नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी ने नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस की संलिप्तता को लेकर आज बड़े खुलासे किए और दावा किया कि यह मामला पूरी तरह एक व्यावसायिक लेन-देन का विषय है और कांग्रेस यह नहीं कह सकती है कि यह ईडी के अधिकार क्षेत्र से बाहर है या यह किसी प्रकार की राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित है।
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं राज्यसभा सांसद डॉ सुधांशु त्रिवेदी ने केन्द्रीय कार्यालय में प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए नेशनल हेराल्ड मामले में कांग्रेस की संलिप्तता को लेकर बड़े खुलासे किए। डॉ त्रिवेदी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के पत्रों और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता के संस्मरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि पंडित नेहरू के शासन काल से ही नेशनल हेराल्ड कांग्रेस के लिए एक व्यावसायिक लेन देन का विषय था और अब कांग्रेस इसे स्वतंत्रता सेनानियों से जोड़ने का स्वांग रच रही है।
डॉ त्रिवेदी ने कहा कि नेशनल हेराल्ड केस को लेकर आज कांग्रेस पार्टी देशभर में तथाकथित प्रदर्शन कर रही है। यह केस भारत के इतिहास का एक बहुत ही विचित्र मामला है, जिसमें हजारों करोड़ रुपए की संपत्तियों वाली एक कंपनी महज 90 करोड़ रुपए की देनदारी में बिक गई। दूसरी दृष्टि से देखें तो यह एक ऐसा मामला है, जिसमें खरीदने वाला और बेचने वाला, दोनों ही एक ही पक्ष के थे।
तीसरी दृष्टि से देखें तो यह और भी अजीब लगता है जब यह दावा किया जाता है कि यह अखबार स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के योगदान और उनकी स्मृति में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा शुरू किया गया था, लेकिन कांग्रेस के शासनकाल में ही यह बंद भी हो गया। यह अखबार 2008 में बंद हुआ, जबकि इससे पहले लगभग 60 वर्षों में से 50 वर्ष तक कांग्रेस की सरकार रही थी। तो प्रश्न यह उठता है कि क्या कांग्रेस अपनी ही विरासत को अपने शासन काल में बचा नही सकी? वह विरासत जनता में इतनी अलोकप्रिय हो गई थी कि कोई उसका खरीदार नहीं रहा। यहां तक कि कांग्रेस के कार्यकर्ता भी अपना अखबार खरीदने को तैयार नहीं थे, जबकि उसी समय राजीव गांधी फाउंडेशन को सरकार से भरपूर आर्थिक मदद मिल रही थी। यह कांग्रेस पार्टी की नीयत पर सवाल खड़े करता है।
भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि इसमें तीन अखबार थे अंग्रेजी में नेशनल हेराल्ड, हिंदी में नवजीवन और उर्दू में कौमी आवाज। अगर कांग्रेस के सिर्फ 10 प्रतिशत कार्यकर्ता भी इन अखबारों को खरीदने के लिए तैयार होते तो शायद इन अखबारों को बंद करने की नौबत नहीं आती। कांग्रेस चाहती तो अपने फंड से इन्हें खरीदकर कम से कम जिला और मंडल स्तर पर ही वितरित कर सकती थी। आज कौमी आवाज़ भी नहीं मिलता है, यानी उर्दू का अखबार भी गायब हो गया और कौम ने भी आवाज़ नहीं सुनी। यह अपने आप में संदेह पैदा करता है। इससे कांग्रेस की नीयत पर प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी और उसके नेता चाहते ही नहीं थे कि यह अखबार चले। यही कारण है कि जिस कंपनी को खरीदा गया, उसमें पदेन व्यवस्था नहीं रखी गई।
डॉ त्रिवेदी ने कहा कि जैसे कई संस्थाओं में भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष पदेन उस संस्था के भी अध्यक्ष होते हैं, वैसे नहीं किया गया। उन्होंने व्यक्ति-आधारित प्रणाली अपनाई। हाल ही में जो बिल पास हुआ और उस पर चर्चा चल रही है, उसमें वक्फ-अल-औलाद का विषय भी आया था। लगता है कि कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की संपत्तियों को भी प्रॉपर्टी-अल-औलाद यानि अपनी औलाद के नाम कर लिया। कांग्रेस की नीयत पर संदेह केवल भारतीय जनता पार्टी को नहीं है बल्कि स्वयं कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं को भी पहले से था।
डॉ त्रिवेदी ने कहा कि सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 3 मई 1950 को नेशनल हेराल्ड मामले को लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसका स्पष्ट उल्लेख कॉरेस्पोंडेंस ऑफ सरदार पटेल में मिलता है। जिसमें उन्होंने लिखा कि यदि यह स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का कार्य था, तो सरकार से जुड़े हुए लोगों की इतनी संलिप्तता आपत्तिजनक है।
इसके जवाब में पंडित नेहरू 5 मई 1950 को सरदार पटेल को पत्र में लिखा कि हम सभी कभी-कभी चैरिटेबल फंड्स या ऐसे ही उद्देश्यों के लिए दान स्वीकार करते हैं। क्या हमें इन्हें ठुकरा देना चाहिए या कुछ परिस्थितियों में स्वीकार करना चाहिए? बहुत से लोग योगदान देते हैं, सरकारी और गैर-सरकारी दोनों ही, और मुझे इसमें कोई विशेष बुराई नजर नहीं आती।
इसके अगले ही दिन 6 मई 1950 को सरदार पटेल ने पुनः नेहरू जी पत्र लिखकर विस्तार से बताया कि कुछ प्राइवेट कंपनियाँ और उनके शेयरहोल्डर्स इस प्रक्रिया में किस प्रकार सम्मिलित हो रहे हैं। सरदार पटेल ने लिखा कि कुछ योगदान उस पक्ष से नहीं आए थे, जो विभाग के संचालन से जुड़े हुए थे। अन्यथा, मेरी जानकारी के अनुसार, प्राप्त किए गए योगदानों की संख्या पर्याप्त थी और अन्य लोगों को भी शामिल करती है। जिन लेन-देन की मैंने बात की है, वे अलग प्रकृति के हैं। इसमें चैरिटी यानी दान की कोई बात ही नहीं है।
भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि पं जवाहरलाल नेहरू ने 6 मई 1950 को सरदार पटेल को पत्र में लिखकर कहा कि वास्तव में, हेराल्ड एक अच्छा व्यावसायिक प्रस्ताव है और इसके प्रेफरेंस शेयर और डिबेंचर कोई बुरा निवेश नहीं हैं। यह तथ्य पहले भी मीडिया में प्रकाशित हो चुका है। कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने 2-3 साल पहले अपने शोध लेखों में यह बात लिखी है। पं नेहरू जी के समय से ही यह बात कही जा रही थी कि नेशनल हेराल्ड में किया गया निवेश लाभकारी हो सकता है। यह एक अच्छा व्यापारिक निवेश है, इसलिए इसके शेयर या डिबेंचर को नुकसानदेह नहीं कहा जा सकता। इसका सीधा मतलब यह है कि शुरू से ही इस निवेश को लाभ, व्यापार और संपत्ति से जोड़ा गया था।
उन्होंने कहा कि जब यह शुरुआत से एक व्यावसायिक योजना रही है, तो अब इसे अचानक स्वतंत्रता संग्राम में दिए गए दान या चैरिटी से कैसे जोड़ा जा सकता है? जबकि सरदार पटेल पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यह चैरिटी का मामला नहीं है। उन्होंने कहा कि 10 मई 1950 को यानी चार दिन बाद सरदार पटेल ने पत्र लिखकर कहा कि इन घटनाओं के मद्देनजर, मुझे नहीं लगता कि इस मामले को आगे बढ़ाने का कोई लाभ है। मैंने आपको पहले ही बताया है कि मैं इन गतिविधियों को कैसे देखता हूं, और मुझे संदेह है कि यदि किसी अन्य प्रांत में यह होता और मेरा इससे कोई संबंध होता, तो मैं इस स्थिति को स्वीकार नहीं करता। इसका मतलब साफ है कि वे निराश हो चुके थे और अब इस पर दोबारा बात नहीं करना चाहते थे। अब कांग्रेस बताए यह कौन सा त्याग था, कौन सा समर्पण था?
डॉ त्रिवेदी ने कहा कि यह पूरी तरह एक व्यावसायिक लेन-देन का विषय है और कांग्रेस कैसे कह सकती है कि यह ईडी के अधिकार क्षेत्र से बाहर है या यह किसी प्रकार की राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित है? अक्टूबर 2013 में, यह मामला संप्रग सरकार के शासनकाल में एक जनहित याचिका के आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट के निर्देश पर प्रारंभ हुआ था। इसको लेकर संदेह 1950 से ही कांग्रेस के नेताओं के बीच था।
अब एक और उदाहरण, जो रोचक तो है ही, साथ ही गंभीर और चिंताजनक भी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चंद्रभानु गुप्त के संस्मरण से कई खुलासे हुए, जो वर्ष 2021 में सफर कहीं रुका नहीं, झुका नहीं नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। चंद्रभानु गुप्ता ने अपने संस्मरणों में लिखा कि मैं यह जानकर हैरान हूं कि अब नेशनल हेराल्ड को नेहरू परिवार की संपत्ति मानी जा रही है। यदि इस बात की जांच किसी आयोग द्वारा की जाए कि नेशनल हेराल्ड के लिए फंड कैसे इकट्ठा किए गए थे, तो एक बहुत बड़ा खुलासा हो सकता है। शुरुआत से ही नेशनल हेराल्ड की नीति का उद्देश्य नेहरू और उनकी बेटी का प्रचार करना था। प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर वे उन सभी पर हमला करते थे, जो नेहरू परिवार की गलत नीतियों की आलोचना करते थे।
डॉ त्रिवेदी ने कहा कि चंद्रभानु गुप्ता ने आगे लिखा है कि आचार्य नरेंद्र देव, श्रीप्रकाश, शिवप्रसाद गुप्ता, पुरुषोत्तम दास टंडन (जो आजादी के बाद पहले कांग्रेस अध्यक्ष बने थे, लेकिन नेहरू जी ने उनसे यह पद छीन लिया ताकि सत्ता का केंद्रीकरण दो जगह न हो) और स्वयं चंद्रभानु गुप्ता ने अपने शेयर्स बेचे थे और 100 से अधिक शेयर्स नेहरू के नाम पर लिए गए, ताकि नेहरू कंपनी के डायरेक्टर बन सकें। कुछ धन कांग्रेस से लिया गया, और कुछ धन उन थैलियों से आया जो नेहरू और अन्य नेताओं को उपहार स्वरूप मिली थीं। जब मैंने इस अखबार के लिए धन इकट्ठा करना शुरू किया, तो कहा गया कि मैं इस पर नियंत्रण चाहता हूं। इसके बावजूद संकट के समय में मैंने उस अखबार की सहायता की।
उन्होंने कहा कि नेशनल हेराल्ड केस की कहानी में ईडी की भूमिका बहुत पीछे छूट जाती है। कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जुबानी ने कांग्रेस का पूरा चरित्र, चेहरा और चिंतन बेनकाब कर दिया है। देश के एक बड़े अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने भी इस पूरे मामले को विस्तार से प्रस्तुत किया है। पुस्तकों में भी इसके संदर्भ मौजूद हैं। जिस प्रकार कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की विरासत के साथ खिलवाड़ किया है, यह रोग बहुत पुराना है और उनके सत्ता में रहने के समय से चला आ रहा है। फिर कांग्रेस कहेगी कि नेहरू को दोष दिया जा रहा है। नेहरू को भाजपा दोष नहीं दे रही है, बल्कि ये बातें सरदार पटेल, सीबी गुप्ता, पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य नरेंद्र देव, शिवप्रसाद गुप्ता और श्रीप्रकाश जी जैसे नेताओं ने स्वयं लिखी हैं।
कांग्रेस के लोगों को यह बातें ध्यान से सुननी चाहिए। कुछ समय पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कह रहे थे कि मतभेद दिखाने की कोशिश की जा रही है। जबकि सीबी गुप्ता ने यह तक लिखा है कि यह अखबार परिवार का मुखपत्र बन गया है और केवल नेहरू और उनकी बेटी के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनकर रह गया है। अगर इसके बाद भी उन्हें कुछ नजर नहीं आता, तो यह स्पष्ट है कि उन्हें अपनी ही पार्टी की जानकारी नहीं है और उनके कार्यकर्ता भी उनके साथ खड़े नहीं हैं। इसके बाद यदि कोई कानूनी प्रक्रिया पर सवाल उठाता है, तो वह पूरी तरह गलत है। डॉ त्रिवेदी ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा कि वो पैरवी तो झूठ की करता चला गया, लेकिन बस उसका चेहरा उतरता चला गया।