नई दिल्ली। थैलेसीमिया एक गंभीर बीमारी है और इससे केवल दो तरीके से रोका जा सकता है। शादी से पहले वर-वधु के रक्त की जांच हो, और यदि जांच में दोनों के रक्त में माइनर थैलेसीमिया पाया जाए तो बच्चे को मेजर थैलेसीमिया होने की पूरी संभावना बन जाती है।
ऐसी स्थिति में मां के 10 सप्ताह तक गर्भवती होने पर पल रहे शिशु की जांच होनी चाहिए। इससे गर्भ में पल रहे बच्चे में थैलेसीमिया की बीमारी का पता लगाया जा सकता है।
दूसरा उपाय यह कि यदि विवाह के बाद माता-पिता को पता चले कि शिशु थैलेसीमिया से पीड़ित है तो बोन मेरो ट्रांसप्लांट पद्धति से शिशु के जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है।
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विश्व थैलेसीमिया दिवस के अवसर पर जेपी हॉस्पिटल के बोन मेरो ट्रांसप्लांट विभाग के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. पवन कुमार सिंह एवं डॉ. ईशा कौल ने कहा कि शिशु जन्म के पांच महीने की उम्र से ही थैलेसीमिया से ग्रस्त हो जाता है और उसे हर महीने रक्त ट्रांसफ्यूजन की जरूरत पड़ती है। थैलेसीमिया से पीड़ित बच्चे एक निश्चित उम्र तक ही जीवित रह पाते हैं।
डॉ. पवन ने कहा कि महिलाओं एवं पुरुषों के शरीर में क्रोमोजोम की खराबी माइनर थैलेसीमिया होने का कारण बनती है। यदि दोनों ही मानइर थैलेसीमिया से पीड़ित होते हैं तो शिशु को मेजर थैलेसीमिया होने की संभावना बढ़ जाती है। जन्म के तीन महीने बाद ही बच्चे के शरीर में खून बनना बंद हो जाता है और उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।
सिंह ने कहा कि सामान्य रूप से शरीर में लाल रक्त कणों की उम्र करीब 120 दिनों की होती है, लेकिन थैलेसीमिया के कारण लाल रक्त कणों की उम्र कम हो जाती है। इस कारण बार-बार शिशु को बाहरी रक्त चढ़ाना पड़ता है।
ऐसी स्थिति में अधिकांश माता-पिता बच्चे का इलाज कराने में अक्षम हो जाते हैं, जिससे 12 से 15 वर्ष की आयु में बच्चों की मृत्य हो जाती है। यदि सही से इलाज कराया भी गया तो भी 25 वर्ष व इससे कुछ अधिक वर्ष तक ही रोगी जीवित रह सकता है।
डॉ. ईशा कौल ने थैलेसीमिया के लक्षण के बारे में कहा कि जन्म के पांच महीने के बाद यदि माता-पिता को ऐसा महसूस हो कि शिशु के नाखून और जीभ पीले हो रहे हैं, बच्चे के जबड़े और गाल असामान्य हो गए हैं, शिशु का विकास रुकने लगा है, वह अपनी उम्र से काफी छोटा नजर आने लगे, चेहरा सूखा हुआ रहे, वजन न बढ़े, हमेशा कमजोर और बीमार रहे, सांस लेने में तकलीफ हो और पीलिया या जॉइंडिस का भ्रम हो तो तुरंत विशेषज्ञ चिकित्सक से संपर्क करना चाहिए।
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ये लक्षण थैलेसीमिया के भी हो सकते हैं। यदि जांच के बाद थैलेसीमिया की पुष्टि हुई तो बोन मेरो ट्रांसप्लांट द्वारा शिशु के जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है।”
चिकित्सक द्वय ने यह भी कहा कि हमारे समाज में जिस तरह कैंसर, लिवर या किडनी आदि से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता बढ़ी है, उसकी अपेक्षा थैलेसीमिया को लेकर समाज में जानकारी की बहुत कमी है। अज्ञानता का बहुत ही गंभीर परिणाम वर-वधु को झेलना पड़ जाता है।
इसलिए प्रत्येक माता-पिता को शादी से पूर्व वर-वधु की स्वास्थ्य कुंडली का मिलान करना चाहिए। इसके साथ ही गर्भ में पल रहे शिशु की सही समय पर जांच करानी चाहिए। यदि गर्भ में पल रहे शिशु को थैलेसीमिया होता है तो सही समय पर गर्भपात कराना चाहिए।