रुडयार्ड किपलिंग ने रुस के साम्राज्यवाद को ब्रिटिश भारत में रोकने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया था, वह ग्रेट गेम कहा जाता है। कुछ लोगों ने इसे काल्पनिक गेम भी कहा गया।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में ब्रिटेन को भय था कि सोवियत रुस, ब्रिटिश भारत में विस्तार करना चाहता है। इसे रोकने के लिए ब्रिटेन अफ़ग़ानिस्तान को बफर स्टेट के लिए इस्तेमाल करता था।
लेकिन 1947 में जब ब्रिटेन ने अनेक कारणों से चले जाने का निर्णय कर लिया तब उसे लगा कि अफ़ग़ानिस्तान शायद सोवियत रुस के साम्राज्यवादी इरादों का मुक़ाबला नहीं कर सकेगा। इसलिए एक नई बफर स्टेट पाकिस्तान का निर्माण किया गया जो ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के साथ रहेगा और सोवियत रुस का साम्राज्यवादी विस्तार को रोकने के लिए मददगार होगा।
ब्रिटेन को यह विश्वास था कि पाकिस्तान और भारत स्थायी रुप से एक दूसरे के दुश्मन रहेंगे और यदि भारत सोवियत रुस के खेमे में चला भी गया तो पाकिस्तान, गोरी साम्राज्यवादियों की सहायता से भारत को टाईट सपाट में रखेगा।
अफ़ग़ानिस्तान के भारत के खेमे में चले जाने का डर रहा होगा, इसलिए भारत और अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान के निर्माण से स्थल मार्ग से काट दिया। जम्मू कश्मीर के गिलगित के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान भारत से फिर जुड़ रहा था। इसलिये 1947 में ही अंग्रेज़ अधिकारी मेजर ब्राऊन को आगे करके गिलगित पाकिस्तान के क़ब्ज़े में करवा दिया।
यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि नेहरु ने जम्मू कश्मीर को लेकर न जाने कितना लिखा पढा, लेकिन गिलगित की चर्चा शायद ही कभी की हो। जिस ग्रेट गेम की चर्चा किपलिंग ने की थी शायद वह किसी न किसी रुप में अब भी जारी है। सोवियत रुस ने सचमुच अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और रुस को परास्त करने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों ने सचमुच पाकिस्तान का ही प्रयोग किया।
लेकिन ग्रेट गेम के इस पूरे टूर्नामेंट में भारत के रिश्ते पाकिस्तान से और दरक गए। इन दरक रहे रिश्तों में कुछ भी अस्वभाविक नहीं था, क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण ही इस काम के लिए किया गया था। भारत के सामने मुख्य प्रश्न यही है कि गोरे साम्राज्यवादियों की इस ग्रेट गेम को जिसका शिकार भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तान भी हो रहा है, उसे कैसे परास्त किया जाए।
यह ठीक है कि पाकिस्तान ने इस ग्रेट गेम में साम्राज्यवादी शक्तियों का साथ दिया लेकिन इस गेम में वह स्वयं भी घायल हो गया। कुछ ज़्यादा ही घायल। साम्राज्यवादियों की इस ग्रेट गेम को परास्त करने का सपना पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी देखा था। उन्होंने एक बार कहा था क्या ही अच्छा हो कि सुबह का नाश्ता हिन्दोस्तान में किया जाए, दोपहर का भोजन पाकिस्तान में और रात्रि का भोजन काबुल में किया जाए।
यह साम्राज्यवादियों के ग्रेट गेम को हराने की बहुत सही इच्छा थी। यद्यपि उनके इस सपने में भी ग्रेट गेम का एक सिरा ग़ायब था, जो उसका मूल सिरा था। वह रुस था। लेकिन मनमोहन सिंह अपने इस अधूरे सपने को भी पूरा नहीं कर सके। वे इस देश के दस साल तक रहने वाले प्रधानमंत्री थे। लेकिन फिर भी वे अपने सपने को पूरा नहीं कर सके।
उनका सपना सही था। वह इस देश के हित का सपना था। आख़िर भारत, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान इन सभी देशों में एक ही विरासत के लोग रहते हैं। काल प्रवाह में अनेक राजनीतिक कारणों से ये देश अलग ही नहीं एक दूसरे के विरोधी तक हो गए। मध्य एशिया से लेकर भारत तक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने हितों की रक्षा के लिए इस पूरे क्षेत्र को एक दूसरे के विरोध में ही खड़ा नहीं कर दिया बल्कि पूरे भूखंड की भोगौलिक सीमाएं भी नई निर्धारित कर दीं।
लेकिन दुर्भाग्य से यहां से साम्राज्यवादियों के चले जाने के बाद भी भारत के सत्ताधीश उसी आधार पर विदेश नीति हांकते रहे, जिसे ग्रेट गेम के खिलाड़ियों ने निर्धारित कर दिया था। पंडित नेहरु ने नए सिरे से विदेश नीति निर्धारित करने की कोशिश की थी और वे विश्व की राजनीति में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहते थे लेकिन वे विश्व शान्ति के कल्पना लोक में विचरते हुए ज़मीनी हक़ीक़त से कट कर चल रहे थे।
वे शान्ति चाहते थे लेकिन उसके लिए शक्ति साधना नहीं करना चाहते थे। यही कारण था कि 1962 में चीन ने उन्हें एक झटके में ज़मीन पर उतार दिया और उसके बाद भारत को भी विदेश नीति के मामले में विश्व शक्तियों का पिछलग्गू बना दिया। ऐसी स्थिति में मनमोहन सिंह से आशा करना कि वे ग्रेट गेम के जाल से भारत की विदेश नीति को मुक्त कर पाते, बेमानी ही होता।
दरअसल आज तक हमारी विदेश नीति का आधार यही रहा कि चीन नाराज़ न हो जाए या फिर अमेरिका नाराज़ न हो जाए। इस से निकलने की कोशिश वाजपेयी ने की थी लेकिन दूसरी बार भाजपा सरकार बन नहीं सकी, इसलिए वह प्रयोग अधूरा रह गया।
यह पहली बार हुआ है कि देश की विदेश नीति किसी के नाराज़ या प्रसन्न होने पर नहीं टिकी हुई है बल्कि यह भारत के हितों को ध्यान में रख कर संचालित हो रही है। यदि केवल पाकिस्तान की बात ही की जाए तो पाकिस्तान ने अमेरिका के हितों की पूर्ति के लिए, अफ़ग़ानिस्तान में जिस तालिबान को पाला पोसा था और जिसके माध्यम से वह जम्मू कश्मीर में कई दशकों से अस्थिरता पैदा करने में लगा हुआ है, अब वह स्वयं भी किसी सीमा तक उसका शिकार हो रहा है। पहले अमेरिका पाकिस्तान का प्रयोग करता रहा ताकि भारत को घेरे में रखा जा सके और अब चीन उसका यही प्रयोग करना चाह रहा है।
इस घेराबन्दी को तोड़ने के लिए भारत पाकिस्तान से सीधे सीधे बात क्यों नहीं कर सकता? कमज़ोर देश बात करने से डरते हैं। भारत को बात करने से क्यों डरना चाहिए? यदि भारत और पाकिस्तान आपस में लड़ते ही रहे, फिर तो गोरी साम्राज्यवादियों की योजना सफल ही मानी जाएगी, जिन्होंने पाकिस्तान बनाया ही इसलिए था ताकि भारत कमज़ोर बना रहे। उस समय भारत अंग्रेज़ों के इस षड्यंत्र को विफल नहीं कर सका क्योंकि वह कमज़ोर और पस्त था। लेकिन क्या आज 2015 में दोनों देश आपस में बातचीत करके एक नई शुरुआत नहीं कर सकते?
यदि नहीं कर सकते, फिर तो कहना होगा कि जो शक्तियां 1947 में कामयाब हो गईं थीं वे आज 2015 में भी उसी मज़बूती से कामयाब हैं। उस समय तो भारत पस्त था लेकिन आज तो वह पस्त नहीं है।
आज तो वह एक ताक़त है। पहली बार हुआ है कि भारत के प्रधानमंत्री जापान, चीन रुस अमेरिका से एक स्तर पर बात करते हैं। इतना ही नहीं पाकिस्तान के आतंकवाद की चर्चा दुबई में जाकर करते हैं। अमेरिका को वहीं जाकर बता रहे हैं कि पाकिस्तान के माध्यम से जो ग्रेट गेम खेला जा रहा है उसकी आंच सात समुद्र पार भी पड़ सकती है। जिस ब्रिटेन ने ग्रेट गेम शुरु किया था, उसी की राजधानी लंदन में जाकर मोदी पाकिस्तान को शह देना बंद करने के लिए कहते हैं।
मोदी ने भारत की विदेश नीति को पिछलग्गू विदेश नीति से निकाल कर नीति निर्धारक विदेश नीति के दौर में पहुंचा दिया है। लेकिन कांग्रेस अभी भी पाकिस्तान के प्रिज्म से बाहर नहीं निकलना चाहती। मोदी देश को उसी मायाजाल से बाहर निकालना चाहते हैं। रुस से काबुल , काबुल से लाहौर तक की मोदी यात्रा उसी दिशा में उठाया साहसिक क़दम है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मोदी पाकिस्तान को यथार्थ बताने में कोताही कर रहे हैं।
मोदी ने तो लाहौर पहुंचने से चन्द घंटे पहले, काबुल में स्पष्ट कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में सीमा पार पड़ोस से जो आतंकवाद का निर्यात किया जा रहा है, उसे बंद किया जाना चाहिए। इससे स्पष्ट और ब्लाग कोई क्या कह सकता है? काबुल से लाहौर की यात्रा के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है वह देश की जनता द्वारा दिए गए आत्मबल से पैदा होता है।
तीस साल बाद लोगों ने किसी सरकार को नीति निर्धारण के लिए स्पष्ट बहुमत दिया है। यही कारण है की मोदी ने लीक से हट कर पाकिस्तान के साथ पहल की है। कांग्रेस के मित्र पूछते हैं कि मोदी का छप्पन ईंच की सीना कहां गया? शायद उन्हें नहीं पता कि पाकिस्तान के साथ पुराने ढर्रे पर बातचीत करने के लिए छप्पन ईंच का सीना नहीं चाहिए बल्कि लीक से हट कर नया रास्ता बनाने के लिए ही छप्पन ईंच के सीने की दरकार होती है।
मोदी ने वही रास्ता बनाना की कोशिश की है। ब्रिटेन द्वारा शुरु की गई ग्रेट गेम में अभी तक भी जो टूर्नामेंट आफ शैडोज़ चल रहा था, मोदी उसी का तोड़ ढूंढ रहे हैं।
: डॉ कुलदीप चन्द अग्निहोत्री