सृष्टि की रचना प्रकृति और पुरुष के सम्मिलन से हुआ है। इनके मिलन से ही धरती पर जीवों की उत्पत्ति हुई। फिर इसकी सुरक्षा तो हमें करनी ही थी। शायद यही वजह है कि भारतीय मनीषियों ने होली जैसे त्यौहार को स्थापित किया। लेकिन आज क्या उनके देखे गए सपने सही दिशा की ओर जा रहे हैं।
होली पर्व के आते ही प्रकृति अपने यौवन पर इतराने लगती है। पेड़-पौधे नई कोपलें देने लगते हैं। गेहूं की बालियां लहलहाने लगतीं हैं। सरसों के खेत लहलहाने लगते हैं। किसानों की बाछें खिल जातीं हैं। उन्हें सुनहरा भविष्य दिखने लगता है। बाग-बगीचे बौर से भर जाते हैं। सबके भरण पोषण की चिंता में फलों से लदकर झुक जाते हैं, लेकिन क्या समाज आज ऐसा करने की सोच रहा है?
शायद नहीं। जिस प्रकृति ने सृष्टि की उसके ही नियमों को मानने वाला कोई नहीं है। फिर यह राष्ट्र के प्रति मन में भाव जगने का काम हो ही नहीं सकता है। समाज के एकरूपता और समरसता आने का सवाल नहीं खड़ा होता। न ही भगवान कृष्ण और गोपिकाओं के बीच होने वाले प्रेमपूर्ण महारास की कल्पना की जा सकती है।
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प्राचीन धर्म ग्रंथों में यह वर्णित है कि इसी दिन भगवान कृष्ण ने पूतना का दुग्धपान कर उसके बुरे विचारों की वजह से प्राणों का हरण किया, लेकिन पूतना के ममता भरे प्रेमपूर्ण भाव ने उसे मां का सुख मिला। भगवान कृष्ण ने पूतना का दुग्धपान कर उसे मां का दर्जा दे दिया। भगवान कृष्ण के इस कृत्य में सृष्टि के अनवरत चलते रहने का संदेश था और समाज में व्याप्त बुराइयों के अंत का संदेश भी।
भक्त प्रह्लाद और हिरणकश्यप की कथा में होलिका की चर्चा यूं नहीं होती है। पुण्य, श्रेष्ठकर्म, समाज में संस्कार आरोपण का प्रतीक प्रह्लाद में भी कमोबेश बचपन के श्रीकृष्ण जैसा ही था। अनेक कष्टों के बाद भी उसने श्रीेष्ठ कर्मों व ईश्वर भक्ति से मुंह नहीं मोड़ा। यही श्रेष्ठकर्म और ईश्वर भक्ति संस्कारित व्यवहार थी। अहंकार से दूर रहने का तरीका था। फिर ऐसे संस्कारों को नौनिकालों में आरोपित करने में हमारी रुचि क्यों नहीं है? शायद हमने अपने पुरखों के प्रकृति प्रेम, समरसता और ‘सर्वे भवंतु सुखिनः‘ जैसे गुणों से दूरी बना ली। प्रकृति के साथ साम्य बिठाकर सबके हित में सोचना और कर्म करना भूलते जा रहे हैं।
अगर हमने प्रकृति से कुछ भी सीख लिया होता तो आज पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्या से नहीं जूझ रहे होते। संकट में नहीं होते। आजोन परत के क्षरण होने का भय नहीं सताता। न ही हममें से अधिकांश लोग राष्ट्रभक्ति से विमुख होते। धन और भौतिक सुख के लालच में इतने नीचे नहीं गिरे होते कि उठने के लिए भी जोर लगाना पड़ता।
आज यह जरूरत है कि होली से जुड़े भक्त प्रह्लाद, हिरण्यकश्यप और होलिका की कथा सुनाकर नौनिहालों में कर्तव्य परायणता को आरोपित करें। प्रकृति के साथ साम्य बिठाएं। इस पर्व के एकाकार होते विभिन्न रंगों से समाज में समरसता स्थापित करें।
होली में सृष्टि बसी है। राष्ट्रभक्ति है। पर्यावरण सुरक्षा का भाव है। मातृभूमि के प्रति प्रेम है। लोक रंग है। प्रकृति है। पुरुष भी। विभिन्न रंगों के समरस भाव का संगम है। समाज के बनते-बिगड़ते रिश्तों को सुलझाने का मूलमंत्र है। एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना है, जिसमें ‘सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय‘ का श्रेष्ठ विचार है।
धुरखेल (धुरंडी, धुलैड़ी) महज होलिका की जली हुई राख नहीं है। यह घृणा, आतंक, बुराई, उत्पीड़न आदि के भाव के नष्ट होने के बाद बचा वह कण है, जिसमें सबके हित का भाव बचा है। गंदे और अप्रयोज्य वस्तुओं की होलिका जलाकर गंदगी को दूर करने का त्यौहार है। मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा भाव है। हर घर के हर सदस्य के शरीर में लगाए गए उबटन से निकली गंदगी के साथ मन से कलुषित भाव मिटाने का महापर्व है।
सृष्टि का यह महापर्व सामाजिक ताने बाने को खुद में समेटे है। लोक, राग और रंग का पर्व है। संगीत के माध्यम से लोक को खुशियों को परस्पर बांटने का पर्व है। अठखेलियों से हर मन को प्रसन्न करने का पर्व है। प्राकृतिक फूलों से बने रंगों में घुल मिलकर प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करने का दिन है।
राग-रंग का यह पर्व बसंतोत्सव का संदेशवाहक है। प्रकृति की यौवनावस्था का अद्भुत क्षण है। राग यानी संगीत का पल है। यह वह पर्व है जिसमें संगीत और प्रकृति एकाकार होते हैं। जीवमात्र को सभी प्रकार के भेद मिटाकर एक होने का संदेश देता है।
प्रकृति के बगैर हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। प्रकृति की तरह साम्य स्थापित कर हम एक और नेक बन सकते हैं। अन्यथा हम लड़-कट कर मिट जाएंगें। सुंदर बनें इसके लिए जरूरी है, मन के भाव को सुंदर बनाएं।
शायद, हम पुरखों के बनाए इस पवित्र पर्व के मूल भाव से भटक रहे हैं। यही वजह है कि हमें न तो समाज या देश की चिन्ता है और न ही प्रकृति की। तभी तो हम टेसू, चंदन, गुलाब जल आदि के उपयोग से बने रंगों से खेली जाने वाली होली को बिसारते जा रहे हैं। रासायनिक रंगों में डूबने के लिए प्रकृति का लगातार दोहन कर रहे हैं। पर्यावरण के संकट होने के बाद भी खुद को संभाल नहीं पा रहे हैं।
आदिकाल से चले आ रहे होरी गीतों और उनमें मिलने वाली सीख को अनदेखा कर रहे हैं। कटुता, वैमनस्यता को भुलाने की जगह इसे बढ़ावा देने में जुटे हैं। ढोल, मजीरा, नगाड़े की धुन पर थिरकने वाली पैरों में अनेक बंधनों की बेडि़यां जकड़ते जा रहे हैं। लोक संगीत में रचे-बसे लोक भावना को आहत करने में जुटे हैं। समरसता को पुष्ट करने की जगह कटुता भाव जाग्रत करने के हर तरकीब को जाने-अनजाने में अपनाते जा रहे हैं।
अब जरूरत है कि होली महापर्व के मूल तत्व को हम पुनः ढूंढ़ें। प्रकृति में सृष्टि की रचना को तलाशें। एक ऐसी रंगीन दुनिया की तलाश करें, जिसमें सभी समरस भाव से रहें। एक-दूसरे में घुलें-मिलें। सबके दुःख से दुःख और सबके सुख में सुख का अनुभव करें। निश्च्छल व प्रेमपूर्ण भाव से परिपूर्ण रहें। घृणा, आतंक, उत्पीड़न, व्यभिचार आदि से मुक्त और ‘सर्वजन हिताय, सर्व जन सुखाय‘ के साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ के भाव से परिपूर्ण समाज के निर्माण के भागी बनें।