बैंक शब्द आते ही मन में चित्रण बनता है मुद्रा लेनदेन का, मुद्रा संचय का, मुद्रा ऋण, ब्याज, बाजार, लाभ-हानि और कागजी लिखापढ़ी आदि का। लेकिन मुद्रा व बाजार से बिलकुल अलग एक बैंक है जो कि चावल का बैंक है और किसानों के लिये काम करता है और इस बैंक का लक्ष्य मुद्रा लाभ कमाना नहीं है।
इस बैंक के जनक हैं डा देबाल देब, भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान भारतीय वैज्ञानिकी संस्थान (Indian Institute of Science, IISc), बंगलुरू से डाक्टरेट करनें के बाद और ऊंची पढ़ाई के लिये अमेरिका गये और वापस आकर पश्चिम बंगाल के पिछड़े जिले ‘बांकुरा’ में ‘व्रिही – चावल बैंक’ की स्थापना की।
पश्चिम बंगाल के देबाल देब नें सन् 1997 में ‘देशज-चावल’ के विभिन्न किस्म के ‘चावल-बैंक’ के लिये काम शुरू किया। सन् 2008 तक 700 किस्म के देशज चावलों का चावल-बैंक बना चुके थे। ये 700 किस्म के देशज-चावल पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, झारखंड, असम, मेघालय, त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि राज्यों के दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों से संकलित किये गये।
इन चावलों की किस्मों में कुछ अत्यंत दुर्लभ व विशिष्ट चावल भी हैं जैसे ‘जुगल’ और ‘सतीन’। ‘जुगल’ के धान के एक छिलके के अंदर चावल के दो दानें निकलते हैं ‘सतीन’ के धान के एक छिलके के अंदर चावल के तीन दानें निकलते हैं यह चावल-बैंक कुछ यूं काम करता है – बैंक किसानों से चावल की किस्मों का विनिमय करता है।
कोई भी किसान जो कि ‘चावल-बैंक’ से कोई देशज-चावल बीज लेना चाहता है तो उसको अपनें क्षेत्र का देशज चावल ‘चावल-बैंक’ को देना होता ताकि उसका चावल किसी अन्य किसान को बीज के रूप में दिया जा सके। यदि किसी किसान के पास चावल विनिमय करनें के लिये देशज-चावल नहीं है, तो उसे चावल-बैंक को कुछ धनराशि देनी होती है जो कि उस किसान के नाम पर ‘सुरक्षा राशि’ के तौर पर जमा की जाती है और किसान को रसीद दी जाती है।
किसान बैंक से लिये गये बीज से चावल उगानें के बाद एक किलो बीज के बदले दो किलो बीज वापस करके और रसीद दिखा कर जमा की गई ‘सुरक्षा राशि’ वापस प्राप्त कर सकता है। भिन्न भौगोलिक व जलवायु परिस्थितियों में उगनें वाले चावल ‘चावल-बैंक’ में रखे जाते हैं।
देश के किसी भी कोनें से किसान इस बैंक में जा सकता है और अपनीं खेती की जमीन की मिट्टी व जलवायु के आधार पर उगनें वाले चावल का बीज बैंक से प्राप्त कर सकता है, इसके लिये उसे सिर्फ अपना नाम, पता, मिट्टी की जानकारी व जलवायु की जानकारी एक पर्ची में लिखकर देनी होती है और ऊपर बताये गये विनिमय के दो विकल्पों में से एक को चुनना होता है।
व्रिही बैंक को शुरू करनें के लिये डा0 देबाल देब जी नें सरकारी ग्रांट नहीं ली, देबाल जी नें यह काम अमेरिका में रहकर पढ़ाई व काम करते हुये की गई बचत में से बहुत ही छोटे स्तर से शुरू किया था। विचार दूरदर्शी था, जज्बा बड़ा था, सामाजिक प्रतिबद्धता व ईमानदारी कूट कूट कर भरी थी, सो बाजार व मुद्रा लाभ को ध्येय माननें वाली दुनिया की बड़ी बड़ी बीज कंपनियों का विरोध झेलते हुये व बिना किसी बड़े आर्थिक सहयोग के अपनें व अपनें मित्रों की व्यक्तिगत बचतों से धीरे धीरे काम करते हुये इतना प्रतिष्ठित चावल-बैंक खड़ा कर दिया।
व्रिही में संकलित किये बीजों को देबाल देब जी के निर्देशन में उगाया जाता है और शोध किये जाते हैं ताकि बिना रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशकों व कृतिम रूप से जीन्स को परिवर्तित किये बिना गुणवत्ता व उत्पादन और बेहतर किया जा सके। इस बैंक का दुनिया में बहुत नाम, साख व प्रतिष्ठा है और देबाल देब जी को दुनिया की नामचीन विश्वविद्यालयों व संस्थानो में लेक्चर देनें, शोधों में दिशा निर्देशन व परामर्श देनें के लिये विशिष्ट रूप से आमंत्रित किया जाता है।
ख्याति प्राप्त कृषि वैज्ञानिक डा देबाल देब जी नें अपनीं पत्नीं को विवाह के पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि आप विवाह मुझसे तभी कीजिये जब आप यह मान लें कि विवाह के बाद मैं अपनीं योग्यता व क्षमता का प्रयोग ‘व्यक्तिगत संपत्तियों’, ‘जमीन जायजाद’ आदि में बिलकुल नहीं करूंगा और संतान नहीं करेंगें। देबाल देब जी की पत्नीं जी नें एक क्षण नहीं लगाया और इनकी शर्तें स्वीकार करनें में। आज भी दोनों लोग सामाजिक उत्थान के लिये प्रतिबद्धता के साथ लगे हुये हैं और बिना बाजार व मुद्रा लाभ में लिप्त हुये देश विदेश के हजारों किसान परिवारों की आर्थिक, मानसिक व सामाजिक समृद्धि के लिये अपनीं पूरी ऊर्जा व संसाधनों के साथ लगे हुये हैं।