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Sawan Jhula and rhythmic beat of Kajri
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खो गए सावन के झूले, नहीं सुनाई देती कजरी की सुरीली तान

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खो गए सावन के झूले, नहीं सुनाई देती कजरी की सुरीली तान
Sawan Jhula and rhythmic beat of Kajri
Sawan Jhula and rhythmic beat of Kajri
Sawan Jhula and rhythmic beat of Kajri

हरे रामा वैद्द बने वनवारी… रे हारी….

केउ तो झूलै केउ तो झुलावेये,
केव तो चवर डोलावयु ना…

झूला पड़ा नीम की डरिया
झुलावेये किशन कन्हैया ना…

ये कुछ कजरी के बोल थे। ये बोल बहुत अनमोल थे। जुलाई के पहले हफ्ते के बाद गांव के हर दूसरे घर के दरवाजे पर झूले पड़ जाते थे। स्कूल खुले कुछ दिन ही बीते होते थे, इसलिए पढ़ाई की कोई चिंता नहीं। रात के 8-9 बजते ही झूले की पेंग ऊंची होने लगती थीं। इसी के साथ गूँजने लगती थी कजरी की सुरीली तान।

शादी विवाह के बाद सावन ही ऐसा महीना होता था जब घर की बेटियां मायके बुलाई जाती थीं। भाई गेहूं चने की गठरी बांध कर बहन को आनने जाता था। गरीब से गरीब घर से भी घुघरी आती थी। बेटियां भाई के साथ पीहर आतीं और कम से कम एक महीने तक रुकती थीं।

परदेश कमाने गए भाई भी नौकरी और दिहाड़ी छोड़कर अपने अपने घर लौट आते थे। कबड्डी कुश्तियों और झाबर का दौर शुरू होता था। ठिकवा, फुलौरी और अनरसा जैसे घोर गंवई मिष्ठान बनते।

सबसे पहले झूला कौन टाँगेगा इसको लेकर लड़कों में होड़ रहती। झूला टंग गया तो दिन को बेटियां और रातों में घर की बहुएं झूलतीं। देवरों में होड़ रहती भौजाइयो को झुलाने की। ऊंची से ऊंची पींग। जितना लम्बी और ऊंची पींग उतनी ही ज्यादा हवाबाजियां।

ऊंची पींग पर नई नवेली कुछ भौजियां उल्टियां कर देंती। तो चतुर सयानी टेंट में आम का अचार खोंसकर उसे खाते हुए झूलतीं। दिन रात कजरी की सुरीली धुन। घर में बहनें और बुआएं जौ उगातीं। सबमें प्रतियोगिता होती किसका जौ सबसे बेहतर उगा। उगे जौ को गाँव के ताल में डूबोकर कजरी का समापन होता।

कजरी की प्रतियोगिता होती। बुजर्ग और बहुओं के जेठ अधबन्द आंखों से चारपाई पर लेटे लेटे कजरी का आनन्द लेते। झूले तक आने की मनाही जो होती थी। काली घटा। घनघोर अंधेरा। बागों में दादुर और झींगुर की आवाज सन्नाटे को चीरती थी तो घर के दरवाजे पर बहुओं की सुरीली आवाज।

दशकों हो गए उन सुरीली आवाजों को सुने हुए। सावन अब भी आता है। लेकिन रस्मी तरीके से। गांव घर में अब वैसा जुटान नहीं होता। पटरा और रस्सों का झूला अब नहीं पड़ता। कजरी की धुन अब नहीं सुनाई पड़ती। बहन बेटियां रस्म निभाने कभी कभार एकाध दिन के लिए आ जाया करती हैं।

भाइयों को नौकरी से छुट्टी नहीं मिलती। नल और हैंडपंप ने कुओं का इस्तेमाल ख़त्म कर दिया है। इसलिए झूले के लिए रस्सियां और रस्से भी नहीं हैं गांव में। और तो और अब तो वैसे बड़े पेड़ भी कहाँ। जिनकी मजबूत शाखों पर झूले डाले जा सकें। गुड़िया अब भी पीटी जाती लेकिन ताल में जाकर सिर्फ निभा आते हैं रस्म।

हमारा बेटा नहीं जानता क्या होता है ठिक्वा बड़ी फुलौरी और घुघरी। अनरसा अब बाजार की चीज हो गया है। बेटी को भी नहीं मालूम कजरी किस बला का नाम है। हम गंवई नहीं रहें। शहरी हो गए। हमें कीचड़ से घिन लगता है और बारिश से डर। हम ने सचमुच बदल गए हैं। चन्द पैसों की लालच ने हमें हत्यारा बना दिया है। हमने अपनी संस्कृति की हत्या कर दी है। हे कजरी मैया हमें माफ़ करना।

महेंद्र प्रताप सिंह