देश हमें देता है सब कुछ, हम भी देना सीखें यह पंक्तियां भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के जीवन पर पूर्णत: खरी उतरती हैं। उनका संपूर्ण जीवन कुछ इस प्रकार का रहा कि उसमें स्वहित नहीं, जनहित ही सर्वोपरी था।
उनके दुखद निधन की सूचना जैसे ही लगी, मध्यप्रदेश के कौने-कौने में ही नहीं बल्कि अविभाजित मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ प्रान्त में भी शोक की लहर दौड़ पड़ी। उनको चाहने वाले जो जहाँ थे, वहां से अपने नेता के अंतिम दर्शन को चल पड़े।
पटवा जी की पहचान भारतीय राजनीति में मध्यप्रदेश के लिए ठीक वैसी ही है, जैसी कि देश में लोह पुरुष के नाम से विख्यात हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल की है। जब वे सत्ता में प्रमुख पदों पर रहे तब और जब वे संगठन के पदों पर रहे तब दोनों ही स्तर पर पटवा जी, अपने लिए निर्णयों को लेकर सदैव सख्त रहे।
संगठन के हित में जो है, वह करना एवं प्रदेश व देश के हित में उन्हें जो लगता है, उसे व्यवहार में करना ही उनका स्वभाव था जोकि दिवंगत होने से पूर्व तक उनके जीवन में देखा गया। प्रदेश में मुख्यमंत्री कांग्रेस के समय के रहे हों या उनकी पार्टी के वक्त के शिवराज सिंह चौहान तक वे हर उस बात को उनसे चर्चा में कहने से कभी नहीं चूके जो उन्हें निर्णय के स्तर पर प्रदेश हित में नहीं लगी।
अपनी बात कहना, तथ्यों के साथ कहना एवं जो संगठन, सत्ता और प्रदेश के हित में है, उसकी राह तैयार करना यही पटवा जी का स्वभाव था। यही वे कारण हैं जिनके कारण भारतीय राजनीति में सौम्य व्यक्तित्व, शालीन व्यवहार, कुशल संगठन क्षमता, ओजस्वी वक्ता और विभिन्न जनसमस्याओं को उठाने वाले जुझारू नेता के रूप में सुन्दरलाल पटवा जी ने सार्वजनिक जीवन में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी।
पटवा के व्यक्तित्व विकास और नैतृत्व क्षमता को निखारने की जहां तक बात है तो इसका श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जाता है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ने के पश्चात 1942 से 1951 तक विस्तारक रहे।
यहीं से उन्होंने सबसे पहले सीखा कि… संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो। भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो। युग के साथ मिल के सब, कदम बढ़ाना सीख लो। एकता के स्वर में गीत, गुनगुनाना सीख लो। भूलकर भी मुख में, जाति-पंथ की न बात हो। भाषा, प्रांत के लिए, कभी न रक्तपात हो॥ फूट का भरा घड़ा है, फोड़कर बढ़े चलो, संगठन गढ़े चलो…. पटवा जी का पारिवारिक परिवेश श्रेष्ठ था।
उनका जन्म मंदसौर जिले के कुकडेश्वर कस्बे में एक प्रगतिशील श्वेताम्बर जैन परिवार में 11 नवम्बर 1924 को हुआ था और उनके पिता मन्नालाल जी अपने क्षेत्र के एक ख्याति प्राप्त व्यवसायी होने के साथ ही प्रतिष्ठत समाज सेवी थे। यहीं पटवा अपनी प्रारंभिक शिक्षा कुकडेश्वर और रामपुरा में लेते हुए रा.स्व.संघ के संपर्क में आ गए थे।
अपने पारिवारिक परिवेश और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रतिबद्धता के कारण उनका सतत् भारतीय संस्कृति, मानवीय मूल्यों, सामाजिक मर्यादाओं के प्रति रूझान बढ़ता गया । जिसके बाद अपने विचारों को क्रिया रूप में बदलने के लिए उन्हें जो मार्ग श्रेयस्कर लगा वह राजनीति का था, इसलिए वे इन्टरमीडियेट तक शिक्षा ग्रहण करने के बाद राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश कर गए।
इसके बाद सर्वप्रथम उन्होंने मनासा क्षेत्र से 1957 में मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रवेश किया और अपने क्षेत्र की समस्याओं को मुखरित करने और उनके समाधान के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अपने क्षेत्र के प्रति जागरूकता के कारण वे पुनः 1962 में निर्वाचित हुए और विधान सभा में प्रतिपक्ष के मुख्य सचेतक बने।
विधान सभा की अनेक समितियों में उन्होंने प्रतिनिधित्व किया और भारतीय जनसंघ की प्रदेश शाखा के महामंत्री रहे। सहकार में है सबका भला, इस बात को मानकर चलने वाले श्री पटवा ने अपने जीवन में सहकारिता आंदोलन को भी प्रदेश में एक नई ऊर्जा प्रदान की।
उनके इन्हीं प्रयासों का सुफल था कि वे 1967 में नीमच सेन्ट्रल को-आपरेटिव बैंक के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और लम्बे समय तक इस बैंक के विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए सहकारिता आंदोलन को जनोन्मुखी बनाने में सफल होते रहे। जिसके परिणाम स्वरूप उनके कार्यकाल में सहकारी संस्थाओं के माध्यम से कमजोर वर्गों, शिल्पियोग और श्रमिकों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के सफल प्रयोग किए गए।
प्रदेश में सहाकरिता के क्षेत्र में कई औद्योगिक परियोजनाएं शुरू हुईं। पटवा जी की सदैव मान्यता यही रही कि भारत का विकास, मध्यप्रदेश का विकास तभी होगा जब देश का हर गांव स्वावलंबी होगा, इसके लिए जो जहां है, वहां से अपने सकारात्मक प्रयास करे। इसलिए वे अपने स्तर पर सदैव कृषि, शिल्प और दुग्ध व्यवसाय को बढ़ावा देने में लगे रहे।
वे कहते भी थे कि जब तक कृषि, शिल्प और दुग्ध व्यवसाय को आधुनिक स्वरूप प्रदान नहीं किया जाता, तब तक ग्रामीण अंचलों का अपेक्षित विकास सम्भव नहीं है, साथ ही उनका मानना था कि सत्ता का संपूर्ण वैभव तभी दिखता है जब ग्राम, नगर के साथ राज्य में सत्ता का अधिकतम विकेन्द्रीकरण दिखाई दे। इसलिए जननेताओं को सभी कुछ अधिकार अपने तक सीमित रखने से बचना चाहिए और उन्हें नीचे तक विकेंद्रीकृत कर देना चाहिए।
यह पटवा का अपनी पार्टी के सिद्धांतों एवं आदर्शों के प्रति समर्पित ही था जिसके चलते उन्हें आपतकाल के दौरान 18 माह तक कारावास में बंदी बनाकर रखा गया। इस दौरान वे अपनी पार्टी को जेल में रहते हुए भी सशक्त करने में सफल रहे। 1977 के आम चुनाव में वे विधान सभा के लिए जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में विजयी हुए और जनता विधायक दल के महामंत्री के रूप में अपनी अपूर्व संगठन क्षमता का परिचय उन्होंने सभी को दिया।
जनता शासन के अंतिम समय 20 जनवरी 1980 से 17 फरवरी 80 तक कुछ समय के लिए वे मुख्यमंत्री भी बनाए गए। इस बात का श्रेय भी पटवा को प्राप्त है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम प्रतिपक्ष के नेता को केबिनेट मंत्री का दर्जा देने का महत्वपूर्ण कदम उठाया था। इसके साथ ही उन्होंने तकनीकी विभागों के सचिव पद पर तकनीकी विशेषज्ञों की नियुक्ति और शासकीय सेवकों को केन्द्र के समान मंहगाई भत्ता देने का निर्णय लिया था।
पटवा 1980 के चुनाव में सीहोर से विधानसभा के लिए निर्वाचित होने के बाद प्रतिपक्ष नेता के रूप में विधान सभा में अपनी तार्किक ओर ओजस्वी शैली के लिए भी विख्यात रहे हैं। इस समय में विभिन्न जन समस्याओं को उठाकर प्रतिपक्ष की भूमिका को एक नया आयाम प्रदान करने में वे सफल रहे।
हरिजन, वनवासियों, ग्रामीणों, किसानों, मजदूरों तथा समाज के गरीब तबकों की विभिन्न समस्याओं को श्री पटवा ने न केवल विधान सभा में अपितु जन आंदोलनों के माध्यम से भी सशक्त रूप से समय-समय पर उठाया। इसमें संदेह नहीं है कि इन्हीं आंदोलनों के कारण भारतीय जनता पार्टी को आगे व्यापक जनाधार प्राप्त हुआ है।
पटवा 1986 से भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष और जागरूक विधायक के रूप में कार्यरत रहे। उन्होंने अपने विधायक जीवन में मनासा, मंदसौर, सीहोर और भोजपुर क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर उनके विकास के लिए अथक परिश्रम कर अपनी लोकप्रियता को सदैव बढ़ाया। इतना ही नहीं तो उन्होंने अपने कौशलपूर्ण अपनत्व भरे व्यवहार से मध्यप्रदेश में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जैसे अनेकों कुशल कार्यकर्ताओं का निर्माण करने में सफलता पाई।
हमारे बीच से ऐसे राजऋषि का अचानक चला जाना निश्चित ही एक अत्यंत निष्ठावान स्वयंसेवक, कठोर परिश्रमी एवं दूरदर्शी राजनेता को हमेशा के लिए खो देना है।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
(लेखक : हिन्दुस्थान समाचार मध्य प्रदेश के ब्यूरो प्रमुख हैं)