भोपाल। पुरोणेतिहास ग्रन्थों में प्राप्त सन्दर्भों एवं पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर उज्जयिनी को भारत का विद्या, कला, साहित्य, संस्कृति एवं व्यापार का प्राचीनतम केन्द्र मानने में किंचित् भी कठिनाई नहीं होती।
सान्दीपनि आश्रम में कृष्ण और सुदामा की शिक्षा-दीक्षा भी इस तथ्य का अतर्क्य प्रमाण है कि सौराष्ट्र से लेकर उत्तर भारत के दूरवर्ती प्राय: सभी प्रदेशों के विद्यार्थी इसी नगर में विद्याध्ययन के लिये आते रहते थे। मेघदूत में उज्जयिनी का वर्णन इसे एक ऐसा महानगर सिद्ध करता है, जिसका आकर्षण सभी की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करता रहा है।
साधु-सम्प्रदाय, वैष्णव धर्म, जैन और बौद्ध धर्म के उन्नयन में भी यहाँ के मनीषियों और नागरिकों ने उल्लेखनीय योग दिया है। महाकालेश्वर की अवस्थिति के कारण यद्यपि शैव धर्म से भी इसका सम्बन्ध मान लिया जाता है, किन्तु दृढ़तापूर्वक इस बात को नहीं कहा जा रहा है कि उज्जयिनी शैव शाक्त तथा तान्त्रिक साधना का भी सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है।
पुराणों में अवन्ति जनपद को प्राय: ‘महाकाल वन’ के नाम से अभिहित किया गया है। यह भी लिखा गया है कि इस महाकाल वन में छियासठ करोड़ शिवलिंग स्थापित थे। यद्यपि आज यहाँ छियासठ करोड़ शिवलिंग प्राप्त नहीं होते तथापि निर्विवाद रूप से शैव मन्दिरों की संख्या यहाँ आज भी सबसे अधिक है। स्कन्द पुराण, देवी भागवत, वायु पुराण, अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण और शिव पुराण में ज्योर्तिलिंगों की संख्या पाँच, आठ तथा बारह बतायी गई है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन सभी पुराणों में उज्जयिनी के महाकाल की गणना की गई है।
लिङ्गानां चात्र प\चैव शशिभूषणम्।
कुरुक्षेत्रे तथा स्थाणुर्मायापुर्यां मनोहरम्॥
अवन्त्यां च महाकालं तत्र माहेश्वरे पुरे।
माहेश्वरमिति ख्यातं विद्धि लिंगान्यनुक्रमात्॥
-स्कन्द पुराण
सोमनाथं च कालेशम् केदारे प्रपितामहम्
सिद्धेश्वरं च रुद्रेशं, रामेशं ब्रह्म केशवम्
अष्ट लिङ्गानि गुह्यानि पूजयित्वा तु सर्वभाक्॥
-अग्नि पुराण
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालं डाकिन्यां भीम शंकरम्॥
परलया वैद्यनाथं च ओंकारममरेश्वरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुका वने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यंबकं गौतमी तटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं तु शिवालये॥
एतानि ज्योर्लिंङ्गानि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
जन्मान्तरं कृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
-शिव पुराण
पुराणों में उज्जयिनी का जिस रूप में वर्णन किया गया है उसके अनुसार शिव ही इस जनपद के नागरिकों के आराध्य देवता रहे हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार तो अवन्ति के देव-अध्यक्ष के रूप में शिव स्वयं ही आसीन रहे हैं। उन्होंने त्रिपुरी के राक्षस को युद्ध में परास्त करने के पश्चात् ही इसका नाम अवन्ती से बदलकर उज्जयिनी कर दिया था। मत्स्य पुराण के अनुसार भी महाकाल वन के समीप ही शिव का अन्धकासुर के साथ युद्ध हुआ था। इस युद्ध के समय ही शिव ने काली, महाकाली आदि सप्त मातृकाओं की सृष्टि की थी।
परवर्ती काल में शैव सम्प्रदाय जब विविध साधना पद्धतियों के आधार पर अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया तब भी प्राय: सभी शाखाओं के केन्द्र इस क्षेत्र में अवस्थित रहे थे। कापालिक मत भी एक उग्र शैव तान्त्रिक सम्प्रदाय रहा है। शिव पुराण में इनको ‘महाव्रत धर’ कहा गया है। आद्य शंकराचार्य के समय में उज्जयिनी कापालिकों का केन्द्र रहा है। दिग्विजय के अवसर पर जब शंकराचार्य अवन्ती क्षेत्र में पहुँचे थे तब उन्मत्त भैरव नामक प्रसिद्ध कापालिक से उनकी मुठभेड़ हुई थी। इससे पहले पाशुपताचार्य नामक विद्वान् उज्जयिनी में पाशुपत सम्प्रदाय का जोरों से प्रचार कर चुके थे।
शैव तान्त्रिकों में ‘वीर शैवों” का भी एक प्रमुख सम्प्रदाय रहा है। इसी को लिंगायत सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। इसके अनुयायियों की मान्यता है कि पाँच शिवलिंगों से रेणुकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरामाचार्य, पण्डिताराध्य और विश्वाराध्य नामक महापुरुषों का अविर्भाव हुआ था। इन्होंने क्रमश: मैसूर, उज्जैन, केदारनाथ, श्री शैल और काशी में अपनी पीठों की स्थापना कर इस सम्प्रदाय का प्रचार किया था।
पाशुपत अथवा लकुलीश पाशुपत और कालामुख भी महत्वपूर्ण शैव सम्प्रदाय हैं। महर्षि पतन्जलि ने अपने महाभाष्य में लकुलीश पाशुपतों को दण्डधारी लिखा है। उज्जयिनी से प्राप्त प्राचीन रजत मुद्राओं पर एक दण्डधारी पुरुष की प्रतिमा भी पाई जाती है। यद्यपि इस दण्ड को महाकाल का आयुध माना जाता है किन्तु यह भी धारणा है कि यह लकुलीश पाशुपतों के आराध्य का ही प्रतीक रहा होगा। इसके अतिरिक्त त्रिमूर्ति चिन्हांकित सिक्के भी यहाँ प्राप्त हुए हैं। इनके विषय में पुरातत्वविदों की धारणा है कि सिक्कों पर अंकित मूर्ति महाकालेश्वर अथवा कार्तिकेय की होना चाहिये। यह तो एक सर्वमान्य तथ्य ही है कि उज्जयिनी के अनेक शासक माहेश्वरोपाधि से विभूषित रहे हैं और लगभग बारहवीं शताब्दी तक यह शैव तान्त्रिकों का प्रमुख केन्द्र रहा है। इस दृष्टि से सिक्कों पर शिव प्रतिमा का अंकन असिद्ध नहीं ठहराया जा सकता।
शिव पुराण और स्कन्द पुराण में उज्जयिनी का जिस मनोयोग और विस्तार के साथ वर्णन किया गया है उसी से यह सिद्ध होता है कि शैव साधना का केन्द्र होने के कारण ही इस पर रचयिता की दृष्टि केन्द्रित रही थी। स्कन्द पुराण का अवन्ति खण्ड उज्जयिनी के शिव मन्दिरों के वर्णन से भरा हुआ है। इसके साथ ही मणिकर्णिका कुण्ड, महाकपाल तीर्थ, रुद्र सरोवर, शंकर वापिका, दशाश्व मेषिका तीर्थ, हरसिद्धि तीर्थ, पिशाच तीर्थ आदि अनेक तीर्थों का उल्लेख किया गया है। सभी तीर्थ-स्थलों पर शिव की अर्चना का ही निर्देश है। कुशस्थली उज्जयिनी के केवल शैव तीर्थों का विस्तार एक योजन अर्थात् आठ मील कहा गया है। यह भी उल्लेखित है कि दशास्व मेषिका तीर्थ में एकनाशा नामक देवी को शराब और मांस का भोग लगाने का विधान लिखा गया है। इस प्रकार का अर्चना-विधान केवल शाक्त तंत्रों में ही निर्दिष्ट है।
तान्त्रिक साधना में कुण्डलिनी-जागरण तथा षट्चक्रों के भेदन को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। मूलाधार से आज्ञा चक्र तक का भेदन कर सहस्त्रार में परमशिव के साथ एकाकार ही साधना की परिणति है। नाभि देश में मणिपूर चक्र की स्थिति है। वराह पुराण में अवन्तिका को भी मणिपूर चक्र और महाकालेश्वर को इसका अधिष्ठातृ देवता कहा गया है।
आज्ञा चक्रं स्मृत: काशी या बाला श्रुति मूर्द्धनि
स्वाधिष्ठानं स्मृता का\ची मणिपूरमवन्तिका
नाभिदेशं महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हर:॥
सामान्यतया उपर्युक्त सन्दर्भ का अर्थ उज्जयिनी के भू-मण्डल के मध्य में अवस्थित होना ले लिया गया है किन्तु तान्त्रिक साधना में मणिपूर चक्र का विशिष्ट महत्व है। अन्य चक्रस्थलों में उनके अधिष्ठातृ देवता की ही कल्पना है किन्तु मणिपूर में शिव और शक्ति दोनों का अधिष्ठान है:-
मणिपुरैक वसति: प्रावृषेण्यस्सदाशिव:
अम्बुदाल्पतया भाति स्थिर सौदामिनी शिवा
शाक्तागमों में भी उज्जयिनी के महत्व को स्वीकार करते हुए अनेक रूपों में इसका उल्लेख मिलता है। भगवती तारा की अष्ट मूर्ति आराधना-विधि के साथ ही न्यास के उद्देश्य से जहाँ पीठस्थानों का वर्णन है वहाँ उज्जयिनी को भी लिखा गया है;
भ्रुवोर्वाराणसीपीठंटवर्गाद्य सभाहित:
तवर्गपूर्विकां न्यस्येदवन्तीं नयनद्वये
षोढान्यासास्तु ताराया: प्रोक्तास्तेइष्ट दायका:।।
आगम ग्रन्थों तथा तान्त्रिक साधना पद्धति में शिव-शक्ति का अद्वय रूप ही मान्य है:-
न शिवेन बिना देवी न देव्याच बिना शिव:।
उज्जयिनी में शैव तीर्थों के साथ-साथ देवी मन्दिरों की संख्या न्यून नहीं रही। मेघदूत के प्रसंगों से यह तो स्पष्ट ही है कि महाकाल मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ देवी भगवती और कार्तिकेय के मन्दिर भी थे। इनके अतिरिक्त स्कन्द पुराण के अवन्ती खण्ड, जिसे तत्कालिक उज्जयिनी की ‘गाइड” कहा जाता है, में ‘प्रस्थ मातृका’, शीतला माता, भैरव, भवानी, एकानाशा, हरसिद्धि, वतयक्षिणी, महामाया देवी आदि अनेक देवी मन्दिरों का भी उल्लेख है। इसके अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उज्जयिनी में चारों ओर शिव और शक्ति मन्दिरों के अतिरिक्त कुछ रहा ही न हो।
महाकवि दण्डी ने दशकुमार चरित में महेश्वर के साथ काली के मन्दिर का उल्लेख किया है। नव साहसांक चरित में भी नीलकण्ठ महादेव के साथ दुर्गा मन्दिर का वर्णन है। शक्ति संगम तंत्र में अवन्ती का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यहाँ मंगल चण्डी कालिका का प्रसिद्ध मन्दिर है।
सिद्ध और नाथ सम्प्रदाय को शैव तान्त्रिकों की अन्तिम कड़ी के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। भर्तृहरि का इस क्षेत्र से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। भर्तृहरि गुफा के आधार पर यह कहना भी युक्तिसंगत ही होगा कि उज्जयिनी ही उनकी साधना-स्थली रही होगी। इस प्रकार अवधूत परम्परा का भी इस क्षेत्र से सम्बन्ध मानना पड़ेगा। चौरासी सिद्धों में ‘तन्तिपा” की भी प्रमुख रूप से गणना की जाती है और राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार तन्तिपा उज्जयिनी के ही निवासी थे।
उज्जैन का मङ्गलनाथ का मन्दिर भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। स्वर्गीय पं. सूर्यनारायण व्यास उज्जयिनी के पृथ्वी मण्डल के मध्य में अवस्थित होने की बात कहते हुए इसे मंगल ग्रह् की जन्म-स्थली के रूप में स्वीकार करते हैं। इस प्रकार मङ्गलनाथ मन्दिर का सम्बन्ध भी मङ्गल ग्रह् से मान लिया जाता है। किन्तु मेरी धारणा है कि इसका सम्बन्ध मङ्गल ग्रह् से न होकर नाथ परम्परा से है। शिव नाथ सम्प्रदाय के आराध्य देव हैं और उनको मंगलायतन अथवा मङ्गलनाथ नाम से अभिहित करना सर्वथा संगत ही है। मङ्गलनाथ के मन्दिर में भी शिव प्रतिमा ही स्थापित है। अतएव मंगलनाथ मन्दिर को नाथ सम्प्रदाय का एक पीठ स्थान ही माना जा सकता है।
उपर्युक्त सन्दर्भों के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उज्जयिनी शैव और शाक्त तान्त्रिक साधना का प्रमुख केन्द्र रहा है। यद्यपि यहाँ वैष्णव, बौद्ध, जैन तथा अन्य सम्प्रदायों को भी समान रूप से आदर दिया जाता रहा किन्तु इसे शैव शाक्तों का प्रमुख पीठ मानना ही अधिक तर्कसंगत होगा।