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12 year after Delhi serial blasts, victims say justice denied as convict walks free
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दिल्ली सीरियल ब्लास्ट केस मेें दो बरी, एक दोषी लेकिन वह भी होगा रिहा

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दिल्ली सीरियल ब्लास्ट केस मेें दो बरी, एक दोषी लेकिन वह भी होगा रिहा
12 year after Delhi serial blasts, victims say justice denied as convict walks free
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12 year after Delhi serial blasts, victims say justice denied as convict walks free

नई दिल्ली। दिल्ली में 2005 में हुए सीरियल ब्लास्ट के मामले में दिल्ली के पटियाला कोर्ट ने गुरुवार को अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने इस फैसले में रफीक शाह और मोहम्मद फाजली को बरी कर दिया जबकि मोहम्मद तारिक अहमद डार को दोषी ठहराते हुए जेल में बिताए समय को सजा मानते हुए रिहा करने का आदेश दिया है।

29 अक्टूबर, 2005 को दीपावली से ठीक दो दिन पहले (धनतेरस के दिन) दिल्ली के पहाड़गंज, गोविंदपुरी और सरोजिनी नगर मार्केट में सीरियल बम धमाके हुए थे जिसमें 62 लोगों की जानें गई थी और दो सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।

धमाके के आरोप तारिक अहमद डार, मोहम्मद हुसैन फाजिली और मोहम्मद रफीक शाह के खिलाफ है। 2008 में कोर्ट ने धमाके के मास्टरमाइंड तारिक अहमद डार पर आरोप तय किये थे और बाकी दो आरोपियों के खिलाफ राज्य के खिलाफ युद्ध, षड्यंत्र रचने, हथियार इकट्ठा करने , हत्या और हत्या की कोशिश के आरोप थे।

डीटीसी बस ड्राइवर कोर्ट के फैसले से मायूस

वर्ष 2005 में राजधानी में सीरियल ब्लास्ट के दौरान डीटीसी बस के ड्राइवर कुलदीप सिंह ने 80 मुसाफिरों की जान बचाई। मगर इस दर्दनाक हादसे ने कुलदीप को जो जिंदगी भर का दर्द दिया, उन्हें अफसोस है कि इसका कोई इलाज नहीं।

ब्लास्ट के उस खौफनाक सीन को याद करके कुलदीप की आज भी रूह कांप जाती है। एक धमाके ने उनकी पूरी जिंदगी को उजाड़ कर रख दी। कुलदीप की दोनों आंखों की रोशनी चली गई। दाहिनी तरफ का कान पूरी तरह खराब हो गया। एक हाथ ने काम करना बंद कर दिया। मूलरूप से यूपी के बागपत निवासी कुलदीप दिल्ली में पत्नी व 11 साल के बेटे दीपक के साथ शादीपुर डिपो के सरकारी क्वार्टर में रहते हैं।

हादसे से पहले और बाद के हालात बयां करके कुलदीप की आवाज लड़खड़ा गई। कुलदीप के अनुसार उस दिन करीब छह बजे वह बस को लेकर जा रहे थे। करीब 80 सवारियां बैठी हुई थीं। अचानक एक सवारी ने सीट के नीचे रखे लावारिस सामान को देखकर ड्राइवर कुलदीप की सीट के पास आया और बम होने का शक जाहिर किया।

उसने जोर दिया कि बस को तुरंत रोककर सभी को उतार दिया जाए। कुलदीप ने बस को सुरक्षित जगह पर रोकना चाहते थे। कालकाजी डिपो से आगे ले जाकर बस को एक खाली प्लाट के सामने रोक दिया। तुरंत सवारियों को उतार दिया। कुलदीप की ड्राइविंग वाली सीट से करीब पांचवी सीट के ठीक नीचे एक बैग मिला। उसमें से टिक-टिक आवाज आ रही थी।

कुलदीप के अनुसार उन्होंने बैग में टाइमर से जुड़े लाल हरे और पीले रंग के तार देखे। बैग उठाया और उसे लेकर दूर चल दिया। कुलदीप ने बस एक आवाज सुनी, फट जाएगा, दूर रहो बेटा। तभी जोरदार धमाका हुआ। जब होश आया और आंखें खोल कर देखा तो कुलदीप अस्पताल में थे। डॉक्टर से पता चला दोनों आंखों से अब नहीं देख सकता। एक कान से सुन नहीं सकता। एक हाथ खराब हो चुका है। पीड़ित की पत्नी उन दिनों गर्भवती थी।

धमाके के बाद की खौफनाक हकीकत बर्दाश्त करने की हालत में नहीं थी। कुलदीप ने घायल हालात में भी डॉक्टर्स से बार बार गुहार लगाई कि उनकी पत्नी को भनक न लगे, वरना वह सदमा झेल नहीं पाएगी। हादसे के करीब डेढ़ महीने बाद बेटे का जन्म हुआ। मगर आज तक मलाल है कि जिस बेटे के लिए मन्नतें मांगी। उसके पैदा होने से पहले ही पीड़ित की आंखों की रोशनी चली गई।

आंखों की रोशनी बेशक चली गई मगर बेटे का नाम दीपक रखा। आज वह छठवीं क्लास में है। उनका वही एक सहारा है। करीब 11 साल बाद गुरुवार को आए फैसले से कुलदीप मायूस है। कुलदीप का कहना है कि असली गुनहगार कौन है? क्यों उन लोगों को सजा नहीं मिली? इसलिए कुलदीप नाखुश हैं।

उजड़ी जिंदगी को खड़ा किया…

दिलशाद गार्डन में रहने वाली मनीषा अब करीब 20 साल की हैं। होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रही हैं। 11 साल पहले उजड़ी जिंदगी को फिर से तिनका तिनका खड़ा कर रही हैं। दरअसल 2005 में हुए सीरियल ब्लास्ट के दौरान वह 9 साल की थीं, जब उन्हें पता चला कि माता पिता और भाई अब इस दुनिया में नहीं है। एक धमाके ने मनीषा की जिंदगी को पूरी तरह तहस नहस कर दिया था। उस वक्त मासूम मनीषा का सहारा दादा दादी ही रह गए।

गुरुवार को कोर्ट के फैसले से उनके दादा दादी मायूस नजर आए। मनीषा, उनके 70 साल के दादा भगवान दास, दादी सलीना दास दिलशाद गार्डन में रहते हैं। भगवान दास 2007 में इंडियन एयरलाइंस से रिटायर्ड हो गए। परिवार में कमाने वाला कोई नहीं बचा। एयरलाइंस का विलय होने की वजह से आज तक पेंशन मिलनी शुरू नहीं हुई।

ब्लास्ट में जो मुआवजा मिला उससे मनीषा की पढ़ाई भी नहीं हो पा रही है। वह आज तक मनीषा की पढ़ाई के खर्च को भी पूरा नहीं कर सके। साल 2005 में सरोजनी नगर में हुए ब्लास्ट में उस मनहूस दिन शॉपिंग करने आए मनीषा के पिता माइकल, मां और भाई एल्विन को उसने हमेशा के लिए खो दिया। दादी सेलिना आज भी अपने बेटे को याद कर रोती रहती हैं। आंखों में आंसू लेकर कहती है कि जीवन दुश्वारियों से भरा है। जिसे बुढ़ापे की लाठी बनना था आज वो दुनिया में नही है।

धमाके ने बेटा छीन लिया

आज भी उस खौफनाक मंजर की यादें विनोद पोद्दार के दिलोदिमाग पर ताजा है। मार्केट में बच्चों के साथ गए थे। चाट की दुकान पर पेमेंट दे ही रहे थे कि जोरदार धमाका हुआ। काला धुआं, आग में जले हुए लोग दिखाई दे रहे थे। विनोद के राइट साइड का पैर धमाके में उड़ चुका था, बावजूद इसके लाशों के ढेर में इकलौते मासूम बेटे को घिसटते हुए खोज रहे थे।

हां, लाचार हालत में मेरे बेटे ने आखिरी बार बस हाथ हिलाकर मुझे इशारा दिया था। जब तक उसके पास पहुंच पाता। पास की दुकान में तेल के डिब्बों में अचानक आग का गुबार उठा और मेरे मासूम लाडले को आंखों के सामने छीन लिया। फिर विनोद को होश नहीं रहा।

11 साल बाद भी जिदंगी वहीं…

विनोद बताते हैं कि 2005 की उस शाम वह अपने बेटे करण और बेटी दीक्षा के साथ सरोजिनी नगर मार्केट गए थे। उन दिनों बूम शूज का बड़ा ही क्रेज था। बेटे की जिद थी, उसे शूज दिलवाने गया था। लौटते वक्त चाट की दुकान पर रुका। वहां रुपए देकर बाकी बचे पैसे शर्ट की जेब में रखे ही थे कि जोरदार धमाका हो गया। जिसमें वह और उनकी बेटी दीक्षा बुरी तरह से घायल हो गए। करण उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गया। पत्नी ने घर और बाहर की पूरी जिम्मेदारी निभाई।

हादसे के 11 साल बीत गए मगर जिंदगी फिर से खड़ी नहीं हो सकी। बेटे को खोने के दो साल बाद उनके यहां बेटी पैदा हुई। विनोद बताते हैं कि तन्वी के घर में आने के बाद उन्हें उस हादसे से निकलने में थोड़ी बहुत मदद मिली। विनोद कहते हैं, कोर्ट का फैसला जो भी हो। हमारे नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती। उन्हें इस मामले में एक बार बुलाया भी गया था।