बाराबंकी। आज काशी में होली है, मथुरा में और ब्रज में भी और आपके गांव और शहर में भी लेकिन मालूम नहीं आपको इल्म है या नहीं कि यूपी के बाराबंकी जिले में सूफी फकीर हाजी वारिस अली शाह की दरगाह इकलौती ऐसी दरगाह है। जहां हर साल होली के दिन ही होली खेली जाती है।
इस होली के रंग में साराबोर होने के लिए देश भर से हाजी बाबा के मुरीद देवा शरीफ आते हैं यहां कब से होली होती है। यह सही-सही किसी को नहीं मालूम। लेकिन इसमें शिरकत करने मुल्क के तमाम हिस्सों से तमाम मजहबों के लोग आते हैं।
हाजी वारिस अली शाह का रिश्ता पैगम्बर मोहम्मद साहब के खानदान से माना जाता है। सफेद रंग की दरगाह के आंगन में हर तरफ रंग उड़ रहे थे, लाल, पीले, हरे, गुलाबी और सूफी फकीर उन रंगों में रंगे हुए थे। यह सूखे रंगों से होली खेलते हैं। दरगाह के चारों तरफ रक्स करते हुए गुलाल उड़ाते हैं।
दरगाह पर रहने वाले सूफी फकीर गनी शाह वारसी कहते हैं, सरकार ने फरमान था कि मोहब्बत में हर धर्म एक है। उन्हीं सरकार ने ही यहां होली खेलने की रवायत शुरू की थी। सरकार खुद होली खेलते थे और उनके सैकड़ों मुरीद जिनके मजहब अलग थे, जिनकी जुबानें जुदा, वे उनके साथ यहां होली खेलने आते थे। रंगों का तो कोई मजहब नहीं होता है।
सदियों से रंगों की कशिश हर किसी को अपनी तरफ खींचती रही है। तारीख में वाजिद अली शाह, जिल्लेइलाही अकबर और जहांगीर के होली खेलने के तमाम जिक्र मिलते हैं। नवाब आसफुद्दौला दसवीं मुहर्रम को ताजिया दफन कर लखनऊ में तालकटोरा की कर्बला से वापस आ रहे थे, इत्तेफाक से उसी दिन होली थी और चौक में रियाया रंग खेल रही थी।
लोग बादशाह की तरफ रंग लेकर बढ़े तो उन्होंने मुहर्रम के दिन भी रंग खेल लिया ताकि रियाया को यह गलतफहमी न हो जाए कि नवाब का मजहब दूसरा है इसलिए वह रंग नहीं खेल रहे हैं। वाजिद अली शाह खुद होली खेलते थे और होली के दिन महल सजाया जाता था। मुगलों के दौर की तमाम पेंटिंग्स अभी भी मौजूद हैं जिनमें मुगल बादशाह होली खेलते दिखाए गए हैं।
अकबर के जोधाबाई के साथ होली खेलने का जिक्र मिलता है। कहते हैं कि जहांगीर नूरजहां के साथ होली खेलते थे, जिसे ‘ईद-ए-गुलाबी’ कहा जाता था। यह होली गुलाल और गुलाब से खेली जाती। और बहादुर शाह जफर का कलाम तो आज भी गाया जाता है, ‘क्यों मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी।’
हाजी वारिस अली शाह की दरगाह पर आज हमें कई जायरीन मिले जिनमे महाराष्ट्र दिल्ली और देश के कई अन्य जगहों से हाजी वारिस पाक के दरबार में होली खेलने आते यहाँ कई किन्नर भी होली खेलने दिल्ली से यहां होली खेलने आए थे। वह बताते हैं कि वह पहले कभी होली नहीं खेलते थे, लेकिन जब से बाबा की मजार की होली देखी, हर साल यहां होली खेलने आते हैं।
दरअसल सूफियों का दिल इतना बड़ा था कि उसमें सारा जहां समा जाए। होली की एक समृद्ध परंपरा उनके कलमों में मिलती है। बुल्ले शाह लिखते हैं, ‘होरी खेलूंगी कह-कह बिस्मिल्लाह, बूंद पड़ी इनल्लाह।’ इसे तमाम शास्त्रीय गायकों ने गाया है।
सूफी शाह नियाज का कलम आबिदा परवीन ने गया है। जिनकी होली में पैगम्बर मोहम्मद साहब के दामाद अली और उनके नातियों हसन और हुसैन का जिक्र है। वह लिखते हैं, ‘होली होय रही है अहमद जियो के द्वार, हजरात अली का रंग बनो है, हसन-हुसैन खिलद’।