यह तो सत्य है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा है और समय-समय पर इसकी अनुभूति होने पर लोग भरोसा करते हैं चाहे व्यक्ति घोर नास्तिक ही क्यों न हो। लेकिन अगर दुनियादारी की बात करें और जीवन से संबंधित बाते हों तो फिर कहा जाता है कि भगवान के बाद धरती के भगवान अर्थात डॉक्टरों पर ही विश्वास किया जा सकता है।
धरती के भगवान पर भरोसा जम जाए तो कई समस्याओं को हल हो जाता है और सम्भवतः इसलिए भारत में दूसरे पेशों से ज्यादा डॉक्टरों का मान-सम्मान किया जाता है। हालांकि हाल के दिनों में डॉक्टरों की कार्यशैली और कार्यकलापों पर सवालिया निशान भी लगे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने ही एमसीआई तथा मेडिकल कॉलेजों के कार्यकलापों पर लगाम लगाने की कोशिश की और नीट की परीक्षा को लेकर तो विवाद छिड़ गया। ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई कि धरती के भगवानों को भी सवालों के कटघरे में खड़ा किया गया। खैर, यह तो कानूनी और संवैधानिक पहलू है लेकिन व्यवहारिक जीवन में कुछ अलग तथ्य उभर कर सामने आते हैं, तब सबसे बड़ा सवाल आम लोगों के जेहन में यही उठता है कि डॉक्टर बनने के बाद सेवा भावना के लिए शपथ ली जाती है, क्या उसपर डॉक्टर अमल करते हैं।
इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए डॉक्टरों को ही आत्ममंथन करना चाहिए। अक्सर सुना जाता है कि डॉक्टर गांवों में जाकर अपनी सेवा देना नहीं चाहते, ऐसा क्यों। यह बात सही है कि गांवों में सरकार ने इतनी सुविधाएं नहीं दी हैं कि वहां जाकर उस माहौल में बेहतर सेवा की जा सके। लेकिन आखिर गांवों में रहने वाले लोग भी इंसान ही हैं और बीमार होने पर उन्हें धरती के भगवान की ही याद आती है। भला उन गरीबों का क्या दोष कि उन्हें समय पर इलाज नहीं मिल पाता।
सरकारी अस्पताल असरकारी नहीं होते, ऐसी आम धारणा है और भले ही यह बात पूरी तर सच न हो पर डॉक्टर भी मानेंगे कि सरकारी सुविधाएं मिलने के बाद वे थोड़े अनमने तो हो ही जाते हैं। तब उन्हें अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस ज्यादा प्यारी लगने लगती है।
याद आ रही है एक घटना, बात गोवा की है। भ्रमण के दौरान एक पत्रकार मित्र का कन्धा डिस्प्लेस हो गया और कार चालक ने सरकारी अस्पताल चलने का सुझाव दिया। हर सारे मित्रों का माथा ठनका कि वह क्या कह रहा है। उस दिन रविवार भी था और कारचालक के सुझाव पर अमल किया गया। सच मानिए, अस्पताल में पहुंचने के बाद इतनी तेजी से इलाज की प्रक्रिया शुरु हुई कि हर कोई दंग रह गया।
थोड़ी ही देर में विशेषज्ञ डॉक्टरों की टीम अस्पताल पहुंच गई, एक्सरे से लेकर बाकी सारी जांच की गई और चार घंटे बाद पत्रकार मित्र को यह कहते हुए अस्पताल से छुट्टी मिल गई कि लगभग बारह घंटे वे हाथ को आराम दें। कोई माने या न माने हम प्रत्यक्षदर्शी पत्रकारों ने देखा कि दूसरे दिन तो वह पत्रकार मित्र समुद्र की लहरों के साथ इस तरह खेल रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो।
सिर्फ कल्पना कीजिए की रविवार हो और ऐसी घटना घट जाए तो मरीज की क्या स्थिति होगी, वैसे बता दें कि गोवा के अस्पताल में भी किसी ने पत्रकार होने की बात नहीं कही थी। अब इस मिसाल के बाद क्या यह नहीं लगता कि धरती के भगवान चाहें तो अपने मरीज भक्तों पर इस तरह कृपा कर सकते हैं कि देखते ही देखते उनका दुख-दर्द दूर हो जाए। झारखंड की बात क्यों, आस-पास के राज्यों के बारे में भी सोच कर देखिए, जवाब खुद-ब-खुद मिल जायेगा। गोवा जैसी सेवा दूसरे राज्यों के सरकारी अस्पताल में क्यों नहीं मिल सकती।
एक अलग किस्म की अवधारणा लोगों के मन में घर करती जा रही है कि डॉक्टर जानबूझ कर मरीजों को उलझाते हैं और कमीशन के चक्कर में मनचाहे पैथोलैब का चक्कर लगवाते हैं। पता नहीं इस अवधारणा में कितनी सच्चाई है लेकिन भुक्तभोगी तो यही कहते हैं। अगर ऐसा होता है तो धरती के भगवान को उलाहना देने का हक तो भक्तों का बनता ही है।
हाल ही में एम्स के ह्रदय रोग विशेषज्ञ रहे डॉक्टर विमल छाजेड़ ने अपने व्याख्यान में कहा कि सचमुच आजकल के डॉक्टर मरीज को डराने और धमकाने का काम करने लगे हैं। अगर मरीज के पास धन न हो तो उसे कहीं से भी जुगाड़ करने या फिर जान देने की बात कही जाती है। डॉक्टर छाजेड़ की बातों में दम तो है और कई किस्से सुनने को भी मिलते हैं।
धरती के भगवान इस तरह से मरीजों की परीक्षा लेंगे तो समझिए कि उनपर क्या बीतेगी। एक बात और गौर करने लायक है कि इन दिनों डाक्टर अपनी जांच शुल्क रकम को बढ़ा रहे हैं, शायद डॉक्टरों में बेहतर साबित करने की होड़ लगी है और इसका पैमाना इस फीस को ही मान लिया गया है। यह विषय सोचनीय है और इसपर दूसरों को नहीं डॉक्टरों के संगठन को विचार करना चाहिए।
समय-समय पर डॉक्टरों के साथ मरीजों के परिजन बदसलूकी करते हैं, इसका तो कोई भी समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन किसी एक की गलती पर सबको निशाने पर लेना भी ठीक नहीं है। और कुछ हो न हो, यदि डॉक्टर अपने पेशे और ली गयी शपथ पर इमानदारी से अमल करें तो सचमुच धरती के भगवान का दर्जा महत्वपूर्ण मान लिया जाएगा। कहा गया है- शपथ लेना तो सरल है, पर निभाना कठिन है। लेकिन कुछ कठिन होता है क्या।