया। (इसमें विशेष बात यह कि जहांगीर ने जितनी बार यह अक्षय वट तोडा तथा जलाया, उतनी बार वह उसकी मूल खिली हुई स्थिति में वापस आता था!)

इसके साथ ही जहांगीर ने हिन्दुओं के कुंभ पर्व के प्रति श्रद्धा मिटाने के लिए कुंभ पर्व को खंडित करने के अनेक प्रयास किए। उस समय में अखाडों के साधु-संत उनके छोटे-छोटे समूह बनाकर कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करते थे। यह सहन न होने के कारण जहांगीर ने साधु-संतों के कुंभक्षेत्र में एकत्र होने पर सीधे प्रतिबंध लगा दिया। उससे भी आगे जाकर कुंभ क्षेत्र में समूहों में आने वाले साधु-संतों पर आक्रमण करना आरंभ किया।

नागा साधुओं ने जहांगीर को पढाया पाठ

एक बार जहांगीर के आक्रमण में 60 साधु-संत मारे गए। अखाडे के अन्य साधुओं तक यह समाचार पहुंचते ही सभी साधु-संत क्षुब्ध हुए। ये सभी साधु-संत एकत्र होकर हाथी, घोडे, बैलगाडी आदि साधन लेकर प्रयागराज के कुंभक्षेत्र पहुंचे। जहांगीर की सेना ने साधु-संतों को कौशांबी क्षेत्र के पास रोकने का प्रयास किया, उस समय नागा साधुओं ने जहांगीर की सेना के विरुद्ध युद्ध छेडा।

करीब 15 दिन तक चले इस घनघोर युद्ध में साधुओं ने जहांगीर की सेना को अक्षरशः धूल चटाई तथा उन्होंने बडे गाजे-बाजे के साथ कुंभ क्षेत्र में विजयी होकर प्रवेश किया। जहांगीर को अपनी हार स्वीकार करनी पडी। उस समय पेशवाओं का राज्य था। उन्होंने इस पराक्रम के कारण नागा साधुओं का अत्यंत भव्य स्वागत कर पालकी, रथ, हाथी, घोडे आदि देकर उनकी शोभायात्रा निकाली। तब से इस शोभायात्रा को ‘पेशवाई’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश हमारे इतिहासकारों ने नागा साधुओं के धर्म के प्रति त्याग, पराक्रम तथा उनके समर्पण की जानबूझकर उपेक्षा कर मुगलों का महिमामंडन किया।

भव्य शोभायात्रा का आरंभ

नागा साधुओं द्वारा जहांगीर पर किए महाआक्रमण की स्मृति में पेशवाई निकाली जाती है। तब से साधुओं की इस एकत्रित शोभायात्रा का अर्थात पेशवाई का आरंभ हुआ। वर्तमान में इस शोभायात्रा का स्वरूप भव्य बन गया है। इसमें घोडे, बग्गी, पारंपरिक वाद्य आदि का अत्यंत आकर्षक प्रदर्शन होता है।

ऐसी होती है शोभायात्रा

प्रत्येक अखाडे के इष्टदेवता होते हैं। शोभायात्रा में इस इष्टदेवता की पालकी सबसे आगे होती है। इसके माध्यम से साधु-संत अपने इस इष्टदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। उसके पीछे-पीछे अखाडे का चिन्ह, साथ ही ‘निशान’ (ध्वज) होता है। अखाडा की परंपरा में ‘निशान’ का अनन्यसाधारण महत्त्व होता है। इस ‘निशान’ से ही अखाडों का परिचय होता है। इस निशान को भूमि पर कदापि टिकाया नहीं जाता। उसके लिए विशेष ध्यान रखा जाता है। उसके पीछे-पीछे अखाडों के आचार्य महामंडलेश्वरों का रथ होता है। उसके पीछे उन अखाडों के अंतर्गत कार्यरत पूरे देश के ‘खालसाओं’ के साधु-संत, मंडलेश्वर आदि के रथ होते हैं। सर्वरथों पर राजसिक वैभव का प्रतीक छतरी होती है।

नागा साधु होते हैं शोभायात्रा के मुख्य आकर्षण

इस शोभायात्रा के माध्यम से एक ओर अखाडे स्वयं के राजसिक वैभव का प्रदर्शन करते हैं, जबकि दूसरी ओर इसी शोभायात्रा में नागा साधु भाला, तलवार आदि पारंपरिक हथियारों के माध्यम से अपने युद्धकौशल का प्रदर्शन करते हैं। इसके द्वारा यह संदेश दिया जाता है कि अखाडों को यह राजसिक वैभव भिक्षा में नहीं मिला है, अपितु उन्होंने पुरुषार्थ दिखाकर उसे प्राप्त किया है तथा शत्रु से युद्ध कर धर्म की रक्षा की है। ऐसा यह पेशवाई का वीरश्री से युक्त ठाट बाट प्रत्येक हिन्दू को जीवन में एक बार तो देखना चाहिए!

नागा साधुओं के अन्य पराक्रम

वर्ष 1664 में क्रूरकर्मा औरंगजेब ने वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर पर आक्रमण किया, उस समय नागा साधुओं ने हथियार उठाकर औरंगजेब की सेना के विरुद्ध युद्ध कर औरंगजेब की सेना को भगा दिया। वर्ष 1757 में अफगान के शासक अहमद शाह अब्दाली की सेना ने भारत पर आक्रमण किया। उसकी सेना के मथुरा पहुंचते ही नागा साधुओं ने वहां भी तलवार, भाला आदि हथियारों के साथ धैर्य के साथ उनका सामना किया। इस युद्ध में नागा साधुओं ने अफगानी सेना को परास्त किया। इस युद्ध में 2 सहस्र नागा साधु मारे गए।