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रचनाशील मन ही बेहतर विवेचनशील हो सकता है : डॉ जीवन सिंह - Sabguru News
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रचनाशील मन ही बेहतर विवेचनशील हो सकता है : डॉ जीवन सिंह

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रचनाशील मन ही बेहतर विवेचनशील हो सकता है : डॉ जीवन सिंह

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जोधपुर। सृजना तथा अंतरप्रांतीय कुमार साहित्य परिषद के संयुक्त तत्त्वावधान में रविवार को गांधी शान्ति प्रतिष्ठान केंद्र रेजीडेंसी रोड स्थित सभागार में हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार डॉ रमाकान्त शर्मा की हाल ही में प्रकाशित दो पुस्तकों “समकालीन लोकधर्मी कविताएं” तथा
“फेसबुक पर काव्य संवाद” का लोकार्पण किया गया।

लोकार्पण समारोह के मुख्य अतिथि “मीरा पुरस्कार” से सम्मानित प्रख्यात आलोचक डॉ जीवन सिंह ‘मानव’ ने कहा कि जो रचनाकर्म नहीं कर सकता, वह बड़ा आलोचक नहीं हो सकता।आलोचक के पास रचनाकार सी संवेदनशीलता होनी चाहिए।

यह एक ऐतिहासिक सच है कि रचनाशील मन ही बेहतर विवेचनशील प्रमाणित हुआ है। यह भी तथ्य है कि बेहतर कविता कभी आभिजात्य वर्ग से नहीं अपितु उसकी उदभावना हमेशा सर्वहारा के विरोध से, विवाद से और संवाद से रची गई है। तुलसी, मीरा, सूर, मुक्तिबोध जैसे सारे लोगों ने सर्वहारा वर्ग का जीवन जीते हुए ही श्रेष्ठ काव्य रचना की। आज भी सच्ची लोकधर्मी कविता ऐसा ही सर्वहारा वर्ग का रचनाकार लिख रहा है। ये रचनाकार ही बाजारवाद की चुनौती और जीवन की विसंगतियों से जूंझ कर मौलिक और सार्थक रच रहे हैं जिन्हें पहचानते हुए डॉ रमाकांत शर्मा ने उन्हें चयनित किया है।

लोकार्पण के पश्चात रचनाकार डॉ शर्मा ने अपनी पुस्तकों पर बोलते हुए कहा कि सारी विधाएं युग की चुनौतियों के अनुरूप निरंतर बदल रही हैं। अब सभी विधाओं के लिए नए प्रतिमान बनाने होंगे। हिन्दी कविता ही नहीं अपितु अत्यधिक बंधनों में छटपटा कर उर्दू ग़ज़ल के तेवर में भी क्रांतिकारी परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। मेरी ये दोनों पुस्तकें इन परिवर्तनों को समझ कर अभिव्यक्त करने का एक रचनात्मक प्रयास है। इस अवसर पर उन्होंने लोकधर्मी दर्शन को स्पष्ट करती हुई अपनी दो कविताएं भी सुनाईं।

अपने पत्र वाचन में डॉ पद्मजा शर्मा ने कहा कि डॉ रमाकांत ने पूरे भारत के लोकधर्मी कवियों की रचनाओं का चयन करने में रचनात्मक सूझबूझ का उपयोग किया है। ये वे “इम्प्योर” कविताएं हैं जो धूल सनी, बिना रंग रोगन वाली, तथाकथित विकास की दी हुई पीड़ा को झेलती हैं जो सत्ता से, व्यवस्था से, शोषकों और धर्म के ठेकेदारों से असहज सवाल पूछती हैं। इनमें जनपद की स्त्री की व्यथा है, पहाडी औरत का कठोर जीवन है, अंधेरे समय से जूझता आदमी है और इनकी भाषा किसी किताब से नहीं सीधे खेत से, संघर्ष से, फोग-रोहिडे से निकली है। इसलिए बनावट से कोसों दूर है।

कार्यक्रम की अध्यक्ष डॉ पुष्पा गुप्ता ने बताया कि फेसबुक पर डॉ रमाकांत शर्मा कविता से जुड़े प्रासंगिक सवाल उठाते हैं। आज संस्कृत भाषा का आधुनिक रचनाकार भी ऐसे ही सवालों से रूबरू हो रहा है। हर भाषा में लोक ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। कविता लोक में रहने के लिए और जीने के लिए अपरिहार्य है। कार्यक्रम का संचालन डॉ हरीदास व्यास ने किया तथा सृजना की अध्यक्ष सुषमा चौहान ने धन्यवाद ज्ञापन किया।