नई दिल्ली। समलैंगिकता को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध माना जाए या नहीं, यह तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पांच जजों की संविधान पीठ को यह मामला भेज दिया है। अब इस मामले में संविधान पीठ अंतिम फैसला देगी।
मामले की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश टी.एस.ठाकुर की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के दिसम्बर 2013 में दिए फैसले के खिलाफ यह फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ रहे समर्थकों ने खुशी जाहिर की है।
याचिका की सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस टी.एस.ठाकुर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की खंडपीठ ने समलैंगिकता को आईपीएस की धारा-377 के तहत अपराध बरकरार रखने या नहीं संबंधित मामले को मंगलवार को पांच जजों की संविधान पीठ को भेज दिया।
समलैंगिक अधिकारों के लिए प्रयत्नशील कार्यकर्ताओं और गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन की क्यूरेटिव पिटीशन पर सुनवाई करते हुए शीर्ष न्यायालय ने यह फैसला दिया है। इससे पूर्व वर्ष 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को धारा-377 के तहत अपराध की श्रेणी से हटाने का फैसला दिया था।
बाद में शीर्ष न्यायालय के इस फैसले को चुनौती देते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। जिसपर एक बड़ा फैसला देते हुए दिसंबर, 2013 में हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया था। साथ ही समलैंगिकता को आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध माना था।
शीर्ष न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठनों ने पुनः कोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा था कि शीर्ष न्यायालय का दिसम्बर 2013 का फैसला त्रुटिपूर्ण है क्योंकि यह पुराने कानून पर आधारित है।
मामले की सुनवाई मार्च 2012 में पूरी हुई थी और निर्णय करीब इक्कीस महीने बाद सुनाया गया था। इस दौरान कानून में कई तरह से संशोधन किए जा चुके थे। लेकिन फैसला लेते समय शीर्ष न्यायालय ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया था।