रीवा। गर्मियों में सुबह के नाश्ते के लिए सबसे हैल्दी और मशहूर रहा सत्तू अब गुमनामी के अंधेरे में खोता जा रहा है। पाचन तंत्र को मजबूत कर शरीर में पानी की मात्रा सही करने वाला सत्तू अब सिर्फ डॉक्टरों की सलाह पर ही लोग लेते हैं।
इसकी जगह जंक फूड ने ले ली है। जिसे नई पीढ़ी कई तरह के नुकसानों को दरकिनार कर चाव से खा रही है। अधिकांश युवा तो सत्तू का नाम तक नहीं जानते। दुकानदारों की मानें तो यह अंतर बीते 10 सालों में आया है। इससे पहले तक विंध्य सहित महाकोशल, पठार में प्रमुख व्यंजनों में शामिल सत्तू घर-घर बनाया जाता था। अब यदाकदा घरों में ही सत्तू बनता है।
दुकानदार राजेश गुप्ता ने बताया कि 10 साल पहले तक सत्तू की गर्मी के दिनों में खासी बिक्री होती थी। लेकिन जब से जंक फूड का चलन आया तब से इसकी बिक्री में गिरावट आ गई है। अब तो इसे शुगर पेसेंटों के भोजन के रूप में भी जाना जाने लगा है। यही कारण है कि अब यह 80 रुपए किलो बिकता है।
60 वर्षीय रामबिहारी गाना ने बताया कि पहले जौ को पानी में भिगोकर बहुरी बनाई जाती थी और चने को भठ्ठी में डालकर भूना जाता था। भुने हुए चने व बहुरी को 60- 40 फीसदी के तादाद में मिक्स कर पिसाया जाता था। जिससे सत्तू तैयार होता था।
सत्तू को खाने के लिए पानी व देशी गुड़ का प्रयोग किया जाता था। इससे न केवल हाजमा ठीक रहता था बल्कि गर्मी के दिनों में यह काफी असरकारक भी माना जाता था।
चैत्र मास में पडऩे वाली संक्रांति के दिन सत्तू खाना शुभ माना जाता था। इसे ज्योतिष व स्थानीय भाषा में सत्तू संक्रांति के नाम से भी जाना जाता था। नाश्ते के साथ ही पाचन क्रिया को दुरूस्त होने के कारण विंध्य सहित बुंदेलखण्ड में भी सत्तू ने घर-घर पैठ बना रखी थी।
सत्तू जहां शरीर में पानी की कमी व पाचन तंत्र को मजबूत करता है। गर्मी के दिनों में सत्तू विशेष लाभकारी है। लेकिन दुकानों में भी अब यह मिलावटी मिलता है तो कांसे व पीतल के बर्तनों में सत्तू खाने से विशेष लाभ मिलता था। अब वह जमाना चला गया।
अब न कांसे के बर्तन रह गए न ही सत्तू। अब युवाओं को सत्तू के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं है। हालांकि अभी ग्रामीण अंचलों में थोड़ा बहुत इसका प्रयोग हो रहा है परन्तु वह धीरे-धीरे यहां भी सत्तू बनाने की व्यवस्था आधुनिकता को कारण दम तोड़ती नजर आ रही है।