योग आध्यात्मिक अनुशासन एवं अत्यंत सूक्ष्म विज्ञान पर आधारित ज्ञान है। यह मन और तन के मध्य समन्वय स्थापित करता है। योग वह विज्ञान है जो स्वस्थ जीवन की कला सिखाता है।
पाणिनी के अनुसार योग को युज् समाधौ (समाधि), युजिर योगे (जोड़) एवं युज् संयमने (सामंजस्य) के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। योग के द्वारा व्यक्ति स्व चेतनता को सार्वभौमिक चेतनता के साथ एकाकार कर लेता है।
अर्वाचीन विज्ञान के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड परमाणु का प्रकटीकरण है। इसके अस्तित्व में लय हो जाने वाले को योगी कहते हैं। शाहजहांपुर के रामचंद्र महाराज के अनुसार योगी पूर्ण स्वतंत्राता प्राप्त कर मुक्तावस्था को प्राप्त करता है।
इसे स्थिति के अनुसार मुक्ति, निर्वाण, कैवल्य अथवा मोक्ष कहते हैं। योग अभ्यास से व्यक्ति जीवन में पूर्ण स्वतंत्राता, स्वास्थ्य, प्रसन्नता एवं सामजस्य का अनुभव करता है।
वैदिक श्रुति परम्परा के अनुसार शिव को आदि योगी कहा गया है। योग का ज्ञान इन्होंने सप्त ऋषियों को प्रदान किया। इनके द्वारा योग अखिल विश्व में प्रसारित हुआ।
भारत में योग की विद्या अपने चरमोत्कर्ष के साथ आगे बढ़ी। महर्षि पतंजलि ने प्राचीनकाल से चले आ रहे समस्त योग अभ्यासों एवं क्रियाओं को व्यवस्थित और वर्गीकृत किया। इनका ग्रंथ पातंजलयोगसूत्रा आज भी जिज्ञाषु साधकों एवं अभ्यासियों का मार्गदर्शन करता है।
गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा इस संबंध में पातंजलयोग प्रदीप पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। यह पुस्तक योग के बारे में सर्वाधिक उपयोगी पुस्तक मानी गई है।
इसी प्रकार कल्याण के योगतत्वांक विशेषांक में भी विभिन्न स्थानों पर बिखरी योग सामग्री को एक स्थान पर संकलित किया गया है। पंतजलि के परवर्ती ऋषियों एवं योग आचार्यों ने इसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
वर्तमान में योग अभ्यास से रोग मुक्ति, स्वास्थ्य लाभ लिया जा रहा है। इस कारण योग निरंतर विकसित और समृद्ध हुआ है।
योग से व्यक्ति की शारीरिक क्षमता एवं ऊर्जा के स्तर में वृद्धि होती है। योग के 4 वर्ग निर्धारित किए गए है। कर्म योग में शरीर, ज्ञान योग मे मन, भक्ति योग में भावना एवं क्रिया योग में ऊर्जा का उपयोग किया जाता है। ये वर्ग आपस में एक दूसरे से संबंधित एवं अध्यारोपित होती है।
योग से संबंधित कई परम्पराओं ने इसे आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनमें ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, पतंजलयोग, कुण्डलिनीयोग, हठयोग, ध्यानयोग, मंत्रायोग, लययोग, राजयोग, जैनयोग, बौद्धयोग प्रमुख है।
योगिक अभ्यास में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसे अष्टांग योग सहित बंध, मुद्रा, षट्कर्म, युक्ताहार, मंत्राजप एवं युक्तकर्म जैसी साधनाओं का भी पूर्ण योगदान है। यम प्रतिरोधक एवं नियम अनुपालनीय है। इन्हें योग अभ्यासों से पूर्व सिद्ध करने की अपेक्षा की जाती है।
आसन का अभ्यास शारीरिक एवं मानसिक स्थायीत्व प्रदान करता है। इससे महत्वपूर्ण समय सीमा तक मनोदैहिक विधिपूर्वक अलग-अलग करने से स्वयं के अस्तित्व के प्रति दैहिक स्थिति एवं स्थिति एवं स्थिर जागरूकता बनाए रखने की योग्यता प्रदान करता है।
प्राणायाम स्वसन प्रक्रिया को नियमित एवं व्यवस्थित करता है। इससे मन पर नियंत्राण करना आसान हो जाता है। प्राणायाम से नासिका, मुख सहित शरीर के समस्त रंद्रों एवं मार्गों तक संवेदनशीलता बढ़ जाती है। प्राणायाम में पूरक, कुम्भक एवं रेचक पद होते हैं।
प्रत्याहार के अन्तर्गत अभयासी अपनी इन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक विषयों का त्याग कर मन को चेतना केन्द्र के साथ एकाकार करने का प्रयास करता है। धारणा का अभ्यास मनोयोग के व्यापक आधार क्षेत्रा के एकीकरण का प्रयास करता है।
यह एकीकरण बाद में ध्यान में परिवर्तित हो जाता है। ध्यान योग साधना पद्धति का सार माना गया है। इसी ध्यान में चिंतन एवं एकीकरण से समाधि की अवस्था प्राप्त होती है।
बंध एवं मुद्रा प्राणायाम से संबंधित योग अभ्यास है। ये उच्च कोटि की योगिक क्रियाए मानी जाती है। षट्कर्म शरीर एवं मन के शोधन का अभ्यास है। इससे शरीर में एकत्रा हुए विषैले एवं अपशिष्ट पदार्थों को हटाने में सहायता मिलती है।
युक्ताहार स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त सुव्यस्थित एवं नियमित भोजन का समर्थन करता है। मंत्राजाप सकारात्मक मानसिक ऊर्जा का सृजन करते है। युक्तकर्म स्वास्थ्य जीवन के लिए उचित कर्म की प्रेरणा देते हैं।
संतोष प्रजापति
सहायक जन सम्पर्क अधिकारी, अजमेर