सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक बार पुन: केन्द्र सरकार द्वारा कामन सिविल कोड के संबंध में अपने रवैए के संबंध में पूछे जाने एवं केन्द्र सरकार द्वारा इसका सकारात्मक जवाब दिए जाने तथा इस संबंध में लॉ कमीशन को अपनी रिपोर्ट देने के लिए कहने पर ऐसा लगता है मानो बड़ा अनर्थ हो गया हो।
मामला यहीं नहीं रुका अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र के संबंध में भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मोदी सरकार से जवाब मांगे जाने पर मोदी सरकार ने स्पष्ट कहा कि केन्द्र सरकार एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं मानती। स्वाभाविक है कि इस बात से भी इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्षों के पेट में काफी मरोड़ पैदा होगा।
इन दोनों मुद्दों पर मोदी सरकार के रवैए को लेकर मीडिया के एक बड़े तबके ने यह प्रचारित किया कि उत्तरप्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनावों को लेकर केन्द्र सरकार ऐसा रवैया अपना रही है, ताकि इससे धार्मिक आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण किया जा सके।
जबकि मूलत: आज देश में जिस पार्टी यानी भाजपा की सरकार है, उसका जनसंघ की स्थापना यानी कि 1952 से ही देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसे कानून बनाना या होना उसकी प्रमुख मांग रही है।
यहां तक कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में स्पष्ट रूप से यह लिखा था कि कामन सिविल कोड लागू करने की दिशा में प्रयास किए जाएंगे। ऐसी स्थिति में खासतौर पर जब सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में सुनवाई चल रही हो और सर्वोच्च न्यायालय आज से नहीं वर्ष 1996 से ही केन्द्र सरकार को कामन सिविल कोड लागू करने के लिए सतत् जोर देता रहा।
लेकिन साम्प्रदायिक आधारों तथा वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की सतत् अनदेखी किया। यही समस्या अलीग$ढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की भी है। वस्तुत: वह केन्द्र सरकार के कानून से बना विश्वविद्यालय है, ठीक वैसे ही जैसे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय है।
बावजूद इसके तुष्टीकरण एवं वोट बैंक की राजनीति के चलते वह अल्पसंख्यक संस्थान है। जहां भारत सरकार के कानून-कायदे लागू नहीं होते। यहां पर समाज के कमजोर तबकों के लिए कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। इतना ही नहीं यहां पर अलगाववादी भावना सदैव पुष्पित-पल्लवित होती रही है।
वर्ष 1949 में हमारी संविधान सभा द्वारा जो संविधान बनाया गया, उसकी भूमिका में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से सभी को समान माना जाएगा और समान अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे, जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता को समुचित महत्व देते हुए देश की एकता और समरसता की दृष्टि से कार्य हो सके।
संविधान के अनुच्छेद 14 में मौलिक अधिकारों का वर्णन है, उसमें कानून के समक्ष स्वतंत्रता की गारंटी दी गईहै, समान संरक्षण की बात कही गई है। अनुच्छेद 15 में यह वर्णित है कि राज्य, सम्प्रदाय, जाति, लिंग के आधार पर किसी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा।
इसी तरह से आर्टिकल 44 में इस बात का प्रावधान किया गया है कि देश में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्रत्योज्य होगी। पर दुर्भाग्य का विशय है कि उक्त व्यवस्था के 68 साल बीत जाने के बावजूद समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों पर लागू होगी, यह बात संविधान से निकलकर वास्तविकता में परिणित नहीं हो पाई है।
डॉ. अम्बेडकर जो संविधान सभा की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष थे, वह चाहते थे कि कॉमन सिविल कोड को नीति निर्देशक तत्वों में नहीं, बल्कि संविधान में उसका स्पष्ट प्रावधान किया जाए। जिसका समर्थन गोपाल स्वामी आयंगर और दूसरे लोगों द्वारा भी किया गया था। पर कई मुस्लिम सदस्यों द्वारा इसका विरोध किया गया, जिसके चलते कांग्रेस ने उन्हें आश्वस्त किया कि मुस्लिमों के लिए अपने निजी कानून का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्रता रहेगी।
यद्यपि यह बीच का रास्ता निकाला गया था, पर तब भी श्री मीनू मसानी, श्रीमती हंसा मेहता एवं राज कुमारी अमृतकौर ने यह कहते हुए इसका विरोध किया था कि निजी कानूनों का अस्तित्व आगे चलकर राष्ट्रीयता के विकास में बाधक बनेगा। इसीलिए इनका दृष्टिकोण था कि कॉमन सिविल कोड को पांच से दस वर्ष के अन्दर लागू कर दिया जाए, पर इतने वर्षों बाद भी देश में विकृत धर्मनिरपेक्षता के चलते यह कानून अधर में लटका है।
समान नागरिक संहिता कोई नई बात नहीं है, जहां तक ब्रिटिश भारत में आपराधिक कानूनों का प्रश्न है, वहां अंग्रेजों ने क्रमश: मुस्लिम निजी कानूनों को किनारे कर 1832 में समान कानून लागू कर दिए और अंत में इसी आधार पर 1860 में इंडियन पैनल कोड बनाया गया, जिसमें धारा 494 के तहत एक पति या पत्नी रहते दूसरा विवाह करना दण्डनीय माना गया।
हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 के पहले कोई हिन्दू चाहे जितनी स्त्रियों से विवाह कर सकता था। यह कानून उस मुस्लिम कानून की तुलना में भी ढीला था, जिसमें कोई मुसलमान सिर्फ चार स्त्रियों से ही विवाह कर सकता था। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड 1998 में एक समान कानून की दृष्टि से यह व्यवस्था की गई कि धारा 125 के तहत सभी वर्गों की महिला को यहां तक कि तलाकशुदा महिला को भी पति से भरण-पोषण पाने का अधिकार है, जो स्वत: अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं।
80 प्रतिशत दीवानी व्यवहारों में भारतीय नागरिकों में एकरूपता है। किराए का कानून, संपत्ति अंतरण, संविदा वस्तुओं में विक्रय, फेरा और कस्टम कानून सभी भारतीयों पर लागू है, पर दुर्भाग्य से ’फूट डालो राज करो‘ की दृष्टि से 1937 में अंग्रेजों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू कर दिया गया, जिसका मुख्य श्रोत शरियत है।
दुर्भाग्य का विषय यह है कि तब से लेकर अब तक समय के इतने बड़े प्रवाह में मुस्लिम लॉ में व्यक्ति की गरिमा और मानवाधिकारों की दृष्टि से भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जबकि इस अवधि में हिन्दू कानूनों में कई परिवर्तन हुए।
स्वतंत्र भारत में शाहबानो प्रकरण लोगों की स्मृति में अब भी होगा, जिसमें मोहम्मद अहमद खान ने शाहबानो से 1932 में विवाह किया। इससे तीन लडक़े और दो लड़कियॉ हुईं। 1975 में उसने शाहबानो को घर से निकाल दिया और 1975 में शाहबानो द्वारा धारा 125 जाब्ता फौजदारी के तहत प्रथम श्रेणी न्यायिक दण्डाधिकारी के यहां भरण-पोषण के लिए आवेदन प्रस्तुत किया गया।
अहमद खान ने इस अवधि में उसे तलाक दे दिया और कहा गया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत वह उसे भरण-पोषण देने को बाध्य नहीं था। पर अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि पति एक तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण के लिए भी बाध्य है और मुस्लिम निजी कानून इस विषय पर कोई बाधा नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी सुझाव दिया कि मुस्लिम समुदाय को अपने निजी कानूनों में सुधार करना चाहिए। इतना ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा समान नागरिक संहिता इस देश में विषमताओं को दूर कर पूरे राष्ट्र को जोडऩे का कार्य कर सकती है। इस फैसले से पूरे देश में एक हलचल मची।
कट्टर मुस्लिम संगठनों ने निजी मुस्लिम कानूनों एवं शरियत लॉ 1937 की आड़ में इसका घोर विरोध किया। मुस्लिम वोटों को खोने के डर से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में कानून बदलकर मुस्लिमों को इस कानून से मुक्त कर दिया और इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को व्यर्थ कर दिया।
एक अन्य मामले में 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष में कहा कि ऐसी स्थितियों में कामन सिविल कोड अनिवार्य रूप से लागू किया जाना चाहिए, इसमें एक ओर जहां पीडि़त महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता और एकात्मक बढाने के लिए भी यह आवश्यक है। इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहां तक कहा कि जिन्होंने विभाजन के बाद भारत में रहना स्वीकार किया, उन्हें अच्छी तरह पता होना चाहिए कि भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्घान्त को स्वीकार नहीं किया है। भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय, मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता।
इस तरह से मुस्लिम निजी कानूनों को विधायिका द्वारा किनारे कर एक जैसा सिविल कोड लागू करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय सरकार को निर्देश दिया कि एक व्यापक सिविल कोड बनाएं, जिसमें वर्तमान दौर में महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित रखने की भावना निहित होंं।
सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय और कानून मामलों के मंत्रालय से जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ-पत्र प्रस्तुत करने को भी कहा कि बताया जाए समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में केन्द्र सरकार द्वारा क्या-क्या प्रयास किए गए? लेकिन इसके बावजूद केन्द्र सरकारों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्देश को लंबे समय तक ठण्डे बस्ते में रखा गया।
कई मुस्लिम देशों में इजिप्ट, टर्की, मोरक्को, ईरान, इराक और यहां तक कि पाकिस्तान ने अपने निजी कानूनों में सुधार किया है, जिससे बहुविवाहों पर रोक लगाई जा सके। फिर पता नहीं भारत में ऐसे भेदभाव पूर्ण कानून क्यों लागू हैं। अहम सवाल यही कि वोट के सौदागर इसे मुस्लिम विरोधी उनकी निजी पहचान पर हमला बता कर इस प्रयास को पूरी तरह निष्फल करने का प्रयास करेंगे।
पर उन्हें पता होना चाहिए कि अब देश में भाजपा की अगुवाई में सरकार है और उसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। बड़ी बात यह कि नरेन्द्र मोदी जैसा दृढनिश्चयी राजनेता देश का प्रधानमंत्री है। ऐसी स्थिति में चाहे जितने विरोध के स्वर उभरें अलगाववादी और कट्टरपंथी ताकतें जो भी हायतौबा मचाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि न्याय, समानता, आधुनिकता एवं मानवीयता की दृष्टि के साथ ’एक भारत-श्रेष्ठ भारत‘ बनाने की दिशा में हम सभी आने वाले समय में ’कामन सिविल कोड‘ को लागू होता देख सकेंगेे।
वीरेन्द्र सिंह परिहार