परीक्षित मिश्रा
सिरोही। खुद को सिकंदर-ए-सानी यानि दूसरा सिकंदर कहने वाला अलाउद्दीन खिलजी राजस्थान में अब तक चित्तोड को तबाह करने के लिए ही जाना जाता है, लेकिन इसी खिलजी को सिरोही रियासत के महाराव ने अपनी प्रजा की मदद से एक नहीं दो बार धूल चटाई थी।
दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी सिरोही जिले में हर देवझूलनी एकादशी पर उसकी बुरी तरह शिकस्त के लिए याद किया जाता है। इस दिन सिरोही रियासत की जीत और अलाउद्दीन खिलजी की हार का जश्न मनाया जाता है। इसी जीत की खुशी में सिरोही के सारणेश्वर गांव देवउठनी एकादशी को एक दिन के लिए रेबारी समुदाय के हवाले आज भी किया जाता है।
सिरोही के पूर्व राजघराने के वंशज और इतिहासकार रघुवीरसिंह देवडा ने बताया कि 1298 ईस्वी सन् में दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात के सोलंकी साम्राज्य को समाप्त किया। वहां पर सिद्धपुर स्थित सोलंकी सम्राटों द्वारा निर्मित विशाल रूद्रमाल के शिवालय को ध्वस्त किया।
उसके शिवलिंग को निकाल कर खून से लथपथ गाय के चमडे में लपेटकर, जंजीरो से बान्धकर हाथी के पैर के पीछे घसीटता हुआ दिल्ली की ओर अग्रसर हुआ। जब खिलजी की सेना शिवलिंग को इसी स्थिति में लेकर आबूपर्वत की तलेटी में बसी चन्द्रावती महानगरी के निकट पहुंची तो सिरोही के महाराव विजय राज को इस बात की सूचना मिली। तो उन्होंने इस तरह हिन्दु धर्म की आस्था के अपमान का प्रतिकार करने का निश्चय किया।
उन्होंने शिवलिंग को मुगल सेना से मुक्त करवाने का संकल्प किया और मुगल सेना से लडने का फैसला किया। अपने सहयोगी राजाओं की मदद से उन्होंने सिरणवा पहाड की तलेटी पर अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर हमला कर दिया। इनका युद्ध हुआ जिसमें महाराव विजयराज के नेतृत्व में राजपूत सेनाएं विजयी हुई और दिल्ली सुल्तान की सेना हार गया।
दीपावली के दिन सिरोही के महाराव विजयराज ने सिरणवा पहाडियों के निकट ही रूद्रमाल के इस शिवलिंग को विधि-विधान से स्थापित करवा दिया। इस युद्ध में बहुत तलवारें चलीं इस कारण इस मंदिर का नाम ’’क्षारणेश्वर’’ रखा गया।
रघुवीरसिंह देवडा ने बताया कि दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को जब सिरोही जैसी छोटी रियासत से उसकी सेना की शर्मनाक हार का पता चला तो वह आग बबूला हो गया। उसने 10 महीने बाद एक विशाल सेना को तैयार कर अपना बदला लेने के लिए 1299 ईस्वी सन् के भाद्र मास में सिरोही पर आक्रमण किया।
उसका यह सं कल्प था कि वो क्षारणेश्वर के लिंग को तोडकर उसके टुकडे-टुकडे करेगा एवं सिरोही नरेश का सिर काटेगा। तब सिरोही की प्रजा ने सिरोही नरेश से विनती की कि धर्म की रक्षा के लिए वे सब मर मिटने को तैयार है। इस युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ। रेबारियो ने सिरणवा पहाड के हर पत्थर एवं पेड के पीछे खडे होकर गोफन के पत्थरो से मुसलमान सेना पर ऐसा भीषण प्रहार किया कि उसे पराजित होना पडा।
हारने के बाद अलाउद्दीन खिलजी ने क्षारणेश्वर से एक किलोमीटर दूर ही अपना पडाव डाल दिया। यहीं पर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ और उसे भंयकर कोढ से ग्रस्त हो गया। जो उसके पास जाता था कोढ उसे हो जाता था। ऐसे में उसके सैनिकों ने भी उसके पास जाना बंद कर दिया।
रघुवीरसिंह देवडा ने बताया कि एक दिन एक चमत्कार हुआ। उसकी सेना में ही शामिल शिकारी कुत्ते कहीं से भीगकर आए। जब वो सुल्तान के पास पहुंचे तो उन्होंने अपने बदन को झटका। इससे कुत्तों के शरीर का पानी अलाउद्दीन खिलजी के बदन पर गिरा। जहां जहां यह पानी गिरा वहां पर सुल्तान का कोढ दुरुस्त हो गया। इस पर सुल्तान ने अपने विश्वस्त मलिक काफूर को बुलवाया। मलिक काफूर बडा चतुर था और उसे पता था कि कोढ के प्रभाव से कैसे मुक्त रहना है। वह अपने पूरे बदन को पूरी तरह से ढक कर सुल्तान के पास गया।
सुल्तान ने आदेश दिया कि यह श्वान जहां से नहा कर आए हें उस स्थान का पता करो। मलिक काफूर ने भादव की चिलचिलाती धूप में कुत्तों को कई घंटे बांधे रखा। कुत्ते जब प्यास से बेहाल हो गए तो उसने उन्हें खोल दिया। इस पर कुत्ते जलस्रोत की ओर भागे। काफूर भी घोडे पर उनके पीछे चल पडा।
कुत्ता क्षारणेश्वर मंदिर के निकट के कुंड में पानी पीने लगे। हार के दंश के कारण काफूर क्षारणेश्वर मंदिर क्षेत्र में घुस नहीं सकता था। ऐसे में उसने जाकर सुल्तान को सब बात बताई। इस पर सुल्तान ने अपनी बीमारी का हवाला देते हुए महाराव विजयराज से इस कुंड का पानी स्नान के लिए मांगा।
महाराव ने इंसानियत को सबसे बडा धर्म मानते हुए खिलजी को स्नान के लिए इस कुंड का पानी दे दिया। अलाउद्दीन खिलजी इस पानी से स्नान करने के बाद एकदम स्वस्थ हो गया। वह क्षारणेश्वर क्षेत्र में आया और इसे देवीय कृपा मानते हुए सिरोही पर फिर कभी हमला नहीं करने का वचन देकर दिल्ली लौट गया।
जिस दिन सिरोही की प्रजा की मदद से महाराव विजयराज ने अलाउद्दीन खिलजी को हराया था वह दिन देवझूलनी एकादशी का दिन था और तिथि 12 सितम्बर 1299 थी। इस जीत के हर्ष में महाराव विजयराज ने क्षारणेश्वर क्षेत्र का एक दिन का राज उस क्षेत्र के रेबारियों को दे दिया।
इसके बाद से यह वचन एक परम्परा बन गई और प्रतिवर्ष देवझूलनी एकादशी की रात को इस क्षारणेश्वर, जो अपभ्रंशित होकर अब सारणेश्वर कहलाता है, पर यहां के पूर्व राजपरिवार की ओर से रेबारी समाज को आधिपत्य दिया जाता है। यही परम्परा अब यहां का स्थानीय विजय दिवस बन चुका है। 718 साल बाद भी इस परम्परा को निभाया जा रहा है।