लखनऊ। उत्तर प्रदेश में बीते एक महीने से विधानसभा में बहुमत के आंकड़े को हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा का आखिरकार शनिवार को समापन हो गया।
चुनाव के नतीजे न सिर्फ सरकार बनाने के लिहाज से निर्णायक साबित हुए हैं, बल्कि इनमें 2014 के लोकसभा चुनाव की झलक भी नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी चुनाव में अपना 14 साल का सियासी वनवास खत्म करते हुए प्रचण्ड बहुमत हासिल करने के साथ इतिहास रचने में कामयाब हुई है।
वहीं सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी को बेहद बुरी तरह से सरकार से रूखसत होना पड़ा है। इसके साथ ही मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सुनामी के आगे कहीं नजर नहीं आई। विधानसभा चुनाव के परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा गठबन्धन 325 सीटों के साथ सबसे आगे रहा है।
इसमें भाजपा को 312, अपना दल (सोनेलाल) को 9 तथा भारतीय समाज पार्टी को 4 सीटें मिलीं। जबकि सपा-कांग्रेस गठबन्धन महज 54 सीटों पर सिमट गया। इनमें सपा को 47 तथा कांग्रेस को मात्र 7 सीटों पर सन्तोष करना पड़ा। वहीं बसपा 19 सीटों के आगे नहीं बढ़ पाई तो अन्य के खाते में 5 सीटें आईं।
इस तरह पीएम मोदी की सुनामी ने भाजपा विरोधी दलों को अपनी रणनीति के बारे में एक बार फिर आत्मचिन्तन करने पर मजबूर कर दिया है। किसी भी दल को अपने इतने बुरे परिणाम की उम्मीद नहीं थी।
खासतौर से अखिलेश यादव सपा में अध्यक्ष पद हासिल करने के बाद कांग्रेस के साथ मिलकर यूपी में विकास का नया सवेरा लाने का दावा कर रहे थे। उन्होंने अपने पिता मुलायम सिंह यादव की मंशा के विपरीत जाकर न सिर्फ कांग्रेस से गठबन्धन किया बल्कि उससे एक सैकड़ा से अधिक सीटें दी।
अखिलेश पूरे चुनाव अपने इस फैसले को बड़े दिल से दोस्ती करने वाला ठहराते रहे, लेकिन जब नतीजा सामने आया तो पता चला कि नया दोस्त न सिर्फ खुद डूबा है बल्कि उनकी पार्टी को भी बुरी तरह ले डूबा है। सपा की इतनी खराब सियासी हालत मुलायम के राज में भी नहीं हुई।
हालांकि इसके बावजूद उन्हें यह फायदे का सौदा लग रहा है और वह कांग्रेस से गठबन्धन के बाद वह पार्टी को लाभ मिलने की बात कहते नजर आए। इतना ही नहीं अखिलेश ने राहुल और कांग्रेस के साथ अपनी दोस्ती आगे भी बरकार रखने की बात कही।
दूसरी ओर यूपी में वेन्टीलेटर पर चल रही कांग्रेस को शुरूआत से ही यह बेहद फायदे का सौदा लग रहा था। उसे उम्मीद थी कि जब वह अपने बलबूते पर दहाई के आंकड़े के छू लेती है तो सपा के साथ मिलने पर उसकी ताकत में और इजाफ होगा।
हालांकि कांग्रेस ने अपना इतिहास दोहराते हुए विधानसभा चुनाव में सीटों की संख्या में गिरावट का सिलसिला जारी रखा। प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के गिरते प्रदर्शन पर नजर डालें तो 1980 में पार्टी को 309, 1985 में 269, 1989 में 94, 1991 में 46, 1993 में 28, 1996 में 33, 2002 में 25, 2007 में 22 और 2012 में पार्टी को 28 सीटें हासिल हुईं थी।
वहीं इस बार 7 सीटों के साथ वह अर्श से फर्श पर आती दिखाई दी। इसी तरह बसपा की बात करें तो पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में शून्य तक पहुंचने के बाद अब नई तैयारियों और पूरे दमखम के साथ सत्ता में आने का स्वप्न देख रही थी, लेकिन उसकी हालत बीते विधानसभा चुनाव से भी पतली रही।
2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 80 सीटें जीती थी, जबकि इस बार वह इसके आधे पर भी नहीं पहुंच पाई। हताश मायावती सारा दोष ईवीएम मशीन पर डालती नजर आईं। इस तरह इस बार के नतीजों में जहां भाजपा की जीत के अहम कारण नजर आते हैं, वहीं विरोधियों की हार की भी कई अहम वजह देखने को मिल रही हैं।
भाजपा की जीत के विभिन्न पहलू और कारण
1. करिश्माई पीएम नरेन्द्र मोदी, उनकी सरकार द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी से उम्मीदें।
2. यह भाजपा की राम लहर से भी बड़ी जीत है। पार्टी नेताओं के मुताबिक 2014 से जो मोदी लहर शुरू हुई थी, वह 2017 में सुनामी बन गई।
3. 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद कांग्रेस को जो जीत मिली थी उस जीत को भी भाजपा ने पीछे छोड़ दिया।
4. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कैडर और वैचारिक संगठनों के कार्यकर्ताओं की जबरदस्त सांगठनिक ताकत।
5. बूथ स्तर और पन्ना स्तर (मतदाता सूचि के पन्ने के स्तर तक) का प्रबंधन।
6. 2014 के लोकसभा चुनाव का फायदा, जिसमें बीजेपी की अगुवाई में एनडीए ने 80 में से 73 सीटें जीती थीं।
7. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल इलाकों में ज्यादा मजबूत।
8. प्रधानमंत्री नरेन्द्र की मोदी प्रभावशाली 23 रैलियां।
सपा के बेहद बुरे प्रदर्शन की वजह
1.सपा में हुई पारिवारिक तकरार और गुटबाजी।
2. कानून व्यवस्था के मोर्चे पर खराब प्रदर्शन।
3. सपा-कांग्रेस गठबंधन का बेहद देर से होना, कुछ सीटों पर प्रत्याशियों को आमने-सामने होना लड़ाई।
4. प्रचार अभियान की देर से शुरुआत।
5. मतदाताओं में कांग्रेस की कमजोर पकड़, सपा का वोट ट्रांसफर करवाने में नाकामी।
6. कांग्रेस और सपा की नाकाम रणनीति।
क्यों टूटा मायावती का तिलिस्म
1.आम जनता को अपने मुद्दों से जोड़ने में बड़ी नाकामी
2. पार्टी में मायावती के बाद दूसरी पंक्ति के नेताओं का लोकप्रिय नहीं होना।
3. बेहतर कानून व्यवस्था की बात करने के साथ अपाधिक छवि वाले लोगों को टिकट देना।
4. कई बड़े ओबीसी नेताओं का पार्टी छोड़ना।
5. मायावती का अपने हर भाषण में पुरानी बातें ही दोहराना।