प्रशान्त झा
अजमेर। भारतीय वायु सेना का इतिहास 1932 में इसकी स्थापना से ही काफी गौरवशाली रहा है, आज यह विश्व की चौथी सबसे शक्तिशाली वायुसेना है। इसके बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान दौर में यह अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।
भारतीय वायु सेना में लडाकू विमानों की अधिकृत स्क्वॉड्रन संख्या 42 है बावजूद इसके वर्तमान में यह लडाकू विमानों की भारी कमी से जूझ रही है। पुराने पड चुके विमानों के लगातार सिलसिलेवार डीकमीशन (सेवा अवधि समाप्त) होने और समय रहते उनकी जगह नए विमान शामिल नहीं हो पाने जैसे कारणों ने वायुसेना को अपने सबसे बुरे दौर में ला खडा किया है।
वर्तमान में भारतीय वायुसेना की स्क्वॉड्रन क्षमता 42 से घटकर मात्र 34 ही रह गई है जो इसके इतिहास में सबसे कम है और पुराने पड चुके पूर्व सोवियत संघ निर्मित मिग 21 व मिग 27 विमानों को भी शीघ्र डीकमीशन किया जाना है जिसके चलते यह भयावह रूप से घट जाएगी।
पिछली सरकारों की अत्यंत धीमी रक्षा खरीद प्रक्रिया ने वायुसेना को इस हालत में ला खडा कर दिया है। नए खरीदे जाने वाले विमानों में भारत में विकसित किए जा रहे हल्के लडाकू विमान तेजस के विकास की गति धीमी होने के कारण यह योजना अपने तय समय से काफी पीछे चल रही है।
फ्रांस से मध्यम श्रेणी के बहुउद्देशिय लडाकू विमान राफेल की खरीद प्रक्रिया जो अधिक कीमतों के चलते पिछली सरकार के समय से ही लम्बित थी अब कहीं समझौते पर हस्ताक्षर होने के अंतिम दौर में आ पाई है जिसके तहत आने वाले वर्षों में भारत को 36 लडाकू विमान हासिल होंगे।
यक्ष प्रश्न यह है कि जिस तेजी से पुराने विमान बाहर हो रहे हैं उसके सामने ये 36 विमान काफी हैं। पडोसी देशों से चल रहे मनमुटाव और बदलती परिस्थितियों में यदि चीन और पाकिस्तान से एकसाथ दो मोर्चों पर युद्ध का सामना करना पडे तो क्या होगा। क्या हमें वायुसेना के भीतर उपजी इस कमी की भारी कीमत नहीं चुकानी पडेगी।
जानकारों का मानना है कि हमें हर हालत में नए विमान हासिल करने की प्रक्रिया को तीव्र करना ही होगा। भारत की सरकारी क्षेत्र की एकमात्र विमान निर्माता कम्पनी हिन्दुस्तान एरोनोटिकल लिमिटेड ने गत वर्ष हमारी वायु सेना को सिर्फ 12 सुखोई 30 एमकेआई विमानों की आपूर्ति की है।
ऐसे में यदि हम आने वाले वर्षो में तेजस के उत्पादन की बात करें तो यह भी प्रत्येक वर्ष 12 से 17 विमान की दर से हमें हासिल हो पाएगा जबकि हमारी आवश्यकता 200 से 250 विमान की है।
मान भी ले कि हिन्दुस्तान एरोनोटिकल लिमिटेड उत्पादन क्षमता में बढोतरी कर इसे 24 विमान प्रति वर्ष तक भी ले जाता है तो भी इस संख्या को हासिल करनें में कम से कम दस वर्ष का समय और लगेगा और तब तक अन्य विमान मिराज 2000 व जगुआर भी सेवा अवधि समाप्त होने से बाहर होने के कगार पर होंगे।
फ्रांस से भारत को प्राप्त होने वाले राफेल विमान 4+ पीढी के है जबकि विकसित देशों की वायू सेनाओं ने अब 5वीं पीढी के लडाकू विमान तैयार कर शामिल करने प्रारम्भ कर दिए हैं भारत भी रूस के साथ 5वीं पीढी का लडाकू (एफ.जी.एफ.ए.)विमान सुखोई टी 50 एमकेआई विकसित कर रहा है जो अभी विकास के दौर में ही है।
तेजी से घटती स्क्वॉड्रन क्षमता के मध्यनजर भारत को लडाकू विमान हासिल करने और इन्हे वायू सेना में शामिल करने की प्रक्रिया में तेजी लानी होगी। आपूर्ति के लिए हम किसी एक निर्माता कम्पनी पर निर्भर नहीं रह सकते वरन हमें अलग—अलग विमान निर्माताओं के श्रेष्ठ उत्पादनों का आकलन करते हुए विभिन्न् देशों एवं कम्पनीयों को आपूर्ति हेतु आॅर्डर देने चाहिए।
इससे हमें अधिक संख्या में प्रतिवर्ष् विमान प्राप्त हो सकेंगे और निर्घारित स्क्वाड्रन संख्या पूरी हो पाएगी। हमें न केवल अपने विमान तेजस का उत्पादन तेजी से करना होगा बल्कि हम अन्य देशों से राफेल के समकक्ष् 4+ पीढी के एफ 16, एफ 18 व ग्रिपिन जैसे लडाकू विमानों के नवीन संसकरणों को भी हासिल करने से समस्या हल हो सकती है।
भारत को अपना स्वदेशी पांचवी पीढी का विमान एएमसीए भी तेजी से विकसित करने पर जोर देना होगा ताकि हमारी भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु विदेशों पर निर्भर न रहना पडे।
यह भी कहा जाता है कि हमारी वायु सेना को तेजी से विमान हासिल हो भी गए तो अलग—अलग प्रकार के विमानों के रख—रखाव जैसी समस्या भी सामने आएगी। इसका तोड वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मेक इन इंडिया पॉलिसी में ही निहित है।
यदि विदेशी विमानन कंपनियां निजी भारतीय कम्पनियों के साथ करार कर अपने विमानों का उत्पादन भारत में ही करती हैं तो न केवल इनकी उत्पादन की कीमत को कम किया जा सकता है बल्कि रख—रखाव की समस्या को भी हल किया जा सकता है।