सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि उसकी मंशा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की स्वायत्तता में दखल देने की नहीं है, बल्कि उसकी सोच सिर्फ यह है कि बोर्ड की गतिविधियां ऐसी हों जिससे देश में खेल का विकास हो सके। अदालत का यह भी कहना है कि वह नेताओं के बीसीसीआई के कामकाज में हिस्सा लेने के खिलाफ नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का बीसीसीआई के कामकाज में दखल न देने का यह रवैया इस खेल निकाय की स्वायत्तता एवं खेल के विकास की दृष्टि से तो ठीक है लेकिन कुछ मापदंड तो निर्धारित करने ही होंगे तथा उनका पालन भी सुनिश्चित करना होगा ताकि भारतीय क्रिकेट की साख कायम रखी जा सके।
यहां यह भी समझना होगा कि आखिर क्रिकेट के खेल का देश में इतना अधिक महत्व होने के बावजूद इस क्षेत्र में जो भ्रष्टाचार व भर्रेशाही बढ़ी है उस पर रोक तो लगानी ही होगी साथ ही स्थिति न सुधरने पर आखिर अदालत को ही तो दखल देना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि वह बीसीसीआई के कामकाज में राजनेताओं की भागीदारी की भी खिलाफत नहीं करता।
अब यहां पर सोचनीय बात यह है कि अगर अदालत को बीसीसीआई के कामकाज में राजनेताओं के हिस्सा लेने पर ऐतराज न हो तथा राजनेता बीसीसीआई के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाएं तो इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि इस महत्वपूर्ण खेल निकाय को अपना रसूख बढ़ाने व पैसे की कमाई का ही आधार मान लिया जाए, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों से होता आ रहा है।
बीसीसीआई के अध्यक्ष पद की ही बात करें तो इस पद पर राजनेताओं की ताजपोशी भी हो जाती है तथा उनके इस पद को हथियाने की हसरत के पीछे उनके राजनीतिक रसूख की भी बड़ी भूमिका होती है।
देश में यह आम धारणा है कि सरकार द्वारा अन्य खेलों की अपेक्षा क्रिकेट के विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है तथा इसके लिये पर्याप्त साधनों-संसाधनों की व्यवस्था करने में भी कोई कोताही नहीं बरती जाती। लेकिन इसके बावजूद देश में क्रिकेट के विकास की अपेक्षा इस क्षेत्र में पैसे का खेल अधिक होने लगा है।
बीसीसीआई की स्वायत्तता का मतलब यह तो नहीं हो सकता कि इस खेल निकाय की व्यवस्था पूरी तरह अनियंत्रित हो जाए तथा देश में क्रिकेट के विकास की मूल सोच के विपरीत इस बोर्ड के पदाधिकारी, अधिकारी या खिलाड़ी सिर्फ स्वहितों पर ध्यान देने लगे।
यहां सवाल सिर्फ अदालती दखलंदाजी का नहीं बल्कि सामान्य समझ का भी है कि आखिर क्रिकेट में राजनीतिक दखलंदाजी या बीसीसीआई के कामकाज में राजनेताओं की भागीदारी की एक लक्ष्मण रेखा क्यों नहीं होनी चाहिये? राजनेताओं का काम वैसे भी जन प्रतिनिधि के रूप में जनता की सेवा करने का है।
ऐसे में इस अवधारणा के विपरीत वह अपनी मौलिक जिम्मेदारियों को भूलकर क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के कामकाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चत करके या इस खेल क्षेत्र मेंं अन्य कोई भूमिका निभाकर अपने फायदे के अवसर तलाशने लगें तो फिर इसे दुर्भाग्यपूर्ण क्यों नहीं कहा जाएगा?
वैसे भी क्रिकेट खेलना खिलाडिय़ों का काम है तथा क्रिकेट क्षेत्र के संपूर्ण नियंत्रण की जिम्मेदारी अपनी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) द्वारा निभाई जाती है तो फिर बोर्ड का कामकाज पूरी तरह इस खेल क्षेत्र के लोगों द्वारा ही क्यों न संचालित किया जाये तथा राजनेताओं को इससे दूर क्यों न रखा जाए।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा उल्लेखित टिप्पणी बीसीसीसीआई और उसके सदस्य संघों द्वारा लोढ़ा समिति की कुछ सिफारिशों को लागू करने के खिलाफ की गई अपील पर सुनवाई करते हुए की गई है।
बीसीसीआई ने अदालत में कहा था कि उसे किस तरह अपना कामकाज करना चाहिए, इसको लेकर कोर्ट उसे कोई उसे निर्देश नहीं दे सकता।
बीसीसीआई का यह भी कहना था कि अगर अदालत बोर्ड के अस्तित्व, संविधान, सदस्यता और सदस्यों की योग्यता में दखल देती है तो यही बात उसे देश के 64 राष्ट्रीय खेल संघों पर भी लागू करनी चाहिए।
बीसीसीआई का यह भी कहना है कि अगर कोई नौकरशाह या राजनेता नियमों के मुताबिक चुन कर आता है, तो इसमें कोई बंधन नहीं हो सकता।
बीसीसीआई द्वारा अपने बचाव में अदालत में यह जो बातें कही गई हैं वह उसके नजरिये से महत्वपूर्ण हो सकती हैं लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि क्या देश हित में उसकी कोई प्रतिबद्धता या नैतिक जिम्मेदारी नहीं है?
बोर्ड में अगर पदाधिकारियों का चुनाव नियम पूर्वक होने का दावा किया जा रहा है तो चुनाव के बाद पदाधिकारियों का कामकाज भी तो नियमों के अनुसार होना चाहिए, जिसका कभी-कभी सर्वाधिक अभाव नजर आता है।
सबसे ज्यादा शिकायतें पैसे के दुरुपयोग की आती हैं तो फिर बीसीसीआई इस बंदरबाट पर रोक क्यों नहीं लगाता। सुप्रीम कोर्ट का बीसीसीआई के काम-काज में कोई हस्तक्षेप न रहे तथा कोई दिशा निर्देश भी जारी न किये जाएं। उधर इस खेल संघ में सिर्फ पैसे का ही खेल चलता रहे तो फिर क्रिकेट का विकास मुश्किल है।
: सुधांशु द्विवेदी