सार्क देशों के गृहमंत्रियों की बैठक में भाग लेने गए राजनाथ सिंह के साथ जिस तरह से पाकिस्तान ने व्यवहार किया था, उसे देखते हुए 25-26 अगस्त को पाकिस्तान में होने वाली सार्क देशों के वित्तमंत्रियों की बैठक में अरूण जेटली भाग नहीं लेंगे, यह जो खबर आई है, कूटनीतिक स्तर पर भारत का यह बिल्कुल सही निर्णय कहा जा सकता है।
इससे सार्क के अन्य सदस्य देशों को भारत की ओर से संदेश जाएगा कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन जैसा कि इसका नाम है, नाम के अनुरूप यदि सहयोगी देश कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं रहेंगे तो कम से कम भारत जो कि इन सभी देशों में सबसे बड़ा और सामर्थ्यवान देश है, अपना विरोध सबसे पहले दर्ज कराएगा। यदि फिर भी सहयोगी देश नहीं सुधरते हैं तो हो सकता है कि भविष्य में भारत इस संगठन से खुद बाहर होने की घोषणा कर दे।
वस्तुत: जब दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन अर्थात् दक्षेस की स्थापना की गई थी, उस समय इस संगठन में शामिल देशों के आपस में एक-दूसरे के प्रति उद्देश्य स्पष्ट थे। उनमें सबसे बड़ा उद्देश्य यह था कि इस संघ में शामिल भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बंगलादेश, श्रीलंका तथा मालदीव, ये सातों देश राजनीति से ऊपर उठकर, भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए परस्पर सहयोग करेंगे। बाद में सन् 2007 में हुए इसके चौदहवें शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान को भी इसमें शामिल कर लिया गया।
यदि सार्क संगठन के इतिहास को देखें तो 1970 के दशक में बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउर रहमान ने दक्षिण एशियाई देशों के एक व्यापार गुट के गठन का प्रस्ताव किया था, जिसके बाद मई 1980 में दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का विचार फिर सामने आया।
इसे अमलीजामा पहनाने के लिए कोलंबो में सातों देश के विदेश सचिव पहली बार अप्रैल 1981 में मिले। इन सभी ने संयुक्त रूप से क्षेत्रीय सहयोग के लिए पाँच व्यापक क्षेत्रों की पहचान की। दक्षिण एशिया के लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए क्षेत्र में आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास में तेजी लाना और सभी व्यक्तियों को स्वाभिमान के साथ रहने और अपनी पूरी क्षमता का एहसास करने का अवसर प्रदान करना इसके प्रमुख उद्देश्य तय किए गए।
यह भी तय किया गया कि सहयोगी देश सामूहिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए आपसी विश्वास, एक दूसरे की समस्याओं के प्रति समझ बढ़ाने के लिए तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग करेंगे। सदस्य देश आपस में साझा हित के मामलों पर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहयोग को मजबूत करने के लिए और समान लक्ष्य और उद्देश्य के साथ अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों के साथ आपसी तालमेल बैठाने में भी एक-दूसरे को सहयोग प्रदान कर मदद करेंगे।
इसके बाद सबने देखा कि 8 दिसम्बर 1985 को दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) अपने अस्तित्व में आया। पहले दिन से ही नीति पूरी तरह स्पष्ट थी कि कृषि, ग्रामीण विकास, दूरसंचार, मौसम, स्वास्थ्य, परिवहन, डाक सेवा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, खेल, कला और संस्कृति में एकीकृत कार्ययोजना बनाकर यह सातों देश आपसी सहयोग बढ़ाते हुए कार्य करेंगे।
लेकिन अफसोस कि जब से यह संगठन अस्तित्व में आया है, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ है कि जिन उद्देश्यों को लेकर इसका निर्माण किया गया, यह संगठन उन सभी पर खरा उतरा हो। सार्क के सदस्य देशों में आपस में ही कई मसलों पर इतना विरोधाभास हैं कि यूरोपीय संघ की तरह जो तालमेल बनना चाहिए था, वह अब तक सामने नहीं आया है।
राजनाथ सिंह ने हालिया पाकिस्तान यात्रा के दौरान सही प्रश्न उठाया था कि जो एक देश में आतंकी करार दिया जाता है, वह दूसरे देश के लिए शहीद कैसे हो सकता है ? किस हैसियत से 8 जुलाई को मुठभेड़ में मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादी बुरहान वानी को पाकिस्तान ने ‘शहीद’ का दर्जा दिया है। वास्तव में जब तक इस प्रकार के मुद्दे स्पष्ट नहीं होंगे, दक्षेस देशों के बीच आपसी सामंजस्य कैसे बनेगा।
वैसे मौजूदा दौर में जहां तक आपस में व्यापार को बढ़ावा देने की बात है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही पाक से कह चुके हैं कि कश्मीर मसले को एक तरफ रखते हुए इस पर बातचीत आगे बढ़ाई जानी चाहिए, लेकिन लगता है कि पाकिस्तान इसके लिए तैयार नहीं।
दूसरी ओर तल्ख सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तान का झुकाव पिछले कुछ सालों से व्यापार-व्यसाय की दृष्टि से चीन की तरफ तेजी से हुआ है। यहां तक कि उसने अपने अधिकृत कश्मीर के कुछ भाग को सीधे चीन को दे दिया है। हाल में पाकिस्तान तथा चीन के बीच चीन-पाकिस्तान आर्थिक कोरिडोर बनाने का समझौता हुआ है। चीन के अलावा पाक ने मलेशिया तथा श्रीलंका के साथ द्विपक्षीय समझौते किए हैं।
इसी प्रकार नेपाल का झुकाव भी चीन की तरफ हुआ है। वह आए दिन भारत को ही धमकाता रहता है कि यदि उसने हमारी मदद नहीं की तो हम पूरी तरह चीन से सहयोग लेंगे। श्रीलंका के साथ हाल ही में चीन ने कई व्यापारिक समझौते सम्पन्न किए हैं।
बांग्लादेश और भूटान जैसे देश भी भारत से अलग होकर अन्य देशों के साथ अपने संबंध प्रगाढ़ करने में लगे हुए हैं। कुल मिलाकर मुक्त व्यापार के इस माहौल में सभी अपना-अपना अधिक से अधिक लाभ खोज रहे हैं, बिना यह देखे कि सार्क देशों में अधिकांश की विरासत एक है।
यह बात कतई नकारी नहीं जा सकती है कि नेपाल, भूटान, बंगलादेश तथा भारत एक-दूसरे के साथ भूमि की सीमाओं के कारण सटे हुए हैं । एक समय ऐसा भी था कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश मिलकर एक ही देश भारत था। इससे पूर्व जाएं तो जम्बू लादेश मिलकर एक ही देश था द्वीप के अधिकांश देश नेपाल, भूटान आदि भी वृहद्तर भारत के हिस्से ही माने जाते थे, इनकी संस्कृति भी समान थी जिसे सनातन धर्म के नाम से जाना जाता है।
इसलिए इन देशों के आपसी संबंध होना स्वाभाविक है। परंतु यह भी तो जरूरी है कि सहयोग के लिए सब देशों के विचारों की दिशा एक हो ! यदि पाकिस्तान पूर्व की बजाय पश्चिम की ओर देखेगा, नेपाल दक्षिण की जगह उत्तर की ओर मुंह मोड़ेगा तो भारत से कब तक उम्मीद की जाए कि वह कोई प्रतिक्रिया नहीं देगा।
भारत अपने पड़ौसी देशों या सार्क सदस्यों के प्रति सहृदयी तभी तक बना रह सकता है जब तक कि अन्य देश उसके साथ छल-कपट का व्यवहार न करें। दोनों देशों की वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए यह कहने की जरूरत नहीं है कि “साऊथ एशिया एसोसिएशन फार रीजनल को-आपरेशन” का कितना महत्व अब बचा है, वस्तुत: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इससे अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
यदि यह खबर सही है कि भारत के वित्त मंत्री अरुण जेटली पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं तो निश्चित ही उनका यह कदम स्वागत योग्य है, क्योंकि कार्य और समझौते अपनी जगह है, लेकिन देश की संप्रभुता अपनी जगह। पाकिस्तान जैसा मुल्क जो भारत से ही पैदा हुआ और आज भारत को ही आंख दिखाए तो बेहतर है ऐसे देश से जितनी अधिक दूरी बनाई जाए उतना अच्छा है। जब तक पाकिस्तान अपनी सोच में परिवर्तन नहीं करता और भारत के प्रति अपना रवैया नहीं बदलता, भारत को यही चाहिए कि वह इसी प्रकार कूटनीतिक स्तर पर उसे जवाब देता रहे।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी