उज्जैन/निनौरा। मध्य प्रदेश की तीर्थ नगरी उज्जैन जिले के ग्राम निनौरा में सिंहस्थ कुंभ के दौरान हो रहे तीन-दिवसीय अंतरर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ का समापन शनिवार को हो गया। इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने महाकुंभ के समापन सत्र में सिंहस्थ महाकुंभ 2016 में आए सभी अखाडों के संतों, महंतों और संत समुदाय के प्रतिनिधियों की उपस्थिति 51 सूत्रीय सिंहस्थ 2016 सावैभौमिक अमृत संदेश को समाज और विश्व को समर्पित किया।
उन्होंने कहा कि समाज के लिए नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की शुभ शक्तियों को एक दिशा में लगना होगा हम सभी लोग आत्मा के अमरत्व से जुड़े हैं। कुंभ मेला पुरातन परंपराओं में से एक है और विशाल भारत को अपने आप में समेटने का प्रयास कुंभ से ही शुरू हुआ है। मोदी ने कहा कि यहां एक नए प्रयास का जन्म हो रहा है, कई सालों पहले जो हुआ है उसके आधुनिक संस्करण का जन्म हो रहा है।
मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को याद करते हुए कहा कि उन्होंने देश से एक बार का खाना त्याग करने का आह्वान किया था और कईयों ने उनके कहे का पालन भी किया। ज्ञान अमर है और हर युग में उसका महत्व रहेगा।
अपनी बात पूरी करते हुए पीएम ने कहा एक वक्त था जब समुद्रों को पार करना अशुभ माना जाता था, लेकिन अब वह नजरिया बदला है। इसी तरह कई परंपराएं वक्त के साथ बदल सकती हैं। हम दुनिया को कुंभ के आयोजन क्षमता के बारे में अवगत नहीं करवा सकते क्यों न हर साल विचार कुंभ का आयोजन किया जाए और हम बेटियों की पढ़ाई और पर्यावरण पर चर्चा करें।
दुनिया भर में हो रहे संघर्षों पर रोशनी डालते हुए पीएम मोदी ने कहा कि आज नैतिक श्रेष्ठता की सोच ही संघर्ष की वजह बनी हुई है। हमें अपने भीतर झांकना होगा और देखना होगा कि किस तरह हम खुद को विकसित कर सकते हैं।
इस अवसर पर श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना सहित पांच देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री के उज्जैन प्रवास के दौरान सुरक्षा व्यवस्था के पुख्ता इंतजाम किए गए थे। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना ने विचार कुंभ में आमंत्रित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को धन्यवाद दिया।
अनागरिक धम्मपाल की प्रतिमा के अनावरण का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि भारत और श्रींलंका के बीच गहरे सांस्कृतिक संबध है। उन्होंने कहा कि धार्मिक और सांस्कृतिक संबंध और उनके जुडे विषयों पर दोनों देशों के बीच गहरी समझ है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि कुंभ की विचार मंथन की परंपरा को आगे बढाते हुए पिछले दो साल से विश्व की ज्वलंत समस्याओं पर देश विदेश के विदवानों और संतों का विचार मंथन चला। समस्याओं के संभावित समाधान निकाले गए और 51 बिन्दुओं के अमृत संदेश का उदधोष हुआ। उन्होंने कहा कि सिंहस्थ की घोघणा के पालन की शुरूआत मध्यप्रदेश से होगी। राज्य सरकार आनंद मंत्रालय का गठन करने जा रही है। इसके माध्यम से प्रसन्न रहने के आध्यात्मिक तरीकों पर विचार किया जाएगा।
चौहान ने कहा कि सबसे बडी समस्या जलवायु परिवर्तन की है। इससे नदियां सूख रही हैं। इस दिशा में पहल करते हुए राज्य सरकार नर्मदा और क्षिप्रा नदियों को बचाने का काम शुरू करेगी। संतों की उपस्थिति में अमरकंटक से देवउठनी ग्यारस से नदियों के सरंक्षण के जनजागरण का विशाल अभियान शुरू होगा।
जन सहयोग से पेड लगाने की शुरूआत होगी। किसानों को फलदार पेड लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जायेगा। जब तक किसानों के खेतों में पेड तीन साल के नहीं हो जाते तब तक की अवधि का फसल मुआवजा उन्हें राज्य सरकार देगी। क्षिप्रा के किनारे भी पेड लगाने की शुरूआत की जाएगी।
आयोजन समिति के अध्यक्ष एवं राज्य सभा सदस्य अनिल माधव दवे ने समापन सत्र का संचालन किया और तीन दिनों में हुए विचार विमर्श की जानकारी देते हुए बताया कि इस विचार मंथन में प्रमुख देशों का प्रतिनिधित्व रहा।
इस अवसर पर गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा, केन्द्रीय इस्पात मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, केन्द्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गेहलोत, सदगुरू जग्गी वासुदेव, जूना अखाडा महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद, छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह, झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर प्रसाद, लंका के विपक्ष के नेता आर सम्पनाथन, बंग्लादेश के सांसद सदन चन्द्र मजूमदार, संसकृति मंत्री सुरेन्द्र पटवा बडी संख्या में देश विदेश से आए विषय विशेषज्ञ और विचारक उपस्थित थे।
सिंहस्थ 2016 का सार्वभौम अमृत संदेश
यह कि भारत के प्राचीन नगर उज्जैन में वैदिक काल से निरंतर बारह वर्ष के अंतराल से आयोजित सिंहस्थ के पवित्र कुंभ मेले के अवसर पर इस बात को रेखांकित करते हुए कि अत्यंत श्रद्धा और आस्था का यह आध्यात्मिक अवसर परंपरागत रूप से प्रज्ञावान संतों और चिंतकों को समकालीन सामयिक आध्यात्मिक एवं भौतिक विचारणीय विषयों के संबंध में संवाद और विमर्श का मंच उपलब्ध कराता रहा है।
इस बात से आश्वस्त होते हुए कि इस महान परंपरा को निरंतर रखने की आवश्यकता है, मध्यप्रदेश शासन ने सिंहस्थ 2016 के दौरान 12 से 14 मई के बीच निनोरा, उज्जैन में सम्यक जीवन-शैली पर अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ का आयोजन किया है।
मूल्याधारित जीवन, मानव-कल्याण के लिए धर्म, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन, विज्ञान एवं अध्यात्म, महिला सशक्तीकरण, कृषि की ऋषि परंपरा, स्वच्छता एवं पवित्रता, कुटीर एवं ग्रामोद्योग विषयों पर भारत एवं विश्व भर के विभिन्न देशों से आए विद्वानों के विमर्शों से प्रेरित होकर इस बात से सहमति व्यक्त करते हुए कि यह तात्विक रूप से आवश्यक है कि मानव ऐसा सम्यक जीवन बिताए जिससे वह अपनी पूर्ण संभावनाओं को साकार कर सके।
प्रत्येक मानव एवं संस्कृति की विशेषता का सम्मान करते हुए, यह अनुभव किया गया कि सम्यक जीवन के विभिन्न आयामों को समस्त मानवता के लाभ के लिए स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया जाए। अतः, यह विचार महाकुंभ, परिपूर्ण मानव जीवन के लिए प्रासंगिक मार्गदर्शी सिद्धांतों को सिंहस्थ 2016 के सार्वभौम अमृत संदेश के रूप में घोषित करता है कि :-
मनुष्य का अस्तित्व मात्र भौतिक नहीं है। उसके चैतन्य और संवेदन के आयाम अनंत हैं। यह चेतना समस्त चराचर में व्याप्त है। यह सत्य जीवन में मूल्यों का आधारभूत प्रेरक है। संपूर्ण मानव जाति एक परिवार है। अतः सहयोग और अंतर्निर्भरता के विभिन्न रूपों को अधिकतम प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। विकास का लक्ष्य सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित करना है। जीवन में मूल्य के साथ जीवन के मूल्य का उतना ही सम्मान करना जरूरी है।
शिक्षा में मूल्यों के शिक्षण, व्यवहार एवं विकास का नियमित पाठ्यक्रम शामिल किया जाए, ताकि कम उम्र से ही बच्चों में उनका प्रस्फुटन हो सके। इस पाठ्यक्रम को अन्य विषयों की तरह समान महत्व दिया जाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम ऐसे आरंभिक प्लेटफार्म की तरह हो जिसके आस-पास शिक्षा का संपूर्ण पाठ्यक्रम विकसित किया जा सके।
अस्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मकता के स्थान पर सामाजिकता, अंतर्निर्भरता करुणा, मैत्री, दया, विनम्रता, आदर, धैर्य, विश्वास, कृतज्ञता, पारदर्शिता, सहानुभूति और सहयोग जैसे मूल्यों को बढ़ाने के लिए शिक्षा की पद्धतियों में यथोचित परिवर्तन किया जाए।
मूल्यान्वेषण सिर्फ निजी विकास के लिए नहीं बल्कि समाज को एक व्यवस्था देने, संबंधों को संतुलित करने और जीवन प्रतिमानों का निर्माण करने के लिए जरूरी है। शुचिता, पारदर्शिता और जवाबदेही सार्वजनिक जीवन की कसौटी होना चाहिए।
सत्य तक पहुंचने के अनेक मार्ग हैं, किन्तु सत्य एक ही है। विविधता में एकता स्थापित करने के लिए यह समझ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सर्वधर्म समादर की भावना विकसित करने के लिए शिक्षा में उपयुक्त पाठ्यक्रम सम्मिलित किए जाएं।
सृष्टि एक ही चेतना का विस्तार है और मानव उसी का अंश है। अतः समस्त जीवों के प्रति दया, प्रेम व करुणा आधारित व्यवस्थाएँ निर्मित की जानी चाहिए। धर्म मनुष्य की आत्मोन्नति का मार्ग तथा मानव-कल्याण का साधन है। धर्म जहाँ हमें प्रेम, सहयोग, सामन्जस्य के पाठ के माध्यम से एक सूत्र में बाँधता है, वहीं विस्तारवादी उद्देश्यों के लिए किये गये उसके दुरुपयोग से विश्वबंधुता का हनन होता है।
धर्म यह सीख देता है कि जो स्वयं को अच्छा न लगे, वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। जियो और जीने दो का विचार हमारे सामाजिक व्यवहार का मार्गदर्शी सिद्धांत होना चाहिए। धर्म जोड़ने वाली शक्ति है। अतः धर्म के नाम पर की जा रही सभी प्रकार की हिंसा का विरोध विश्व भर के समस्त धर्मों, पंथों, संप्रदायों और विश्वास-पद्धतियों के प्रमुखों द्वारा किया जाना चाहिए।
पृथ्वी पर पर्यावरणीय संकट का समाधान सिर्फ प्रकृति के साथ आत्मीयता से प्राप्त होगा। देशज ज्ञान के विविध क्षेत्रों, जैसे कृषि, वानिकी, पारंपरिक चिकित्सा, जैव विविधता संरक्षण, संसाधन प्रबंधन और प्राकृतिक आपदा में महत्वपूर्ण सूचना स्त्रोत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए अत्यधिक उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण शोषण ने अनेक प्राकृतिक विपदाओं को जन्म दिया है। इसका संज्ञान लेते हुए ऐसी जीवन शैली एवं अर्थ-व्यवस्थाओं को विकसित करें जिनसे प्रकृति का पोषण हो।
विश्व में व्याप्त भीषण जल-संकट से जीवन संकट में है। जल-संवर्धन की तकनीकों और प्रणालियों को प्रोत्साहित करने और पृथ्वी की जल-संभरता को क्षति पहुँचाने वाली प्रक्रियाओं को रोकने के कदम तत्काल उठाए जाएं।
प्राचीन सभ्यता और संस्कृति वाले सामाजिक समूहों ने प्रकृति से नैसर्गिक संबंध स्थापित करने के रीति-रिवाज एवं कलाओं का विकास किया है। ऐसे मानवीय व्यवहार एवं जीवन शैली का वैज्ञानिक आधार समझकर आधुनिक जीवन में उनका अनुसरण आवश्यकतानुसार करना चाहिए।
भावी पीढ़ियों के प्रति अपने दायित्वों के जवाबदेह निर्वहन के लिए यह आवश्यक है कि नीतियां प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के भाव से प्रेरित हों। पृथ्वी पर हरित आवरण में आ रही कमी गंभीर चिंता एवं चिंतन का विषय है। अतः पौध रोपण एवं धरती के भीतर के रूट स्टॉक के पुनर्जीवन के लिए वृहद रूप से काम किया जाना चाहिए।
विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के भौतिक रहस्यों को जानने के लिए विज्ञान और आंतरिक रहस्यों को समझने के लिए अध्यात्म की आवश्यकता है। विज्ञान और अध्यात्म के संबंधों का संस्थागत रूप से अध्ययन आवश्यक है।
मनुष्य के अनुभव भौतिक के साथ-साथ आध्यात्मिक स्तर पर भी होते हैं।भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समृद्धि अनिवार्य है, परन्तु ऐसी समृद्धि आध्यात्मिक अनुभव के बिना संतुलित जीवन का आधार नहीं बन सकती।
विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में जो संबंध है वही संबंध आध्यात्मिक उन्नति का योग एवं ध्यान के साथ है। उत्कृष्ट समाज की रचना मानव जीवन में उस व्यापक दृष्टिकोण को लाने से संभव है, जो योग के माध्यम से प्राप्त होता है।
अध्यात्म की विषय-वस्तु को पाठ्यक्रमों में सरल स्वरूप में सम्मिलित करना चाहिए। विषयों के भौतिक ज्ञान के अतिरिक्त उनमें निहित प्राकृतिक नियमों एवं नैसर्गिकता की जानकारी विद्यार्थियों के मानसिक परिपक्वता का साधन बनेगी।
प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जीवन यापन करने की वर्तमान जीवन शैली से शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों में तीव्र गति से वृद्धि हुई है।इन्हें दूर करने के लिए योग एवं आयुर्वेद की प्रणालियों एवं प्रभावों के विषय को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान से जोड़ने संबंधी शोध को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इससे आनंदपूर्ण जीवन के मूलभूत सिद्धांत आसानी से समझ में आ सकेंगे।
स्वच्छता की किसी भी रणनीति में विभिन्न विश्वास प्रणालियों में मौजूद आंतरिक पवित्रता और बाह्य शुद्धता के प्रासंगिक सिद्धांतों का लाभ लिया जाना चाहिए। स्वच्छता को प्रशासित गतिविधि की जगह सामाजिक मूल्य के रूप में पुनर्स्थापित किया जाना चाहिए।
स्वच्छता की रणनीति को मात्र व्यक्ति की आर्थिक स्थिति से जोड़कर विकसित नहीं किया जाना चाहिए। ‘वेस्ट‘को संसाधन की दृष्टि से देखने से भी स्वच्छता बढ़ाई जा सकती है। फसल-उर्वरीकरण में वेस्ट की भूमिका टिकाऊ कृषि की पारंपरिक प्रथाओं में शामिल रही है।
नदियों का संकट सिर्फ प्रदूषण तक सीमित नहीं बल्कि अस्तित्व से जुड़ा है। नदियों का लुप्त होना इस ग्रह की पारिस्थितिकी की स्थिरता के लिए चुनौती है। नदियों के पुनर्जीवन के प्रयासों को सघन और उनके अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों को साझा किया जाए।
अनियोजित शहरीकरण ने नदियों को ड्रेनेज के रूप में इस्तेमाल किया है। नागरिकों में सरिता-संवेदनशीलता को बढ़ाने के अलावा शहरी नियोजन में उनके संरक्षण के प्रभावी प्रावधान किए जाने चाहिए।
नारी के द्वारा किए जा रहे गृह कार्य का मूल्य घर के बाहर किए जाने वाले व्यवसायिक कार्य के तुल्य है। उसके गृह कार्य को सकल घरेलू उत्पाद में शामिल करने की प्रविधियाँ विकसित की जाएं।
स्त्री को विज्ञापनों में वस्तु की तरह प्रस्तुत करना कानूनन निषिद्ध किया जाए। प्रत्येक स्तर पर नारी-समकक्षता-सूचकांक विकसित कर उसके आधार पर समीक्षा के मानक तय किये जाएं। समान कार्य के लिए समान वेतन का सिद्धांत स्त्री रोजगार के सिलसिले में अपनाया जाए। इसके लिए नियोक्ता की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए उनसे विमर्श का एक अभियान शुरू किया जाए।
सभी परामर्शदात्री, नियामक,निगरानी तथा अन्य निकायों में स्त्रियों को समान रूप से प्रतिनिधित्व दिया जाये। समानता निष्पक्षता से प्राप्त नहीं की जा सकती, यह सकारात्मक हस्तक्षेप के बिना संभव नहीं है।
नारी की मानवीय प्रतिष्ठा और गरिमा सार्वभौम रूप से स्वीकार्य होनी चाहिए तथा यह शासकीय नीतियों तथा योजनाओं में परिलक्षित होनी चाहिए। विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी को नारी के विरुद्ध इस्तेमाल करने के सभी संभावित तरीकों पर प्रभावी रोक होना चाहिए।
महिलाओं की समस्याओं का समाधान करते समय उनके संपूर्ण जीवन-चक्र को दृष्टि में रखना आवश्यक है। संतान के सृजन और पालन के दायित्व को ध्यान में रखकर उनके पोषण, आहार, प्रजनन और स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
महिलाओं के प्रतिनिधित्व और आरक्षण संबंधी प्रावधानों का लाभ लोकतंत्र के सभी स्तरों पर संविधिक रूप से मिलना चाहिए। घरेलू महिलाओं के दैनंदिन जीवन क्रम को सुविधायुक्त बनाने के लिए सुसंगत अधोसंरचना में निवेश आवश्यक है ताकि वह अन्य उत्पादक कार्यों में अधिक भागीदारी कर सके।
20वीं शताब्दी से विकसित की जा रही कृषि प्रौद्योगिकियों से प्राथमिक क्षेत्र में अत्यधिक ग्रीन हाऊस गैस का उत्सर्जन होना चिन्ताजनक है। इस समस्या का समाधान आवश्यक है।
भू-जल-स्तर का गिरना, मिट्टी का क्षरण और उसकी सहज उर्वरा शक्ति का नाश, रासायनिक प्रदूषण होना कृषि में अमृत-दृष्टि के अभाव का प्रतीक है। कृषि के प्रति ऐसी दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है, जो उसकी पुनर्रुत्पादकता को पोषित कर सके।
किसानों की बीज-स्वायत्तता उनका मौलिक और अनुलंघनीय अधिकार है। इस अधिकार की सुरक्षा जैव-विविधता की भी रक्षा है। देशज गौ-वंश के संरक्षण को उसके पर्यावरण पर होने वाले सकारात्मक प्रभाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
संवहनीय कृषि के लिये आधुनिक नीतियों के पुनरीक्षण की आवश्यकता है। कृषि की सुस्थिरता के लिए व्यापक वृक्षायुर्वेद, अग्निहोत्र कृषि, वैदिक खेती, सहज कृषि, प्राकृतिक खेती, जैविक खेती जैसे विकल्पों की संभावनाओं पर प्राथमिकता से शोध किया जाना आवश्यक है।
सभी हितधारकों को संयुक्त रूप से कृषि की बाजार निर्भरता और ऋणोन्मुख प्रकृति के विकल्प ढूंढने की पहल करना होगी।प्राकृतिक हरित खादों का अधिक प्रयोग कृषि को सुस्थिर बनाता है। पंचगव्य, जीवामृत, मटका खाद जैसी अतिरिक्त सहज तकनीकों से बेहतर परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। अजैविक आदानों की तुलना में जैविक आदानों को राजकोषीय सहायता, ऋण एवं बाजार-समर्थन में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
ऐसी पद्धतियों और कृषि आदान को हतोत्साहित करना चाहिए जो मिट्टी के स्वास्थ्य, पशुओं और वनस्पति के स्वास्थ्य,जल संतुलन और पर्या-प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। शून्य बजट खेती की अवधारणा को लोकप्रिय करने की जरूरत है ताकि न्यूनतम लागत से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके।
पूंजी का अधिकतम लोगों में अधिकतम प्रसार ही आर्थिक प्रजातंत्र है। कुटीर उद्योगों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण अंश की तरह देखा जाना चाहिए।
ऐसी औद्योगिकता को प्रोत्साहित किया जाए, जिसमें कुटीर उद्योगों के वैविध्य का सम्मान हो और वे किसी असमान प्रतिस्पर्धा में खड़े न हों। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संगठनों से उनके संरक्षण तथा संवर्द्धन की सचेत कोशिशों का आग्रह किया जाना चाहिए।
कुटीर उद्योग मास प्रोडक्शन के स्थान पर प्रोडक्शन बाय मासेस के सिद्धांत को क्रियान्वित करने का प्रबल साधन है। इसके माध्यम से समावेशित विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जाना संभव है।
कुटीर उद्योगों के छोटे उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए ई-तकनीक पर आधारित मार्केटिंग नेटवर्क विकसित किये जाएं ताकि उनका उत्पाद विश्व भर के उपभोक्ताओं को उपलब्ध हो सकें। शिल्पी दिहाड़ी मजदूर के रूप में परिवर्तित होते जा रहे हैं। वह मात्र उद्यमी नहीं, बल्कि सृजनधर्मी कलाकार है। देशज संस्कृति के संवर्धन में उनके योगदान को समाज में आदर मिलना चाहिए।
इस विचार महाकुंभ का विनम्र आग्रह है कि पृथ्वी पर सम्यक और संतुलित जीवन के लिए इस संदेश में निहित मूल्यों और सिद्धातों को हर समुदाय अपने परिवेश और प्रासंगिकता के अनुरूप क्रियान्वित करने का उपक्रम करें।