नियंत्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक से भारतीय सेना ने भारतीय जनमानस को लम्बे समय बाद मुस्कुराने का मौका तो दिया है लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नही समझा जाए कि पाक प्रायोजित आतंकवाद इससे समाप्त हो गया है।
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद बारामुला में राष्ट्रीय राइफल्स के कैम्प पर आतंकी हमलों से यह भी स्पष्ट हो ही गया कि पाकिस्तान के खिलाफ हमारी लडाई बहुत लम्बी है। हमारे दुश्मन देश की सत्ता ने भारत के खिलाफ आतंक का ऐसा ताना-बाना बुन रखा है जिसमें राजनेता, फौजी, सामान्य नागरिक और कट्टरपंथी शामिल है जो भारत की बर्बादी देखने के लिए सदैव आतुर रहते हैं, वहां के धर्म गुरूओं ने आतंक को प्रश्रय देने के लिए कश्मीर का बखुबी इस्तेमाल किया है और कर भी रहे है ।
किस्तान में ऐसे जुनूनी युवाओं की तादाद हजारों में है जो कश्मीर में आतंकवादी मुहिम में, जिसे वे जेहाद मानते हैं शामिल होने को आतुर है। ये लोग केवल मदरसों या गरीबी, बेरोजगारी या बेकारी की उपज नहीं है बल्कि पाकिस्तान के शिक्षित, पश्चिमी रंग ढंग में ढले मध्यम वर्गीय तपकों से भी आते हैं।
इन किशोरों के लिए शहादत से बडी और पाक चीज कोई नहीं, ये युवा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की उस मानसिकता से जुडे हुए है जो भारत को एक काफिर राष्ट्र के रूप में देखते हैं तथा उसे खण्ड-खण्ड करना अपना राष्ट्र धर्म मानती है।
उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए भारतीय सेना ने सात आतंकी शिविरों को नष्ट करने का भले ही दावा किया हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तान ऐसे सैकडों आतंकवादी शिविर है जहां आतंक की पौध तैयार की जाती है और इसके केन्द्र में दुनिया का सबसे कुख्यात आतंकियों में शुमार जमात उद दावा का मुखिया हाफिज मोहम्मद सईद है जिसने आतंक के रक्तरंजित रूप को धर्म की सर्वोच्चता से जोडकर युवाओं को जेहाद की ओर मोडने में महारत हासिल कर ली है।
कश्मीर में अत्याचार के कपोल कल्पित कथाओं से ये जुनूनी युवाओं को उद्देलित कर कश्मीर में भेजने का काम करता है और यही भारत में आतंकवाद का सबसे बडा कारण बनकर चुनौती पेश करता रहा है। दुनिया में खतरनाक हथियार चलाना, अत्याधुनिक तौर तरीके, गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण, आत्मघाती हमलावरों के दस्ते तैयार करने के लिए लश्कर-ए-तैय्यबा कुख्यात है और इसका मास्टर माइंड हाफिज सईद है।
भारत में आतंकी हमलों के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा को माना जाता है। इस आतंकी संगठन का हेडक्वार्टर लाहौर से 34 किलोमीटर दूर मुरीदके में है। यह मरकज-अलदावा-वर इरशाद नामक अफगानी मुजाहिदीन गिरोह का अंग है।
हथियारबंद लोग चौबीसों घंटे इस शिविर की सुरक्षा में रहते है शिविर में केवल दो इमारतें है – एक शस्त्रागार और दूसरी रसोई। रंगरूट, जो ज्यादातर 14 साल की उम्र के है। खुले में रहते और सोते हैं – खुले मैदान में ही सारा इंतजाम है जिनकी मदद से उन्हें नदी पार करने, पहाड पर चढने और फौजी दस्ते की घेराबंदी करने का प्रशिक्षण दिया जाता है।
हर रंगरूट के दिन की शुरूआत तडके चार बजे ही हो जाती है नमाज अदा करने के बाद वे कसरत करते है, आठ बजे चाय और रोटी का नाश्ता होता है, उसके बाद दिन भर जमकर तरह-तरह के अभ्यास कराए जाते हैं। बीच में केवल नमाज अदा करने और भोजन के लिए छुट्टी मिलती है भोजन में रोटी दाल मिलती है रंगरूटों को स्नाइपर राइफल, ग्रेनेड, रॉकेट लांचर चलाना और वायरलेस का इस्तेमाल करना सिखाया जाता है। उन्हें बम बनाना भी सिखाया जाता है – सिखाने वाले वे पुराने उस्ताद होते हैं जो कश्मीर और अफगानिस्तान में कार्रवाईया कर चुके है – शिविर में खेलकूद, संगीत और टीवी पर पाबंदी है।
रंगरूटों को वे ही अखबार पढने को दिए जाते है जिनकी जांच कर ली गई होती है। प्रशिक्षण दो चरणों में होता है – तीन हफ्ते के पहले चरण में मजहबी तालीम दी जाती है और बंदूक वगैरह चलाना सिखाया जाता है। इसमें संगठन के प्रति रंगरूट करीब 15,000 रूपए खर्च होते हैं, इस चरण को पूरा करने के बाद रंगरूट को प्राय: उसके अपने जन्मस्थान के आसपास के किसी शहर कस्बे में गुट के दफ्तर में काम करने के लिए भेजा जाता है ताकि वह संगठन से गहरे जुड जाए।
जब रंगरूट अपनी क्षमता और वफादारी साबित कर देता है तब उसे तीन महीने के विशेष कमांडों बूट कैम्प में भेजा जाता है। यहां प्रशिक्षण में प्रति रंगरूट करीब 80,000 रूपए का खर्च आता है। पैसे विदेशी गुटों और पाकिस्तान की जनता से उगाहे चंदे से आते हैं । प्रशिक्षण के आखिरी हफ्तों में रंगरूट जिंदा कारतूसों का इस्तेमाल करते हैं।
बम बनाते हैं और घेराबंदी के तरीके सीखते हैं। आखिरी इम्तहान तीन दिन का होता है इसमें करीब 100 रंगरूट का गुट बिना खाए-सोए तीन दिन तक जंगली इलाके, ऊंचे पहाडों की चढाई करता है। उन्हें अपनी चाल सुस्त करने या ढीला पडने की इजाजत कतई नहीं दी जाती। इस दौरे में बचे भूखे प्यासे रंगरूटों को एक बकरा, चाकू और माचिस की डिबिया दी जाती है। यही उनका ईनाम होता है।
उन्हें जंग जैसे हालात में बकरे को पकाकर खाना होता है। हर गुट के सबसे सक्षम रंगरूट को सीमा पार कश्मीर में भेजा जाता है जिसे उस कैम्प में कश्मीर में शहादत देने का मौका कहा जाता है। स्थानीय कमांडर रंगरूटों का चुनाव करते हैं और उसमें से कुछ किस्मत वालों को नियंत्रण रेखा के पास सुरक्षित ठिकानों जिन्हें लांचिंग पेड कहा जाता है तक पहुंचा दिया जाता है, यहां पर पाकिस्तानी फौज उन्हें भारत में घुसपैठ कराने में अहम भूमिका निभाती है ।
चारों तरफ से ढकी हुई गाडी में योजना के मुताबिक तीन-चार आतंकवादियों को लेजाकर पाकिस्तानी फौज के अग्रिम मोर्चे पर छोड दिया जाता है। सादे कपडे पहने लोग इन आतंकियों को हथियार गोला बारुद और भारतीय पैसे देते हैं।
पाकिस्तानी फौज ठिकाने से इस समूह को कश्मीर तक की तीन से सात रातों की यात्रा करना होती है दिन में ये छिपे रहते हैं समूह का नेता रात में देखने वाला चश्मा पहनता है बाकी लोग उसके पीछे चलते है उन्हें भारतीय बारुदी सुरंगों, चमकदार रोशनी, भारतीय फौजियों की गोलियों का खतरा बना रहता है जब नियंत्रण रेखा पार करवाते वक्त कोई खतरा होता है तो अग्रिम चौकियों की पाकिस्तानी फौज गोली बारी करके इन आतंकवादियों को आड देती है मिशन पूरा करने के बाद आतंकवादी उल्टा रास्ता लेते हैं और पाकिस्तानी फौजी अड्डे पर पहुंच जाते हैं। इन सारे मिशन में ये आतंकवादी कश्मीरियों पर भरोसा नहीं करते जिनके लिए वे युद्ध लडने का दावा करते हैं।
बहरहाल मुरीदके जैसे स्थानों को टारगेट कर हाफिज सईद, जेश ए मोहम्मद के मौलाना मसूद अजहर, दाऊद इब्राहिम जैसे आतंकियों को सर्जिकल स्ट्राइक से मार गिराना हमारी असली सफलता होगी। सर्जिकल स्ट्राइक की इस अग्रिम नीति पर भारत को लगातार चलना होगा साथ ही इस देश के थिंक टेंक को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इसे सामरिक लक्ष्य बनाया जाए राजनीतिक नहीं। पाकिस्तानी आतंकवाद से निपटने के लिए बेहद गोपनीय, आक्रामक लेकिन वृहत रणनीति की आवश्यकता है।
: डॉ. ब्रह्मदीप अलूने
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