सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते।।
नवरात्रि महिषासुर मर्दिनी मां श्री दुर्गादेवी का त्यौहार है। देवी ने महिषासुर नामक असुरके साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक युद्ध कर, नवमी की रात्रि उसका वध किया। इसलिए उस समय से देवी को ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नाम से जाना जाता है। जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिंदू धर्म में वर्ष में दो बार नवरात्रि के रूप में, विशेष रूप से की जाती है । इस वर्ष नवरात्रि आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि 3 अक्टूबर से प्रारम्भ हो रही है।
युगों-युगों से नवरात्रि का व्रत रखा जाता है। इसलिए इन 9 दिनों में देवी के 9 रूपों की पूजा की जाती है। इस वर्ष की नवरात्रि के उपलक्ष्य में हम देवी के इन 9 रूपों की महिमा समझ लेते हैं। यह व्रत आदिशक्ति की उपासना ही है। श्री दुर्गासप्तशतिके अनुसार श्री दुर्गादेवीके तीन प्रमुख तीन रूप हैं।
महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्व की प्रतीक है।
महालक्ष्मी, जो ‘दिक्’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्व की प्रतीक है।
महाकाली जो ‘काल’ तत्त्व का प्रतीक है।
ऐसी जगत् का पालन करने वाली जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिन्दू धर्म में वर्ष में दो बार नवरात्रि के रूप में, विशेष रूप से की जाती है।
दुर्गादेवी की पूजा विधि
नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना के साथ श्री दुर्गादेवी का आवाहन कर स्थापना करते हैं। इसके अंतर्गत देवताओं की स्थापना विधि, षोडशोपचार पूजन, श्री दुर्गादेवी की अंगपूजा तथा आवरण पूजा की जाती है। इसके उपरांत देवी मां के नित्यपूजन के लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती। घटस्थापना के दिन वेदी पर बोए अनाज से नवमी तक अंकुर निकलते हैं। देवी मां नवरात्रि के नौ दिनों में जगत में तमोगुण का प्रभाव घटाती हैं और सत्त्वगुण बढाती हैं।
नवरात्रि अंतर्गत प्रमुख दिन एवं उसका महत्व
नवरात्रि की कालावधि में महाबलशाली दैत्यों का वध कर देवी दुर्गा महाशक्ति बनी । देवताओं ने उनकी स्तुति की। उस समय देवी मां ने सर्व देवताओं एवं मानवों को अभय का आशीर्वाद देते हुए वचन दिया कि
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्।। – मार्कंडेयपुराण 91.51
अर्थ : जब-जब दानवों द्वारा जगत् को बाधा पहुंचेगी, तब-तब मैं अवतार धारण कर शत्रुओं का नाश करूंगी।
इस श्लोक के अनुसार जगत में जब भी तामसी, आसुरी एवं दुष्ट लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदार एवं धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को अर्थात साधकों को कष्ट पहुंचाते हैं, तब धर्मसंस्थापना हेतु अवतार धारण कर देवी उन असुरों का नाश करती हैं।
असुषु रमन्ते इति असुर:। अर्थात् जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासिता में लीन रहता है, वह असुर कहलाता है। आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवी वृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है। इस असुर की माया को पहचानकर, उसके आसुरी बंधनों से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना आवश्यक है। इसलिए नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए। हमारे ऋषिमुनियों ने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमों से देवी मां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है। श्री दुर्गासप्तशति के एक श्लोक में कहा गया है
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते।। – श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11.12
अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीडा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी, आपको मेरा नमस्कार है। देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं। इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं। यही कारण है कि, देवीतत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनाई जाती है।
नवरात्रि के नौ दिनों में घटस्थापना के उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमीका विशेष महत्त्व है। पंचमी के दिन देवी के नौ रूपों में से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुरसुंदरी का व्रत होता है। शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं। इन तिथियों पर चंडी होम भी किया जाता है।
संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ त्यौहार, धार्मिक उत्सव, एवं व्रत
कु. कृतिका खत्री,
सनातन संस्था
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