सबगुरु न्यूज। जंगल मे जब शेर दहाड़ता है तो सभी जीव अपनें आप को बचाने के लिए इघर उधर छिप जाते है और एक सियार अपनी जान बचाने के लिए शेर की खाली मांद में ही घुस जाता है और शेर बेपरवाह होकर केवल दहाड़ता ही रहता है।
इसी खेल में जंगल के खतरनाक जानवर सब एक होकर चारों तरफ से घेर कर उसको घायल कर भाग जाते हैं। शेर घायल होकर अपनी मांद में जाता है तो वहां भी सियार गुर्राता हुआ उसके सामने से निकल जाता है। शेर बेबस होकर अपनी हार पर आंसू बहाते हुए मांद में घुस जाता है।
हितों को साधने के लिए स्वयं व्यक्ति को साधन बनकर काम करना पडता है अन्यथा परिस्थितियों के सामने हार का सामना करना पड़ता है। अपने हितों को साधने के लिए त्याग एक साधन बनता है और उस पर स्वार्थ राज करता है। यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक बनकर विद्रोह का अंत कर सकने में ही सफल हो सकते हैं।
जंगल का राजा शेर जब अपना शिकार करता है तो उसे अपनी मांद में से बाहर निकल कर शांत रहना पड़ता है अन्यथा उसकी दहाड़ से जंगल के जीव अपने बचने के कई रास्ते ढूंढ कर सब सुरक्षित हो जाएंगे और शेर की दहाड़ एक वीराने की गूंज ही बन कर रह जाएगी। इससे शेर भूखा रह कर शनै: शनै: खुद कमजोर होकर दहाड़ना बंद कर देगा। शेर की यही नीति उसके हार का एक भारी कारण बन जाएगी।
पुराणों की एक कथा में बताया गया है कि एक बार दैव दानवों से हार गए तो वे विष्णुजी के पास सलाह लेने गए ताकि कोई रास्ता मिल जाए। विष्णुजी ने उन्हें पृथ्वी पर इक्षवाकु वंश के राजा शशाद के पुत्र कुकुत्तस्थ के पास सहायता के लिए भेजा।
राजा कुकुतसथने कहा मैं इन दैत्यों को हरा दूंगा लेकिन देवराज इंद्र को मेरा वाहन बनना पडेगा। देवराज इंद्र ने विरोध किया तो विष्णुजी ने समझाकर उसको राजा कुकुतसथ का वाहन बनवा दिया और राजा ने देवों को युद्ध मे विजय श्री दिलवा दी। राजा कुकुतसथ को इन्द्रवाह की उपाधि से नवाज़ा गया।
स्वार्थ चाहे स्वयं के लिए हो या फिर समूह के लिए जब तक त्याग नहीं है तो हार का सामना करना पड़ता है। फिर भी यह त्याग जो मान मर्यादा को खत्म कर लाभ देता है तो उसमें अपमान ही छिपा रहता है जैसे देवराज इन्द्र को केवल स्वर्ग का राज प्राप्त करने के लिए राजा कुकुतसथ का वाहन यानी बैल बनना पडा।
संत जन कहते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है लेकिन आत्म सम्मान खोकर पाया गया लाभ स्वयं के ही पतन का कारण बनता है इसलिए हे मानव तू अपना आत्म मंथन कर ओर अपने कर्म की ओर बढ़ अभी जीवन का सफर बाकी हैं।
सौजन्य : भंवरलाल