पटना। आस्था और विश्वास का महापर्व छठ रविवार से शुरु हो गया। चार दिवसीय अनुष्ठान रविवार को नहाय- खाय के साथ प्रारंभ हो गया। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व की महिमा भी बड़ी निराली है ।
मिथिला के धर्मशास्त्री रूद्रधर के मुताबिक छठ पर्व की कथ स्कन्धपुरान से ली गयी है। इस कथ में दु:ख एवं रोग नाश के लिये सूर्य के ब्रत का उल्लेख किया गया है। इस ब्रत का विधान बतलाते हुये कहा गया है कि पंचमी तिथि को एक बार ही भोजन कर संयमपूर्वक दुष्ट वचन, क्रोध आदि का त्याग करें।
अगले दिन षष्ठी तिथि को निराहार रह कर संध्या में नदी के तटपर जाकर धूप , दीप, घी, में पकाये हुए पकवान आदि से भगवान भास्कर की आराधना कर उन्हें अध्र्य दे। रात्रि में जागरण कर पुन: प्रात: काल सूर्य की आराधना कर अध्रय देने का विधान किया गया है ।
इसकी दूसरी कथा भविष्योत्तर-पुरान से संकलित बतायी जाती है। इसके अनुसार पाण्डवगण द्युत में हार कर वनवास काल व्यतीत कर रहे थे, तब वे भाईयों के भरण-पोषण के लिये चिंतित थे। इसी बीत अस्सी हजार मुनि उनके आश्रम में पधारे उनके भोजन की चिंता में युधिष्ठिर अधिक घबरा उठे । तब द्रोपदी अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से इसका समाधान पूछने लगी। धौम्य ऋषि ने उन्हें भगवान सूर्य का व्रत, रवि पष्ठी करने का निर्देश दिया, जिसे प्राचीन काल में नागकक्ष के उपदेश से सुकन्या ने किया था।
धौम्य ऋषि ने कहा कि प्राचीन काल में शर्यति नामक एक राजा हुए उनकी पुत्री सुकन्या थी। एक बार राजा अपनी रानियों के साथ जंगल में शिकार खेलने गये। बालस्वाभाववश सुकन्या वन में अकेले घूमने निकल पड़ी । उस वन में च्यवन मुनि घोर तपस्या कर रहे थे। उनके चारों ओर दीमक का टीला बन गया था। किन्तु उसके विवर से मुनि की आंखे चमकती थी। सुकन्या ने बालसुलभ चपलता के कारण उनकी आंखे में कांटा चुभो दिय ।
मुनि की आंखों से रक्त की धारा बह चली। सुकन्या फूल चुनकर शिविर में लौट आयी इस घटना के बाद राजा शर्याति और उनके सैनिक अस्वस्थ हो गये । उनके मल-मूत्र अवरूध हो गये। तब राजा के पुरोहित ने उन्हें बताया कि आप अपनी कन्या देकर च्वयन ऋषि को प्रसन्न करें। राजा ने वैसा ही किया। सुकन्या अंधे मुनि च्वयन की ब्याही गई । सुकन्या की शादी कर शर्याति अपने नगर लौट आये
एक दिन सुकन्या कार्तिक मास में जल लेने नदी के तट पर गई। वहां उन्होंने नाग कन्याओं को एक ब्रत करते देखा । सुकन्या के पूछने पर नाग कन्याओं ने कहा
कार्तिकस्य सिते पक्षे षष्ठी वै स्पतमीयुता।
तत्र व्रत प्रकुर्वीत सर्वकानार्थ सिद्वये ।।
पंचम्यां नियमें कृत्वा विधानत:।
एकाहारं ह्रविष्यस्य भूमौ शय्यां प्रकल्पयेत।।51।।
षष्ठयामुपोषणं कुर्याद्रात्रौ जागरण चरेत।
मण्डपच्च चतुर्वर्ण पूजयेद्विननायकं ।। 52।।
नाना फले : सनैवेद्यै पक्कवान्नार्थ प्रयूजयते ।
उत्सव गीतवाद्यादि कर्तव्यं सूर्यप्रीतये ।। 53।।
तावदुपोषणं कुर्याद्यावत्सूर्यस्य दर्शनम् ।
सप्तम्यामुदित सूर्य दद्यादर्ध्य विधानत:।।54।।
सदुग्धैर्नारिके लैस्तु सपुष्पफलचन्दनै :।
सुकन्या इन्हीं नागकन्याओं के उपदेश पर व्रत करने लगी, जिससे उसके पति च्वयन मुनि की आंखें निरोग हो गयी। इस कथा को धौम्य ऋषि ने द्रोपदी को सुनाकर इस व्रत को करने का उपदेश दिया। जिसके करने से वह भी प्रसन्नता पूर्वक रहने लगी। महाभारत में जो द्रोपदी को अक्षय-पात्र देने का आख्यान है , उसी से इस कथा को जोड़ा गया है।
लेकिन लोक-संस्कृति में छठी भैया की अवधारणा सुरक्षित है. छठ पर्व अधिकाधिक उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में अत्यंत श्रद्धा, पवित्रता और शुद्धता तथा सफाई के साथ मनाया जाता है। इसका इतना अधिक महत्व है कि इसे बड़ा पर्व भी कहा जाता है। लोक गीतों में परम्परागत सूर्य षष्ठी में और छठी मैया की पूजा से संबद्व अनेक गीत और लोक कथाएं प्रचलित हैं। हालांकि अब इस व्रत को लगभग पूरे भारत और विदेशों में बी मनाया जाने लगा है।
इसके अतिरिक्त भविष्य पुरान में वचनों का संकलन किया गया है। इन वचना के अनुसार यह षष्ठी तिथि कार्तिकेय की दयिता हैं, जिसमें कार्तिकेय को अध्र्य देने का विधान है। अध्र्य देकर रात्रि में भूमि पर शयन करने का विधान किया गया है। इस षष्ठी तिथि को तेल का व्यवहार निषिद्व माना गया है। इस व्रत से खोये हुए राज्य की प्राप्ति तथा कार्तिकेय लोक में एवं स्वर्ग में वास करने का फल बताया गया है।