पाकिस्तान की विश्वसनीयता और वहां निर्वाचित प्रधानमंत्री की हैसियत पर सदैव प्रश्नचिन्ह रहा है। इस सच्चाई में कोई बदलाव नहीं हुआ। यहां सियासी नदी उल्टी बहती है।
प्रधानमंत्री पर सेना प्रमुख भारी पड़ते हैं खासतौर पर विदेश नीति व भारत के साथ संबंधों का अंतिम निर्धारण सेना ओर आईएसआई की मर्जी से होता है। फिर भी भूगोल को बदला नहीं जा सकता। उसे हमारे पड़ोस में ही रहना है। दूसरी तरफ भारत वास्तविक रूप में प्रजातांत्रिक और शांतिवादी देश है। शीर्ष स्तर की वार्ता पाकिस्तान के सेना प्रमुख के साथ तो की नहीं जा सकती।
ऐसे में शीर्ष वार्ता प्रधानमंत्री के स्तर पर ही संभव है। उफा में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी नीति पर अमल किया। उन्होंने पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ से मुलाकात की। मोदी ने पूरी दृढ़ता के साथ भारत का पक्ष रखा। यह अच्छी बात है कि नवाज ने भी सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की।
अब तक के पाकिस्तानी रिकार्ड को देखते हुए इस मुलाकात से बड़े निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। क्योंकि सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि इस्लामाबाद में नवाज के साथ सेना प्रमुख कैसा व्यवहार करते हैं। वह नवाज द्वारा मोदी से किये गये वादों पर किस हद तक सहमत होते हैं और उस पर अमल की कितनी अनुमति देते हैं। यह पाकिस्तान और नवाज शरीफ दोनों की समस्या है।
इस मुलाकात का सबसे सार्थक पक्ष यह था कि मोदी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा संदेश देने में सफल रहे। उन्होंने पाकिस्तान के संबंध में भारत की नीति को प्रभावी ढंग से रेखांकित किया। यह बताया कि पाकिस्तान को सीमापार का आतंकवाद रोकना होगा, मुम्बई हमले के आरोपियों को सजा दिलानी होगी तथा कश्मीर का राग अलापना बन्द करना होगा। कश्मीर-भारत का अभिन्न हिस्सा है। इस पर पाकिस्तान से वार्ता की आवश्यकता नहीं है।
इतना अवश्य है कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तान का झण्डा लहराने वालों को वहीं चले जाना चाहिए। वह नाहक ही भारत का अन्न-जल ग्रहण कर रहे हैं, सुविधाओ का लाभ उठा रहे हैं। पाकिस्तान को भी चाहिए कि इनके जज्बात समझते हुए इन्हें अपने यहां बुला ले। इस प्रकार के लोग पाकिस्तान में ही खप सकते हैं।
यह मानना होगा कि दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात से पहले रिश्तों में तल्खी थी। पाकिस्तान ने द्विपक्षीय माहौल को सामान्य बनाने का अपनी तरफ से कोई प्रयास नहीं किया था। भारत ने कश्मीरी अलगाववादियों से पाकिस्तानी उच्चायुक्त की मुलाकात पर आपत्ति दर्ज कराई थी। इसे लेकर सचिव स्तर की वार्ता रोक दी गयी थी। कोई भी देश अपने देशद्रोहियों का किसी दूतावासों में स्वागत बर्दास्त नहीं कर सकता।
देश और देशद्रोहियों में से एक को ही चुनना था। पाकिस्तान ने सचिव स्तर की वार्ता शुरू करने का प्रयास नहीं किया। इससे रिश्तों पर बर्फ जम गयी थी। कुछ दिन पहले मुम्बई हमले के मास्टर माइंड रहमान-लखवी की रिहाई ने संबंधों को ज्यादा खराब किया था।
पाकिस्तानी सरकार सेना, आईएसआई और आतंकी संगठन लश्कर-ए-तइबा के दबाव में थी। उसने लखवी के मामले में पाकिस्तानी कोर्ट के सामने कमजोर साक्ष्य पेश किये थे। यही कारण है कि बीस से अधिक बार इस मामले में पाकिस्तानी कोर्ट में सुनवाई टल चुकी है।
परिणामस्वरूप लखवी खुलेआम घूम रहा है। इतना ही नहीं भारत ने जब संयुक्त राष्ट्र संघ में लखवी का मुद्दा उठाया तो पाकिस्तान ने चीन से उसे वीटो करा दिया। इसी प्रकार भारत विरोधी कई आतंकी वहां खुलेआम घूम रहे हैं।
जाहिर है इस माहौल में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात पर ज्यादा उम्मीद नहीं थी। लेकिन नरेन्द्र मोदी अपनी कार्यशैली के अनुरूप पहले से ही तैयार थे। इसी का परिणाम है कि वह पूरी मजबूती से अपना पक्ष रख सके। उन्होंने सीमा पार के आतंकवाद और संघर्ष विराम के उल्लंघन का मुद्दा उठाया।
नवाज शरीफ इससे इनकार नहीं कर सके। इस बात का वैश्विक महत्व है। भारत की यह कूटनीतिक सफलता है। पाकिस्तान की सच्चाई इन बातों से सामने आ गयी। वह कितना सहयोग देगा, यह भविष्य में पता चलेगा, लेकिन दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच जो सहमति बनी, उसे फिलहाल सैद्धांतिक रूप से सफल माना जा सकता है।
अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर शांति बहाली की जिम्मेदारी भारत के सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान के रेंजर्स को देने का फैसला हुआ। दोनों बल आपसी सहयोग से यह कार्य करेंगे। देानों बलों के महानिदेशकों की सितम्बर में मुलाकात होगी। इस अवधि का उपयोग तैयारी करने में होगा।
इस प्रकार के द्विपक्षीय फैसले प्रायः संबंधित देश की यात्रा में होते हैं। लेकिन यह बड़ी बात है कि मोदी ने शंघाई सम्मेलन में यह कर दिखाया। पाकिस्तानी रेंजर्स को जिम्मेदारी सौंपने का मतलब है कि उसे अपनी सीमा पर चलने वाली आतंकी घटनाएं व संघर्ष विराम के उल्लंघन की वारदातें रोकनी होंगी। वार्ता को शुरू करने और उसे चलाने के लिये रेंजर्स को इस जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा।
मोदी ने बड़ी सहजता से गंेद पाकिस्तान के पाले में कर दी है। फैसला शंघाई सम्मेलन के अवसर पर हुआ, दुनिया की नजर उस पर थी। ऐसे में पाकिस्तान को आतंकियों व संघर्ष विराम का उल्लंघन करने वालों पर रोक लगाकर दिखाना होगा। वस्तुतः यह सब दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य बनाने के लिये यह सब शर्तें ही हैं।
यह सोचना गलत है कि भारत ने सचिव स्तर की वार्ता रोकने से यू-टर्न लिया है। वरन् अब सीमा पर शांति बहाली की शर्त को जोरदार और व्यवहारिक बना दिया गया है। पाकिस्तान ऐसा कर सका तो ठीक, अन्यथा आगे की वार्ता रुकने की जिम्मेदारी उसी पर होगी। मोदी की कूटनीति से यह तय हुआ कि सीमा पर हिंसक गतिविधि रोकने की जिम्मेदारी पाकिस्तान की है।
वस्तुतः इस मुलाकात से भारत का पक्ष अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रभावी ढंग से सामने आया है। पाकिस्तान को शंाति बहाली के लिये नेकनीयत दिखानी होगी। अन्यथा यह माना जायेगा कि वह भारत के साथ रिश्ते सामान्य नहीं बनाना चाहता। वहां की सरकार के साथ-साथ सेना की जवाबदेही भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कसौटी पर होगी।
-डाॅ. दिलीप अग्निहोत्री