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why huge crowd swelling at Militants funeral
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आतंकियों के जनाजों में भीड़ का मतलब?

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आतंकियों के जनाजों में भीड़ का मतलब?
why huge crowd swelling at Militants funeral
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दो आतंकियों के जनाजों में उमड़ी भीड़ के चलते सरकार के कर्णधारों से लेकर देश के हरेक राष्ट्रवादी नागरिक की पेशानी पर पसीना आने लगा है। भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत के बाद निकले जनाजे में हजारों लोग उमड़े। शवयात्रा के समय जमकर उत्पात भी हुआ।

बुरहान के जनाजे के बहाने अब मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन की मुंबई में निकली शव यात्रा को भी जरा याद कर लीजिए। मुंबई में वर्ष 1993 में हुए सीरियल बम विस्फोट के मामले में दोषी याकूब मेमन को नागपुर केंद्रीय कारागार में फांसी दी गई। इसके बाद उसकी मुंबई में शव यात्री निकली। उसमें भी हजारों लोग शामिल हुए।

सवाल यह है कि क्या कानून की नजरों में गुनहगार साबित हो चुके मेमन और बुरहान को लेकर समाज के एक वर्ग का इस तरह का सम्मान और प्रेम का भाव दिखाना जायज है? मामला गंभीर है और देश इस सवाल का उत्तर उन सभी से चाहता है,जो मेमन और बुरहान को हीरो के रूप में पेश करने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करते।

बुरहान हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर के तौर पर काम कर रहा था। आतंकवादियों की भर्ती कर रहा था। प्रशिक्षित कर रहा था। आत्मघाती बना रहा था और मेमन ने मुंबई धमाकों की रणनीति बनाने में खास भूमिका अदा की थी। अब जरूरी यह है कि किसी भी आतंकवादी का अंतिम संस्कार सार्वजनिक तौर पर होना बंद हो।

मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि याकूब मेनन से लेकर बुरहान जैसे खून के प्यासों की शवयात्रा में शामिल होकर मुस्लिम समुदाय का एक गुमराह वर्ग बेहद खराब संदेश देते हैं। इन परिस्थितियों में फिर अगर कोई इस्लाम और आतंकवाद को एकसाथ जोड़कर देखे तो इसमें गलत क्या है?

वक्त की मांग है कि देश अमन पसंद शिया और बरेलवी मुस्लिमों को आगे बढ़ाए। ये देशभक्त होते हैं और आतंकवाद की खिलाफत करते हैं। आतंकी विचारधारा से प्रभावित सुन्नियों के एक वर्ग और मूर्ख वहाबियों से निबटने का यही एकमात्र रास्ता हो सकता है।

जालिम बुरहान वानी के वीडियो किसी भी भारतीय का खून खौलाने के लिए काफी रहे हैं। कितने ही अपने ही मजहब मानने वाले निरीह मासूमों का जिहाद के नाम पर कत्ल कर देने वाले इस हत्यारे को शहीद करार देने वाले हिन्दुस्तान को क्या संदेश दे रहें हैं, यह इस मजहबी जुनूनी भीड़़ की मौजूदगी से पता चल गया।

बुरहान वानी को जेएऩयू में देश विरोधी नारे लगाने के आरोपी उमर खालिद अब शहीद साबित करने की कोशिश कर रहा है। उस पर आतंकवादियों को उकसाने और राष्ट्रद्रोह का मुक़दमा चलना ज़रूरी हो गया है।

उमर खालिद ने अपने फेसबुक पोस्ट पर बुरहान की तुलना लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा तक से कर दी। अब सवाल ये है कि आखिर आतंकी बुरहान वानी को शहीद बताने वाले उमर खालिद पर अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

अब जरा देखते रहिए कि बुरहान के हक में कुछ और सेक्युलरवादी लेखक भी जल्दी ही सामने आने लगेंगे। इनकी कलम देश को तोड़ने वाली शक्तियों के लिए ही चलती है। ये छतीसगढ़ के दीन-हीन आदिवासियों का खून बहाने वाले माओवादियों के साथ खड़े होते हैं।

उन्हें कश्मीर के अलगाववादी नेताओं यासीन मलिक और इफ्तिखार गिलानी के समर्थन में लिखने में भी लज्जा नहीं आती। इनमें अरुंधति राय भी शामिल हैं। वो कश्मीर की आजादी की पैरोकार हैं। इसके लिए उन्हें मोटी रकम वाला विदेशी डालर में पुरूस्कार से भी कई बार नवाज़ा गया है।

यानी वह भारतीय संसद के उस प्रस्ताव को कागज का टुकड़ा मान रही हैं जिसमें संकल्प लिया गया है कि भारत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) का अपने में विलय करेगा। इस प्रस्ताव को संसद ने ध्वनिमत से सर्वसम्मति से पारित किया था 22 फरवरी, 1994 को। इस प्रस्ताव से बेपरवाह अरुंधति राय- उमर कश्मीरी अलगावदियों की तरह कश्मीर की आजादी की पुरजोर वकालत करते हैं।

मैं संसद के पीओके पर पारित उस प्रस्ताव का यहां पर खास तौर पर उल्लेख करना चाहता हूं। संसद ने उपर्युक्त प्रस्ताव को ध्वनिमत से पारित करके पीओके पर भारत का हक जताया था। प्रस्ताव में कहा गया था, “जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है। पाकिस्तान को उस भाग को छोड़ना ही होगा जिस पर उसने कब्जा जमाया हुआ है।” उस प्रस्ताव का संक्षिप्त अंश कुछ इस तरह से है।

“ये सदन पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकियों के शिविरों को दी जा रही ट्रेनिंग पर गंभीर चिंता जताता है कि उसकी तरफ से आतंकियों को हथियारों और धन की सप्लाई के साथ-साथ प्रशिक्षित आतंकियों को घुसपैठ करने में मदद दी जा रही है।

सदन भारत की जनता की ओर से संकल्प लेता है- (क) जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। भारत के इस भाग को देश से अलग करने का हर संभव तरीके से जवाब दिया जाएगा। (ख) भारत में इस बात की क्षमता और संकल्प है कि वह उन नापाक इरादों का मुंहतोड़ जवाब दे जो देश की एकता,प्रभुसत्ता और क्षेत्रिय अंखडता के खिलाफ हो;और मांग करता है- (ग) पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के उन इलाकों को खाली करे जिसे उसने कब्जाया हुआ है। (घ) भारत के आतंरिक मामलों में किसी भी हस्तक्षेप का कठोर जवाब दिया जाएगा।

देश के इतने अहम संकल्प के बावजूद अरुंधति राय और कुछ और कथित लेखक और मानवाधिकारवादी एक अलग लाइन लेते हैं कश्मीर के मसले पर। ये निश्चित रूप से राष्ट्रद्रोह का गंभीर मामला है।

कश्मीर में देश विरोधी ताकतों से लड़ने वालों के खिलाफ मोर्चा लेना वालों में अरुंधति राय के अलावा जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी स्टुडेंट यूनियन के चीफ कन्हैया कुमार भी हैं। कन्हैया कुमार ने कुछ समय पहले कहा था कि भारतीय सेना के जवान कश्मीर में रेप करने में सबसे आगे हैं। यानी अपनी सियासत चमकाने के लिए सेना को भी नहीं छोड़ा जा रहा है।

अरुधंति राय ने बिल्कुल हाल ही में एक तमिल पुस्तक के विमोचन पर कहा कि भारतीय सेना कश्मीर, नगालैंड, मिजोरम वगैरह में अपने लोगों पर अत्याचार करती रही है। बेशक, अरुंधति राय का नजरिया पूरी तरह से न सिर्फ सरकार विरोधी है बल्कि भारत विरोधी भी है।

मैं मानता हूं कि सरकार की नीतियों का विरोध देश के हरेक नागरिक का अधिकार है। इसमें कोई बुराई नहीं है कि आप सरकार की किसी नीति से सहमत या असहमत हों। लेकिन माओवादियों के खेमे में जाकर बैठी इस मोहतरमा को बेनकाब किया ही जाना चाहिए।

सबसे दुखद और चिंताजनक पक्ष ये है कि अरुंधति राय सरीखे देश-विरोधी तत्वों के कुछ चाहने वाले इनके लेखों-बयानों के लिंक्स को सोशल मीडिया पर शेयर करके बेशर्मी से अपने राष्ट्रद्रोह चाल को उजागर करते हैं। इन्हें ये सब करने में बड़ा आनंद आता है। इनकी बस एक ही समस्या है कि एक ऐसा आदमी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा है, जिसका नाम नरेंद्र मोदी है और जो सच्चा देशभक्त है।

अरुंधति राय उन कथित लेखकों के समूह का नेतृत्व करती हैं, जिन्हें भारत विरोध प्रिय है। इन लेखकों की जमात सुविधाभोगी है। ये वही लेखक हैं, जो दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने के बाद अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे थे।

भारतीय सेना पर कठोर टिप्पणी करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे क्यों कभी सेना के कश्मीर से लेकर चेन्नई की भीषण बाढ़ में राहत कार्यों पर लिखना पसंद नहीं करते? पिछले साल जम्मू-कश्मीर में आई बाढ़ की विपदा से निपटने के लिए सेना और वायुसेना के जवानों ने दिन-रात एक कर दिया था।

कभी घाटी में लोगों का विरोध झेलने वाली सेना लोगों के लिए देवदूत बन गई थी। बाढ़ से आई तबाही में सेना ने जिस तरह से जान जोखिम में डालकर लोगों को बचाने का अभियान छेड़ा, उससे लोग सेना के मुरीद हो गए।

सेना के प्रति लोगों के दिल में आदर और सम्मान बढ़ा। इसके अलावा उत्तराखंड में साल 2013 में आई बाढ़ हो या फिर देश के किसी अन्य भाग में आई दैविक आपदा। सेना हर जगह मौजूद रही जनता को राहत पहुंचाने के लिए। पर, अरुंधति राय और कन्हैया कुमार सरीखे कथित दिग्भ्रमित और राष्ट्रद्रोही बुद्धिजीवियों को ये सब नहीं दिखा या वो देखना नहीं चाहती।

अरुंधति राय की यासीन मलिक के साथ हाथ में हाथ डाले फोटो देखिए गूगल सर्च करके। ये वही यासीन मलिक हैं जो इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के बाहर धरना देते हैं, मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफि़ज सईद के साथ बैठकर। अब जरा अंदाजा लगा लीजिए कि किस तरह के आस्तीन के सांप इस देश में पल रहे हैं।

पिछले साल दादरी कांड को लेकर जिस तरह से कथित लेखकों ने अपने सम्मान वापस करने की होड़ मचा रखी थी, उसके बाद देश की जनता इन लेखकों का असली चेहरा देख लिया है। इन्हें तो भारत विरोध का बहाना चाहिए। अब ये बुरहान को महान बताने लगे हैं।

वामपंथी चिंतक कविता कृष्नन ने मोर्चा संभाल लिया है। वो भी बुरहान के हक में सामने आ गई हैं। कह रही हैं कि बुरहान का कत्ल किया गया। हालांकि, उन्होंने तब क्यों नहीं बुरहान की आलोचना की थी, जब बीते दिनों पंपोर में आतंकी हमले में कई सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गए थे।

दरअसल देश को आतंकियों के साथ-साथ उनके जनाजों में भाग लेने वालों से अरुंधति राय और कन्हैया कुमार सरीखे कथित सेक्युलरवादी तत्वों से लड़ना होगा। इस देश में वोट बैंक की क्षुद्र राजनीती के लिए पिछले साठ सालों में सत्ताधारियों ने जिस तरह आतंकवाद, उग्रवाद, अलगाववाद और संप्रदाय तथा जातिवाद का ज़हर सींचा है, उसे सही करने का नरेन्द्र मोदी जी के सामने एक मौका भी है और एक चुनौती भी।

आर. के. सिन्हा
(लेखक राज्यसभा सांसद हैं)