देश के उच्च कोटि के शिक्षा शास्त्री, देश की एकता और अखण्डता के संरक्षक, विभाजन के दंश से त्रस्त देशवासियों के तारणहार, राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत, जनसंघ नामक‘ राजनीतिक पार्टी के संस्थापक, देश के सांस्कृतिक, यथार्थवादी और भविष्यदृष्टा चिंतक, राजनीतिज्ञ, जम्मू-काश्मीर को भारत से पूरी तरह एकाकार करने के प्रयास में अपने प्राणों की आहुति देने वाले डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नि:सन्देह बिना किसी झिझक के भारतमाता का महान और समर्पित सपूत कहा जा सकता है।
1940 में ही गांधीजी ने उनसे कहा था-’सृष्टि और उसके प्राणियों की रक्षा के लिए समुद्र मंथन से निकला विष पीकर जो कार्य भगवान शिव ने किया था, उसी प्रकार भारतीय राजनीति का विष पीने के लिए भी किसी की आवश्यकता थी, तुम वहीं काम करोगे।‘
भारतमाता के ऐसे महान सपूत का जन्म 7 जुलाई 1901 को भवानीपुर, उत्तर कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम सर आसुतोष मुखर्जी और माता का नाम योगमाया देवी था। बंगाल का यह मुखर्जी परिवार डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पितामह श्री गंगा प्रसाद मुखर्जी के समय से ही कोलकाता के सर्वाधिक प्रतिष्ठित परिवारों में गिना जाता था।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता सर आसुतोष मुखर्जी ने तो अपनीे विद्वता, प्रतिष्ठा, निष्ठा और देश भक्ति के माध्यम से अपने कुल की प्रतिष्ठा को असीम ऊंचाईयो तक पहुंचाया था। गणित, संस्कृति, विधि और भौतिक विज्ञान सहित अनेक विषयों में विशिष्ट योग्यता रखने वाले सर आसुतोष मुखर्जी ने अपने छात्र जीवन में ही विश्वव्यापी प्रसिद्घि प्राप्त कर ली थी।
उन्होंने ज्यामितीय गणित के कुछ अत्यन्त जटिल प्रश्नों का समाधान इस प्रकार खोजा कि उनकी इस खोज को मुखर्जी थ्योरम के नाम से जाना गया और उन्हें लंदन की मैथमेटिकल सोसाइटी का सदस्य मनोनीत किया गया। 1904 में इन्हे कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद के साथ ही कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर भी नियुक्त किया गया।
उस दौर में ब्रिटिश रहन-सहन, भाषा और शिक्षा पद्घति से प्रभावित लोग अपने बच्चों के उज्वल भविष्य के लिए ब्रिटिश शिक्षा पद्घति पर आधारित पब्लिक स्कूलों को ही शिक्षा प्राप्ति का अच्छा माध्यम मानते थे। लेकिन सर आसुतोष मुखर्जी का नजरिया कुछ और ही था, वह इस सच्चाई से भली-भाति परिचित थे, कि ब्रिटिश पद्घति वाले पब्लिक स्कूल भारतीय बच्चों में उनकी सभ्यता- संस्कृति के प्रति सम्मान और राष्ट्रीयता की भावना कदापि नहीं उत्पन्न होने देंगे।
इसीलिए उन्होंने अपने मित्र विश्वेसर मित्र को एक ऐसा निजी शिक्षा संस्थान खोलने के लिए प्रेरित किया, जहां छात्रों को समयानुकूल शिक्षा प्रदान करने के साथ-साथ उनमें अपनी सभ्यता, संस्कृति और देश के प्रति आदर-सम्मान और प्रेम की भावना भी उत्पन्न की जा सके। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस संस्था में मैट्रिक तक की पढाई की, इसके बाद उन्होंने प्रेसीडेंन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया।
अपने विशिष्ट ज्ञान और प्रतिभा के चलते वर्ष 1920 में ही उन्हे प्रेसीडेंन्सी कॉलेज की पत्रिका का जनरल सेकेट्ररी नियुक्त कर दिया गया। उनके लिए यह महत्वपूर्ण अवसर सिद्घ हुआ, क्योकि एक ओर उन्हे अपने विचारों को अभिव्यक्ति का अवसर मिला, वहीं वह ऐसे लोगों के संपर्क में भी आए जिनका तात्कालीन बंगाल में शिक्षा और राष्ट्रीयता की भावना जगाने में महत्वपूर्ण योगदान रहा था।
1923 में डॉ. श्यामा प्रसाद ने एम०ए० की परीक्षा विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पर रहते हुए उत्तीर्ण की। इसके अगले ही वर्ष 1924 में उन्होंने बेचलर ऑॅफ लॉ की परीक्षा भी विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पर रहतेे हुए उत्तीर्ण की। कोलकाता हाईकोर्ट में वकालत के साथ-साथ कोलकाता विश्वविद्यालय के कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करने के अतिरिक्त वह पत्रकारिता से भी जुड चुके थे। उन्होंने बंगबाणी नाम बंगला भाषा की पत्रिका भी निकाली।
1934 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को कलकत्ता विश्वविद्यालय के उस सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया गया, जिस पर कभी उनके पिता सर आसुतोष मुखर्जी आसीन रहे थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहते हुए डॉ. मुखर्जी ने जो सबसे पहला और प्रमुख कार्य किया-वह शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी भाषा की प्रधानता को समाप्त करते हुए बंगला व अन्य भाषाओं को प्रमुख स्थान देना।
उन्होंने बंगला भाषा की पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने के साथ बंगला भाषा की समृद्घि के लिए भी महत्वूपर्ण कदम उठाए। विश्वविद्यालय में अपने चार वर्ष के कार्यकाल उन्होने पूरी तरह ध्यान रखा कि ऐसे शिक्षित युवा वर्ग तैयार हो जो राष्ट्र के निर्माण और अपनी सभ्यता, संस्कृति को बचाए रखने में अपनी भूमिका सहज रूप से समझे और पूर्णत: समर्पित होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करें।
1935 के पश्चात् डॉ. मुखर्जी ने यह तय किया कि देश को दमनकारी और अलगाववादी शक्तियों से बचाने के लिए उन्हें देश की सक्रिय राजनीति में जाना ही होगा। चूकि डॉ. मुखर्जी राष्ट्रभक्त होने के साथ-साथ हिन्दुत्व की भावना के प्रबल समर्थक थे। अत: उन्हें हिन्दू महासभा का ही वह मंच दिखाई दिया, जहां से वह अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते थे।
1940 में ही तात्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर के अस्वस्थ हो जाने के कारण बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिन्दू महासभा का कार्यवाहक अध्यक्ष नियुक्ति किया गया। उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया और राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में उन्हें सम्मानजनक पहचान मिली, यहां तक कि महात्मा गांधी भी डॉ. मुखर्जी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।
डॉ. मुखर्जी को उन्होंने कहा मालवीय जी के पश्चात् हिन्दुओं का नेतृत्व करने वाले की आवश्यकता थी, सो यह उचित ही है। 1940 में जो चुनाव हुए उसमें बंगाल में मुस्लिम लीग को विजय मिली। अपनी योजना के तहत मुस्लिम लीग ने बंगाल में भीषण दंगे कराए, विशेषकर ढाका में तो ये साम्प्रदायिक दंगे असंख्य हिन्दुओं के काल बनकर आए थे।
चूकि इन दंगों का केन्द्र ढाका था, इसीलिए हिन्दुओं के व्यापक जनसंहार की खबरों ने डॉ. मुखर्जी को विचलित कर दिया और बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार तथा ब्रिटिश सरकार के लाख रोकने के बावजूद अपने प्राणों की परवाह किए बगैर इन दंगों में प्रमुख भूमिका निभाने वाले ढाका के नवाब के महल में वह अकेले ही जा पहुंचे। वहां से लौटकर उन्होंने पूरे देश को लीग की घातक योजना से अवगत कराया।
जिसके फलस्वरूप सरकार को विवश होकर इन दंगो को रूकवाना पडा और लीग की योजना धरी-की-धरी रह गई। पर बड़ी बात यह कि डॉ. मुखर्जी एक यथार्थवादी राजनेता थे, उन्होंने कृषक प्रजा पार्टी को जो मुस्लिम लीग की सहयोगी थी, उसे अपनी सूझबूझ से अलग कर लिया और फजहुलहक के नेतृत्व में नई सरकार बनवाया। डॉ. मुखर्जी स्वयं इस सरकार में वित्त मंत्री बने।
12 अगस्त 1942 को डॉ. मुखर्जी ने भारत के गर्वनर जनरल लार्ड लिनलिथिंगों को पत्र लिखकर मांग किया कि ब्रिटिश सरकार भारत को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप मेंं मान्यता देने की घोषणा करे। भारत की राष्ट्रीय सरकार को यह अधिकार हो कि वह अपनी आंतरिक और बाहरी शत्रुओं से सुरक्षा करने के लिए भारतीय सेना का गठन कर सके, साथ ही भारत की गुलामी का प्रतीक इण्डिया आफिस बंद कर दिया जाए।
उन्होंने उसमें यह भी लिखा कि यदि उनके सुझावों पर अमल नहीं किया गया तो मुझे अपने मंत्री पद से त्यागपत्र देकर पूर्ण स्वतंत्रता के साथ अपनी मांगों के प्रति जनजागृति उत्पन्न करनी होगी। इसके साथ ही उन्होंने खुलकर राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करना आरंभ कर दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि 1942 को मिदनापुर में आए भयानक तूफान से पीडि़त जनता को न तो ब्रिटिश सरकार द्वारा कोई सहायता दी गई और न डॉ. मुखर्जी और उनके मंत्रिमण्डल के सहयोगियों को ऐसा करने दिया गया। डॉ. मुखर्जी ने जब यह देखा कि सरकार में मंत्री होते हुए भी वे पीडि़त आम जनता की सहायता नहीं कर पा रहे है तो 16 नवम्बर 1942 को उन्होंने बंगाल के गर्वनर को अपना त्यागपत्र प्रेषित कर दिया।
साथ ही यह भी लिखा-’यदि अपने देश को स्वतंत्र देखने की कामना रखना तथा विदेशी शासन को हटाने का प्रयत्न करना अपराध है तो प्रत्येक स्वाभिमानी भारतीय अपराधी है।‘ इसी बीच वर्ष 1943 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, लेकिन ब्रिटिश सरकार और बंगाल की मुस्लिम लीग की सरकार ने कोई सहायता नहीं पहुंचाई। ऐसी स्थिति में डॉ. मुखर्जी के नेतृत्व में बंगाल के अकाल पीडि़तों को सहायता पहुंचाने के लिए जो कार्य किए गए, वह अपने आपमें एक अमिट उदाहरण बन गया।
डॉ. मुखर्जी के आह्वान पर जिस प्रकार देशवासियों ने जाति-धर्म का भेद भुलाकर इन राहत कार्यो में योगदान दिया, वह राष्ट्र और मानवता की सेवा का उत्कृष्ट उदाहरण था।यद्यपि इस अकाल में लाखों लोग निर्धनता और भुखमरी का शिकार बन अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए, तथापि डॉ. मुखर्जी के प्रयासों से इससे और भी बडी संख्या में लोगों को मरने से बचा लिया।
इसी दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत को धर्म के आधार पर विभाजित करने वाले क्रिप्स प्रस्ताव को पुन: अमल में लाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी। पहले से ही उपयुक्त समय की ताक में बैठी मुस्लिम लीग ने भी इस प्रस्ताव के आधार पर पृथक मुस्लिम राष्ट्र बनाने की अपनी मांग तेज कर दी। कांग्रेस पार्टी का रवैया भी इस मामले पर समर्थन देने वाला जैसा ही था।
इधर मुस्लिम लीग पूरा बंगाल और पंजाब पाकिस्तान में मिलाना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने हिन्दू बहुल पश्चिम बंगाल के लोगों को बंगाल से खदेडऩे के लिए वहां साम्प्रदायिक दंगे भडक़ा दिए। पर डॉ. मुखर्जी लाख प्रयत्न करके देश का विभाजन तो नहीं रोक पाए, लेकिन पंजाब और बंगाल में हिन्दुओं और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए मुस्लिम लीग से सीधे मुकाबले के लिए कमर कस ली।
ऐसी स्थिति में अगस्त 1946 में जैसे ही मुस्लिम लीग ने कोलकाता में भीषण लूटपाट और मारकाट मचाते हुए दंगे भडकाने की शुरूआत की, तो डॉ. मुखर्जी द्वारा बनाए गए हिन्दुस्तान नेशनल गार्ड नामक संगठन के स्वयंसेवकों और जागरूक हिन्दुओं ने डॉ. मुखर्जी के नेतृत्व में लीगी आतताइयों का जमकर मुकाबला किया और बंगाल को हिन्दू मुक्त करने की मुस्लिम लीग की योजना को विफल कर दिया।
इसके कुछ समय पश्चात् ही नोआखली और उसके आसपास के क्षेत्रो में पुन: साम्प्रदायिक हिंसा का नंगा नाच किया गया। बड़ी संख्या में हिन्दुओं का कत्ले आम करने के साथ ही कन्याओं और स्त्रियों की इज्जत से खिलवाड किया गया तो डॉ. मुखर्जी बगैर अपने प्राणों की परवाह किए वहां गए और यथासंभव दंगा पीडितों की सहायता करने के साथ उन्हें सकुशल कोलकाता भी लेकर आए। मात्र यही नहीं, उन्होंने बंगाल में मुस्लिम लीग की इन अमानवीय करतूतो को समस्त देशवासियों के समक्ष उजागर भी किया।
डॉ. मुखर्जी ने विभाजन को अपरिहार्य देखते हुए निर्णय लिया कि बंगाल के हिन्दू बहुल पश्चिमी भाग को मुस्लिम बहुल पूर्वीं भाग से अलग कर दिया जाए, ऐसी ही सोच उनकी पंजाब के बारे में थी, क्योंकि उन्हे अच्छी तरह पता था कि यदि दोनो प्रान्त पूरी तरह पाकिस्तान में गए तो दोनो ही जगह हिन्दुओं का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो जाएगा।
इस तरह से डॉ. मुखर्जी के प्रयासों से यह मुद्दा जन आंदोलन बन गया और ब्रिटिश सरकार को बंगाल और पंजाब का विभाजन करना पड़ा। इस तरह से यह अटल सत्य है कि यदि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्रभक्त, दृढनिश्चयी, निर्भीक एवं मानवता के संरक्षक नेता द्वारा तत्कालिन राष्ट्र-विरोधी ताकतों से डटकर पूरी ताकत से संघर्ष न किया होता तो आज न तो पश्चिम बंगाल और पंजाब का ही एक बड़ा भू-भाग भारत के नक्शे में होता। नि:सन्देह देश की आने वाली पीढियां भी इसके लिए उनकी ऋणी रहेगी।
देश-विभाजन की विभीषिका के पश्चात् 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत में जब प्रथम सरकार का गठन हुआ तो कांग्रेस पार्टी द्वारा उन्हें देश के प्रथम मंत्रिमण्डल में शामिल होने के लिए निमंत्रण दिया गया। सच्चाई यह है कि कांग्रेस में सरदार पटेल जैसे नेता उन्हें बहुत आदर और सम्मान देते थे और इस पहल में उनका महती योगदान था।
राष्ट्र के नव निर्माण की दिशा में राष्ट्र सेवा के अवसर को न चूकने देने के लिए डॉ. मुखर्जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और उन्हेें उद्योग मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने अत्यन्त सफलतापूर्वक अपने दायित्व का निर्वहन किया। पर 1947 में जब पाकिस्तान ने कबाइलियों के माध्यम से जम्मू-काश्मीर पर हमला कर करीब उसके एक तिहाई हिस्से पर कब्जा कर लिया, तभी से देश के राजनीतिक हालात बड़ी तेजी से बिगडऩे लगें। पण्डित नेहरू जिस प्रकार पाकिस्तान के प्रति दुर्बलता का परिचय दे रहे थे, उसने डॉ. मुखर्जी को किसी भावी खतरे के प्रति आशंकित ही नहीं, चिंतित भी कर दिया था।
पाकिस्तान ने काश्मीर के हिन्दुओं के साथ पूर्वी बंगाल के डे$ढ करोड हिन्दुओं को भी त्रस्त करना शुरू कर दिया था। डॉ. मुखर्जी ने ऐसी स्थिति में तुरंत नेहरू सरकार पर दबाव डालते हुए स्मरण कराया कि बंगाल विभाजन के समय वे पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं के प्रति प्रत्येक प्रकार से रक्षा का आश्वासन व वचन दे चुके थे, अत: अब वचन निभाने का समय आ गया है।
लेकिन पण्डित नेहरू पाकिस्तान सरकार से इधर-उधर के समझौते करते रहे, जिनका कोई मतलब नहीं निकलना था और स्थिति यहा तक बिगड़ी कि 1949 तक लगभग बीस लाख हिन्दू शरणार्थी जो पूरी तरह बर्बादी के कगार पर पहुंच चुके थे, पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में भारत आ चुके थे। 1950 तक पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में तो मानवता का गला ही घोंट दिया गया।
पचास हजार से अधिक हिन्दुओं की नृशंस हत्या कर दी गई, हजारों अबला कन्याओं और स्त्रियों के साथ पाशविक कृत्य किए गए हिन्दुओं का सब कुछ लूटकर पशुओं की भांति उन्हे खदेड़ा जाने लगा। ऐसी स्थिति में देश की प्रत्याशा के अनुरूप डॉ. मुखर्जी ने नेहरू सरकार से तत्काल सैन्य कार्यवाही करने का कहा, लेकिन जब सरकार ने कोई ठोस और सार्थक कदम नहीं उठाया तब सरकार में बने रहना, उन्होंने औचित्यहीन समझा और अप्रैल 1950 में पण्डित नेहरू को मंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया।
इसके पश्चात् डॉ‘. मुखर्जी ने देश की तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितियो का आकलन करने के पश्चात् यह निश्चय किया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही वह संगठन है जो एक नए राजनीतिक दल का आधार बन सकता है। इसी भित्ति पर जनवरी 1951 में दिल्ली में भारतीय जनसंघ के नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन हुआ, जिसके डॉ. मुखर्जी प्रथम अध्यक्ष बनें। ‘उत्तर में डॉ. मुखर्जी ने कहा कि मै दूसरों केा कुचलने की भाव रखने वाली इस मनोवृत्ति की कुचलकर रख दूंगा।
1952 के चुनाव परिणामों में जनसंघ को 3 लोकसभा और 33 विधानसभा सीटों पर ही विजय मिल सकी। यद्यपि यह अपेक्षित नहीं था फिर भी जनसंघ के प्रत्याशियों को जिस प्रकार जनमत प्राप्त हुआ था, उसने उसे देश के चार प्रमुख राजनीतिक दलों में शामिल कर दिया था। यह डॉ. मुखर्जी की योग्यता ही थी कि विपक्ष के 25 सदस्यों को संगठित कर उस गुट के नेता बन गए और कांग्रेेसियों तक ने उन्हें विरोधी दल के नेता के रूप में स्वीकार कर लिया।
स्थिति यह थी कि डॉ. मुखर्जी की प्रभावी भूमिका के चलते कई जनविरोधी कदमों को वापस लेना पड़ा। उन्हे निकटता से जानने वाले उन्हे संसद का शेर कहते थे, और यह भी कहते थे कि देश का शासन भले ही पण्डित नेहरू के हाथों में है, किन्तु संसद में डॉ. मुखर्जी का ही शासन चलता है।
पूर्वी बंगाल में नेहरू सरकार के निष्क्रिय और उदासीन रवैए के चलते डॉ. मुखर्जी अपना सत्याग्रह आरंभ करने वाले थे कि तभी काश्मीर की समस्या अत्यन्त भयावह हो उठी। यद्यपि काश्मीर को पाकिस्तानी आक्रमण से बचाने के लिए काश्मीर के महाराज हरिसिंह और वहां के मुस्लिम नेता शेख अब्दुला ने काश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव पर अपनी मोहर लगा दी थी, पर पण्डित नेहरू के इस कथन ने कि काश्मीर के भारत के विलय का निर्णय वहां की आम जनता लेगी-इस समस्या की नीवं रख दी, साथ ही इस समस्या को यू०एन०ओ० में ले जाकर बड़ी भूल की।
इन सबका परिणाम यह हुआ कि शेख अब्दुला को वहां अपनी मनमानी करने का अवसर सहज ही उपलब्ध हो गया और वह अपनी सोची समझी राजनीति के तहत काश्मीर को भारत से अलग एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने की अपनी महत्वाकांक्षी योजना पर काम करने लगा। उसने स्पष्ट तौर पर कहा -’न तो भारत की और न कोई और संसद हम पर अधिकार रखती है। हम पूर्णरूप से सर्व सत्ता-सम्पन्न है और कोई देश हमारे विकास में बाधा नहीं डाल सकता।‘
जुलाई समझौते के नाम से प्रसिद्घ इस समझौते में पं० नेहरू ने शेख अब्दुला के सामने घुटना टेकते हुए वह सब कुछ दे डाला, जो वह चाहता था। इस समझौते के आधार पर अब शेख अब्दुला को पृथक नागरिकता, पृथक संविधान, पृथक ध्वज और राज्य के निर्वाचित प्रधान का अधिकार मिल गया था।
डॉ. मुखर्जी ने इस समझौते का कड़ा विरोध करते हुए इसे भारत की अखण्डता ओैर संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा बताया। उन्होंने कहा कि यदि देश का संविधान सभी रियासतों के लिए समान है तब काश्मीर के लिए क्यों नहीं? २९ अप्रैल १९५३ को संसद मेंं अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने एक बार फिर पण्डित नेहरू से अनुरोध किया कि स्थिति की गंभीरता को समझकर निर्दोष जम्मूवासियों को आंतक से मुक्त कराए, परन्तु पण्डित नेहरू के टस-से-मस न होने पर उन्होंने स्वत: जम्मू जाने का निश्चय किया।
यद्यपि जम्मू-काश्मीर के हालात जिस ढंग से बिगडे हुए थे, उस स्थिति में डॉ. मुखर्जी का वहां जाना खतरे से खाली नहीं था। पर भयवश अपने कर्तव्य या निर्णय से विमुख होना तो डॉ. मुखर्जी ने सीखा ही नहीं था। पर चूंकि उस समय जम्मू-काश्मीर मेें परमट व्यवस्था लागू थी और उसके तहत जम्मू काश्मीर के अलावा देश के और किसी भी नागरिक को वहां जाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी।
पर डॉ. मुखर्जी का कहना था कि जब जम्मू काश्मीर भी भारत के अन्य प्रांतों की भांति भारत का अभिन्न अंग है, तो जम्मू काश्मीर जाने के लिए भी उन्हे किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं थी। इसी के तहत 9 मई 1953 को सुबह 6 बजे दिल्ली का रेल्वे स्टेशन भारत माता और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जय-जयकार के नारों से गुंजायमान हो उठा। अम्बाला से पठानकोट के मध्य यात्रा में उनका भव्य अभिनन्दन किया गया।
जब डॉ. मुखर्जी अपने चार साथियों के साथ तवी नदी के पुल पर जम्मू -काश्मीर की सीमा के भीतर पहुंचे तो पुलिस द्वारा उनके दो साथियोंं समेत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और निशातबाग के समीप एक छोटे से बंगले में ले जाकर नजरबंद कर दिया गया। यह अत्यन्त ही संकीर्ण जगह थी, जिसमें चिकित्सा, डाक या टेलीफोन जैसी कोई सुविधा नहीं थी। जेल में उन्हें किसी से मिलने की अनुमति नहीं थी न तो उनकी आदत के अनुसार उन्हेें सुबह-शाम घूमने की सुविधा दी गई।
वस्तुत: उनको जैसे एक छोटे पिंजरे में बंद कर देना जैसा हुआ, जो यातना-शिविर जैसा था। यहां पर उनके स्वास्थ्य में गिरावट आती गई और 23 जून 1953 सुबह 3 बजकर 40 मिनट पर उनकी मृत्यु हो गई। हकीकत यह थी कि डॉ. मुखर्जी की मृत्यु स्वाभाविक नहीं, बल्कि योजनापूर्वक उनकी हत्या की गई थी। उनका पार्थिव शरीर वायुयान से कोलकाता लाया गया जहां लाखों लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से भारत माता के इस महान-सपूत को विदाई दी। किन्तु डॉ. मुखर्जी को बलिदान व्यर्थ नहीं गया।
जम्मू-काश्मीर की स्थितियों में बहुत परिवर्तन हुआ। उन्हीं के चलते अब वहां प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री है। भारत का संविधान बहुत कुछ वहां लागू हो रहा है। यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के बलिदान का ही प्रतिफल है कि आज केन्द्र में एक पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार शासन कर रही है।पर डॉ. मुखर्जी को सच्ची श्रद्घांजलि तभी कहलाएगी, जब वहां काश्मीरी पण्डितों की ससम्मान वापिसी होगी और धारा 370 की समाप्ति होगी। पूरी उम्मीद है कि आने वाले समय में ऐसा हो सकेगा।
वीरेन्द्र सिंह परिहार