दिल्ली हाईकोर्ट ने केन्द्र सरकार व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच आये दिन पैदा होने वाले टकराव तथा इस पूरे संदर्भ में उप राज्यपाल की भूमिका पर उठते सवालों के बीच व्यवस्था दी है कि केन्द्र शासित प्रदेश दिल्ली में उपराज्यपाल ही सर्वोपरि होंगे तथा उनके सभी फैसले ही मान्य होंगे।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था देकर भले ही मुद्दे का अस्थायी हल निकाल दिया है लेकिन क्या इससे आगे टकराव की स्थिति निर्मित नहीं होगी तथा यह एक तरह से जनादेश का अनादर नहीं माना जायेगा? यह सवाल उठना स्वाभाविक है।
क्यों कि केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर उप राज्यपाल से संवैधानिक मूल्यों के आलोक में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया जाना अपेक्षित है लेकिन जब उप राज्यपाल पूर्वाग्रह, पक्षपात एवं तानाशाही की मानसिकता से प्रेरित होकर प्रदेश की निर्वाचित सरकार के हर काम में अडंग़ा लगाने तथा सरकार के हर निर्णय को अमान्य करार देने में ही अपनी ऊर्जा खर्च करने लगेंगे तो फिर पैदा होने वाली दुरूह स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार होगा?
दिल्ली हाईकोर्ट के इस ताजा तरीन फैसले को अगर प्रदेश के उप राज्यपाल अपने लिये मनमानी का नया लाइसेंस मान लें तो उनको इस भावना से प्रेरित होकर काम करने से कौन रोकेगा?
इन सभी सवालों को मद्देनजर रखकर अगर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो एक बात स्पष्ट होती है कि दिल्ली हाईकोर्ट की व्यवस्था में प्रदेश के उप राज्यपाल की श्रेष्ठता को रेखांकित करने के साथ-साथ उन्हें उनके संवैधानिक दायरे का एहसास भी कराया जाना चाहिए था।
साथ ही लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार के महत्व पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए था।
लेकिन अब भविष्य में दिल्ली में जो तस्वीर उभरती दिख रही है उसके अनुसार उप राज्यपाल प्रदेश सरकार के हर फैसले पर सवाल उठाएंगे तथा उनके द्वारा सरकार के काम-काज को बाधित किया जाना भी संभव है तथा सरकार द्वारा उप राज्यपाल के फैसले पर सवाल उठाए जाने पर उनके द्वारा यह कहा जाएगा कि आप दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले का ध्यान रखिये, हाईकोर्ट ने उप राज्यपाल को सर्वोपरि बताया है।
ऐसे में दिल्लीवासियों के हितों की दृष्टि से महत्वपूर्ण सरकारी काम इस राजनीतिक उद्दंडता की भेंट चढ़ जाएंगे जो किसी भी अराजकतामय स्थिति से कम नहीं होगा।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लंबे समय से आरोप लगाते आ रहे हैं कि उप राज्यपाल नजीब जंग केन्द्र सरकार के इशारे पर हमारी सरकार के कामकाज में अड़ंगा लगाते हैं तथा हम कई जनहितैषी काम भी नहीं कर पाते।
केजरीवाल के इस आरोप को भले ही राजनीतिक भावना से प्रेरित मान लिया जाए लेकिन आरोप में कुछ न कुछ सच्चाई भी तो है। आखिर उप राज्यपाल को प्रदेश सरकार की लोकतांत्रिक भूमिका एवं कार्य प्रक्रिया की अहमियत समझ में क्यों नहीं आती?
उपराज्यपाल को यह तो समझना ही चाहिए कि उनकी तो राजनीतिक नियुक्ति हुई है लेकिन प्रदेश सरकार तो उन जनता-जनार्दन के वोट से निर्वाचित हुई है जो भारतीय लोकतंत्र के भाग्य विधाता हैं।
फिर उप राज्यपाल अगर राजनीतिक दुराग्रह की भावना से प्रेरित होकर काम करने लगें तो सरकार की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठने लगेगा। दिल्ली प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद से ही वहां की संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार पहले भी उप राज्यपाल को विभिन्न लोगों द्वारा सुशोभित किया जाता रहा है तथा प्रदेश में सरकारें भी निर्वाचित होती रही हैं।
उक्त सरकारें व्यापक जन भावनाओं के अनुरूप अच्छा काम-काज भी करती रहीं तथा प्रदेश सरकार व उप राज्यपाल के बीच ऐसी टकराव की स्थिति कभी निर्मित नहीं हुई लेकिन मौजूदा समय में दिल्ली देश की राजधानी कम तथा राजनीतिक विवादों का केन्द्र ज्यादा बनकर रह गई है। इसके लिये केन्द्र सरकार की संवेदनहीनता एवं उप राज्यपाल की तानाशाही सोच प्रमुखता के साथ जिम्मेदार है।
मौजूदा हालात देखकर ऐसा लगता है कि केन्द्र की भाजपा सरकार केजरीवाल को दिल्ली में मिले भारी जनादेश को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है तथा उसके द्वारा उप राज्यपाल को मोहरा बनाकर दिल्ली सरकार को परेशान करने का सिलसिला चलाया जा रहा है।
दिल्ली की केजरीवाल सरकार के जो निर्णय अनुपयुक्त हों, उन पर सवाल उठाना तो कायदे की बात है लेकिन सरकार के जनहितैषी कार्यों को तो मान्यता मिलनी ही चाहिये। लेकिन जब केन्द्र सरकार व उपराज्यपाल यह मानसिकता बना लें कि दिल्ली सरकार को काम ही नहीं करने देना है तब तो फिर स्थिति विस्फोटक ही होना है।
दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दी गई व्यवस्था के अनुसार अब ऐसा लग रहा है कि केजरीवाल सरकार पर राजनीतिक अत्याचार और ज्यादा बढ़ जाएगा क्यों कि उप राज्यपाल को सर्वोपरि जो बताया गया है।
: सुधांशु द्विवेदी