सबगुरु न्यूज। “मैं” जन्मी उस देश में जहां नहीं रहते भगवान अर्थात जिस जगह अहंकार का निवास होता है, वहां जगत पिता का निवास नहीं होता है भले ही कोई कितना भी जतन क्यो ना कर ले। वहां केवल काल का ही निवास होता है। जब दिल और दिमाग से अहंकार खत्म हो जाता है वहा पर परमात्मा दया बन कर कृपा बरसाते हैं।
अहंकार रुपी रावण भले ही अमृत रूपी कुंड अपनी नाभि में लेकर बैठा हो लेकिन वह बहुत कुछ किसी का बिगाड़ कर भी, कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि वहां जगत पिता अपनी कृपा बरसाते हैं।
एक बार एक विचित्र सी घटना घटी। एक पेड़ पर एक कबूतर और कबूतरी बडे आराम के साथ बैठे थे और जगत पिता को बार बार प्रणाम कर धन्यवाद दे रहे थे कि हे नाथ आपने हम पर बड़ी कृपा करी जो इस तीर्थ नगरी में हम बास कर रहे हैं। यहां पीने के पानी का सरोवर दे रखा है और वर्ष भर श्रद्धालु आते हैं जो दाना डालते रहते है। मंदिर में होते भजन कीर्तन की अमृतवाणी हमें अति सकून देतीं हैं।
इतने में जब उनको होश आता है तो उनके सामने एक शिकारी तीर कमान ताने हुए उन्हें मारने लगता है। डर के मारे कबूतर ओर कबूतरी कांपने लग जाते हैं। इसी बीच वे उडने की सोचते हैं तो आसमान में एक भयंकर बाज़ भी इसी तैयारी में रहता है कि जैसे ही ये उडें तो मैं अपने पंखों से झपट्टा मार कर इन कबूतर और कबूतरी को खा जाउं। कबूतरी ओर कबूतर मायूस हो जगत पिता की ओर देखते हैं।
इतने में एक ओर घटना घटी, एक जहरीला सांप वहां पर आ गया ओर शिकारी को डंस गया। सांप के डसते ही शिकारी का संतुलन बिगड़ गया तथा उसका तीर तिरछा चला गया तथा आसमान में जाकर बाज़ के लगा। दो तरफा घटना घटी और नीचे शिकारी तथा ऊपर बाज़ दोनों ही मर गए ओर कबूतर तथा कबूतरी बच गए।
तब कबूतर कहता है कि कबूतरी इस जगत में जिसका जगत पिता खुद ही रखवाला होता है उसे इस जगत में कोई भी नहीं मार सकता है।
संत जन कहते है कि हे मानव तू सदा ही जगत पिता का कृपा पत्र बन कर रह। ऐसा करने के लिए तेरे घट मे सम्पर्ण व श्रद्धा के भाव होना जरूरी है और यही आत्मा की वाणी होतीं हैं।
सौजन्य : भंवरलाल