नई दिल्ली। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अन्ना एवं निर्भया आंदोलन में चुप्पी साधने, कैबिनेट से मंजूर अध्यादेश को फाडऩे योग्य बताने, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा करने तथा सोनिया का प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन भेजने जैसे कारणों से कांग्रेस को 2014 के चुनाव में अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा।
यह दावा हाल में पत्रकार राजदीप सरदेसाई की हिंदी में प्रकाशित पुस्तक ‘2014 चुनाव जिसने भारत को बदल दिया’ में किया गया है। मूलरूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस पुस्तक का अनूप कुमार भटनागर ने अनुवाद किया है तथा इसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया है।
पुस्तक में कहा गया है कि गांधी प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के आंदोलन का राजनीतिक लाभ अर्जित करने में असफल रहे। वह यदि इस आंदोलन में शिरकत करते तो उनकी छवि जनहित के लिए काम करने वाले एक युवा एवं आक्रामक नेता की बनती और जनता उन्हें हाथोंहाथ लेती लेकिन वह लाभ नहीं उठा सके और अरविंद केजरीवाल को इसका फायदा मिल गया।
इसी तरह की चूक निर्भया कांड के बाद हुए जन आंदोलन के दौरान हुई। पुस्तक में कहा गया है कि जब युवा इंडिया गेट पर आंदोलन कर रहे थे, उस दौरान गांधी अगर इन जोशीले युवाओं के साथ खड़े हो जाते तो वह उनका दिल जीत सकते थे। वह भट्टा पारसौल गए लेकिन निर्भया कांड के खिलाफ संघर्ष कर रहे युवकों से मिलने नहीं तथा एक और बड़ा मौका उनके हाथ से निकल गया।
पुस्तक के अनुसार 27 सितंबर 2013 को उन्होंने सजा याफ्ता सांसदों को तत्काल अयोग्यता से संरक्षण प्रदान करने के लिए मंत्रिमंडल द्वारा पारित अध्यादेश को बकवास करार दिया और इसे फाडऩे लायक बताया। उनका यह कदम नुकसानदेह साबित हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह अध्यादेश वापस तो लिया लेकिन इससे अपमानित महसूस किया और अपने आखिरी राष्ट्रीय संवाददाता सम्मेलन में आम चुनाव के बाद सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा की जिसका गलत संदेश गया।
कांग्रेस के संकट मोचक रहे प्रणव मुखर्जी को पार्टी पहले ही राष्ट्रपति भवन भेज चुकी थी। पुस्तक में कहा गया है कि पहले डॉ. सिंह को राष्ट्रपति बनाकर मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाने की चर्चा चली लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी यह जोखिम उठाने का तैयार नहीं थी। इसके अनुसार राहुल की छवि बिगाडऩे का काम चुनाव से पहले उनके एक इंटरव्यू ने भी किया।
मोदी के लगातार हिट हो रहे साक्षात्कारों के बीच यह बहुत कमजोर साक्षात्कार रहा। इसके बाद उनके आलोचक उन्हें मोदी की तुलना में वह नौसिखिया और बच्चा बताते रहे। लेखक का कहना है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष अपने एजेंडे और कार्ययोजनाओं को लागू करने के लिए जिन व्यक्तियों पर निर्भर थे उनमें राजनेताओं के बजाए रणनीतिक परामर्श देने, कारपोरेट जैसे प्रंबंधन और काम करने के तरीके पर विश्वास करने वाले लोग शामिल रहे।
पुस्तक में कहा गया है ‘राहुल गांधी अपनी निजी जिंदगी में उसी तरह के लोगों से घिरे रहने में सहज महसूस करते थे जिनकी परवरिश उनकी तरह हुई थी। इसमें दावा किया गया है कि उनके सलाहकारों में संभ्रांत परिवेश के ऐसे लोग रहे जो जमीनी हकीकत से अपरिचित और राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे। वह इस वजह से भी पार्टी में टीम भावना पैदा नहीं कर सके।
पुस्तक में कहा गया है कि गांधी कांग्रेस में बदलाव के लिए जूझते रहे लेकिन आखिर उसी व्यवस्था के कैदी बनकर रह गए जिसने उन्हें खड़ा किया। मतलब यह कि जो व्यक्ति वंशवाद की राजनीति की सहारे पार्टी का नेतृत्व हासिल करता है, उसके लिए दूसरों के वास्ते कानून अथवा नियम लागू करना कठिन होता है। इसी वजह से पुराने कांग्रेसी उनसे तालमेल नहीं बिठा सके और युवा पीढ़ी उनके नेतृत्व में खुद को सशक्त महसूस नहीं कर सकी इसलिए पार्टी में टीम भावना पैदा करना उनके लिए कठिन हो गया था।