भोपाल। भोपाल गैस त्रासदी को 2 दिसंबर को पूरे 32 साल हो गए, लेकिन इस हादसे के दिए जख्म आज भी उतने ही ताजा हैं जितने 1984 में हादसे के दिन थे। 2 दिसंबर, 1984 का दिन एक आम दिन की तरह था, परंतु किसी ने सपने में भी नहीं साेचा होगा कि अाने वाली रात हजारों लाेगाें की जान ले लेगी। इस त्रासदी के कारण कई लोग आज भी सांस की बीमारियों, अंधेपन और कैंसर से जूझ रहे हैं।
3 मिनट में सुलाया मौत की नींद
2 और 3 दिसंबर की दरमियानी रात को यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के साथ पानी मिलना शुरू हुआ। गैस के साथ पानी मिलने से रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो गई। 3 दिसंबर की सुबह तक टैंक में दबाव पैदा हुआ और टैंक खुल गया। टैंक खुलते ही जहरीली मिथाइल गैस रिसते हुए हवा में घुलना शुरू हो गई। सूरज उगने से पहले ही महज कुछ घंटों के अंदर गैस हवा के झोंके के साथ आसपास के इलाके में फैलना शुरू हो गई और रात को सुकून की नींद सोए लोग मौत की नींद सोते चले गए। लोगों को मौत की नींद सुलाने में विषैली गैस को औसतन 3 मिनट लगे।
अाज भी तकलीफ में जी रहे लाेग
सुबह होने तक जहरीली गैस का दायरा बढ़ाता गया और देखते ही देखते हजारों लोग मौत की भेंट चढ़ गए। सबसे बुरी तरह प्रभावित हुई कारखाने के पास स्थित झुग्गी बस्ती, जहां वे लोग हादसे का शिकार हुए थे जो रोज़ी रोटी की तलाश में दूर-दूर के गांवों से आकर रह रहे थे।
अस्पताल पहुंचे लोगों में कुछ अस्थाई अंधेपन का शिकार थे, कुछ का सिर चकरा रहा था और सांस की तकलीफ तो सब को थी। भोपाल गैस कांड ने कई पीड़ियों को बर्बाद कर दिया। गैस कांड से प्रभावित लोगों के परिवार में आज भी जन्मजात विकृति के साथ बच्चे पैदा हो रहे हैं।