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पीके की सक्रियता से हाशिए पर संगठन  - Sabguru News
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पीके की सक्रियता से हाशिए पर संगठन 

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पीके की सक्रियता से हाशिए पर संगठन 
Poll Strategist Prashant Kishor to lead congress campaign
Poll Strategist Prashant Kishor to lead congress campaign
Poll Strategist Prashant Kishor to lead congress campaign

चुनावी तैयारियों में विशेषज्ञ प्रबन्धकों के सहयोग का चलन बढ़ा है। विश्व के अनेक प्रजातांत्रिक देशों में ऐसे डिग्रीधारी प्रबन्धकों की मांग है। भारत में भी इनकी चर्चा है। बताया गया कि लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने पी.के. अर्थात प्रशान्त किशोर का सहयोग लिया था।

यह संयोग था कि नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री और नीतीश कुमार मुख्य मंत्री बने। लेकिन यह सोचना मूर्खता होगी कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को पी.के. की वजह से सफलता मिली। उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं थी। नरेन्द्र और नीतीश दोनों मजबूत आधार के बाद दावेदार बने थे। नरेन्द्र मोदी ने चौदह वर्षो तक गुजरात की रात दिन सेवा की थी। एक दिन का भी अवकाश नहीं लिया, विश्राम नहीं किया। ईमानदारी से वह शासन संचालन करते रहे, उनके ध्रुव विरोधी भी उनपर भ्रष्टाचार या भाई भतीजावाद का आरोप लगाने की स्थिति में नहीं थे।

राजनीति को काजल की कोठरी माना जाता है। मोदी बेदाग बने रहे। बाद में वह राष्ट्रीय राजनीति में आए, एक ईमानदार, मेहनती और कुशल प्रशासक की उनकी जो छवि बनी थी, उसका ही राष्ट्रीय स्तर पर उनको फायदा हुआ। लोगों को लगा कि वह देश को भी वैसा ही शासन दे सकते है। संभव है प्रशान्त किशोर ने चुनाव प्रचार के मद्देनजर कुछ सुझाव दिए हों, लेकिन यदि मोदी ने गुजरात में राजनीतिक व प्रशासनिक कुशलता के झण्डे न गाड़े होते, तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर इतना व्यापक समर्थन न मिलता।

यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गुजरात में अपने कार्यो के बल पर मोदी लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीते थे, जबकि उनका कोई जातीय समीकरण नहीं था। उस समय किसी पी.के. को यह देश जानता भी नहीं था। जाहिर है कि मोदी जानते थे कि अच्छे कार्यो से ही जनता का विश्वास जीता जा सकता है इसी नीति पर उन्होंने अमल किया और सफल रहे।

इसी प्रकार नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर जिस प्रकार सरकार चलाई इसने ही उनकी छवि सुशासन बाबू के रूप में स्थापित की थी। उनके मुख्यमंत्री बनने को पी.के. का कमाल नहीं माना जा सकता। सुशासन की छवि के बावजूद वह अपनी पार्टी को नम्बर वन नहीं बना सके, जबकि पी.के. का सहयोग न लेने वाले लालू यादव को अधिक सफलता मिली। जातीय समीकरण बनाने के बावजूद नीतीश पीछे रह गए।

स्पष्ट है कि विशेष चुनावी प्रबंधकों का योगदान बेहद सीमित होता है, लेकिन यह उनकी व्यावसायिक कुशलता है कि वह मोदी और नीतीश के नाम को अपने साथ जोड़कर प्रचारित करते हैं। प्रत्येक चुनाव में इसी प्रचार के बल पर वह अपने उपभोक्ता बदलने का प्रयास करते हैं। इस बार कांग्रेस उनके झांसे में है। कांग्रेस और पी.के. दोनों के लिए नया अनुभव है। ऐसा नहीं कि कांग्रेस के दिग्गज पहले प्रबन्धकों की सलाह नहीं लेते थे।

बताया जाता है कि राहुल का चुनावी सभा में समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र फाडऩा, संप्रग सरकार के विधेयक की प्रति फाडऩा, भाषण देते समय बाहें चढ़ाकर आदि सब प्रबन्धकों की सलाह के अनुरूप था। लेकिन इस बार नया यह है कि कांग्रेस ने खासतौर पर उत्तर प्रदेश में अपने को पी.के. टीम के हवाले कर दिया है। पहले विशेषज्ञों की टीम पार्टी दिग्गजों को खास टिप्स देती थी। अब वह टीम पूरे संगठन को संचालित कर रही है। प्रदेश अध्यक्ष और प्रभारी से लेकर निचले स्तर के कार्यकत्र्ता तक को पी.के. व उनकी टीम निर्देश दे रही है।

प्रश्न पत्र की भांति कागज सौंप रही है, उनके जवाब मांग रही है। संगठन हाशिए पर है, पी.के. टीम का सम्पूर्ण वर्चस्व है। जाहिर है कि उत्तर प्रदेश व पंजाब की कांग्रेस के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव है। वहीं पी.के. के लिए भी यह बिल्कुल नया अनुभव है। अब तक उन्होंने संभव है कि नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को चुनाव प्रचार के मद्देनजर कुछ सुझाव दिए हों, लेकिन अब उन्हें उत्तर प्रदेश में लड़ाई से बाहर खड़ी बेहद कमजोर पार्टी को पैरो पर खड़ा करना है। यह डील नई होने के साथ ही जोखिम भरी है। कई दशकों से शिथिल पड़े संगठन में जान फूंकना आसान नहीं है।

आज प्रचार की कई आधुनिक तकनीके हैं। ऐसे में किसी नेता का चुनावी प्रबन्धक या विशेषज्ञ से सलाह लेना अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन गौर कीजिए उत्तर प्रदेश में पी.के. की भूमिका सलाह देने तक सीमित नहीं हैं। वह प्रदेश कांग्रेस के संगठन को संचालित करते दिखाई दे रहे हंै। प्रदेश अध्यक्ष और प्रभारी की मौजूदगी में वह अन्य प्रमुख नेताओं को सलाह नहीं निर्देश देते हैं।

जब से उत्तर प्रदेश में पी.के. ने कांग्रेस की अघोषित कमान संभाली है, तब से संगठन हाशिए पर है। ऐसा लगता है कि प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री और प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री की कोई भूमिका ही नहीं बची है। जो कार्य इनको करना चाहिए था, वह पी.के. और उनकी टीम कर रही है। कुछ दिन पहले लखनऊ में पी.के. ने कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय में बैठक की। इसमें निर्मत्र खत्री और मधुसूदन मिस्त्री ऐसे लग रहे थे कि उन्होंने पी.के. के सामने आत्मसमर्पण कर दिया हो।

पी.के. बता रहे थे कि किस प्रकार दलित, मुस्लिम आदि वोट बैंक में सेंध लगायी जा सकती है। वह जिला संगठनों को समर्पित कार्यकर्ताओं की सूची देने का फरमान जारी करते हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या भी खुद तय करते हैं। यह संख्या ज्यादा नहीं थी, लेकिन इसी में जिला संगठनों की हालत खराब हो गयी।
चैनलों पर दहाडऩे वालों का पैनल तो प्रदेश संगठन के पास है, लेकिन समर्पित कार्यकर्ता कहां से लाएं, यह समस्या है।

पी.के. के अनुसार ऐसे कार्यकर्ताओं को बूथ मैनेजमेन्ट पर लगाया जाएगा। पी.के. की वेतन भोगी टीम जिलों में जा रही है। प्रत्येक जगह से लगभग एक जैसी खबरे हैं। जिला स्तर के नेता प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की कार्यशैली पर आरोप लगाते हैं। प्रदेश में पार्टी की दुर्गति के लिए उन्हें जिम्मेदार मानते हैं। कार्यकर्ता एक-दूसरे से भिड़ जाते हैं। पी.के. के नुमाइन्दे भी औपचारिकता का निर्वाह करते हैं।

ऐसा लगता है कि पी.के. ने बड़ी चालाकी से ठीकरा अपने ऊपर न फूटने का इंतजाम कर लिया है। कांग्रेस की प्रदेश में दशा से वह अनजान नहीं। वह यह भी जानते हैं कि बिहार में छब्बीस सीटें कांग्रेस के संगठन और नेताओं की वजह से नहीं मिली थीं। यह लालू व नीतीश के जातीय मजहबी समीकरण का परिणाम था, जिसने कांग्रेस का जीर्णोद्धार कर दिया। पी.के. चाहे जितनी तकनीक लगा दें, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले बड़ी सफलता हासिल करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन पी.के. अपना बचाव कर लेंगे वह कह सकते है कि बूथ के हिसाब से समर्पित कार्यकर्ता मांगे, नहीं मिले। अल्पसंख्यक व अनुसूचित जाति-जनजाति प्रकोष्ठों ने पैठ बनाने की सलाह पर अमल नहीं किया।

लगभग एक ही समय पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी में और पी.के. लखनऊ में थे। क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि राहुल अपने को फिलहाल अमेठी तक सीमित रखे हैं, जबकि पी.के. पूरे प्रदेश संगठन को दुरुस्त कर रहे हैं। देखना होगा कि क्या डील के तहत कार्य करने वाले विशेषज्ञ और उनकी तकनीक किसी निर्बल पार्टी को सबल बना सकती है।

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री