लखनऊ। कुश्ती के दंगल में अखाड़ी करने वाले मुलायम सिंह यादव ने चन्द महीने पहले ही समाजवादी पार्टी का रजत जयन्ती समारोह मनाया था।
मुलायम ने सियासत के दांवपेंच डॉ. राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह से सीखे, लेकिन जब-जब सत्ता हासिल करने की बात आई तो वह अपने सियासी गुरूओं से भी कहीं ज्यादा आगे निकल गए।
मुलायम की राजनीति समाजवादी पार्टी से शुरू भले ही नहीं हो, लेकिन इसे उनकी सियासत का आखिरी पड़ाव जरूर माना जाता है, क्योंकि उन्होंने खुद सपा की नींव रखी। हालांकि जिस तरह से बीते कुछ दिनों में सियासी घटनाक्रम हुए उससे मुलायम को अपना अतीत जरूर याद आ गया होगा।
दरअसल उन्होंने आगे बढ़ने के लिए राजनीति के हर हथकण्डे को इस्तेमाल किया और आज उनके साथ भी वही सब कुछ हो रहा है। मुलायम को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाने वाला कोई और नहीं उनका बेटा है। इसमें विभीषण की भूमिका उनके भाई ने अदा की है।
इसके अलावा उन तमाम लोगों की इसमें सहमति रही, जिनको राजनीति का ककहरा भी मुलायम ने सिखाया और जो उनके बेहद खास थे। सीधे तौर पर कहा जाए तो मुलायम को उनके ही दांव से इस बार पटखनी दी गई है।
मुलायम के सियासी सफर पर नजर डालें तो वह 28 वर्ष की उम्र में 1967 में पहली बार जसवंत नगर क्षेत्र से राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर विधायक चुने गए, लेकिन लोहिया की मौत के तुरन्त बाद 1968 में वह चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय क्रांति दल में शामिल हो गए।
इसके बाद उन्होंने संसोपा और भारतीय क्रांति दल का विलय करके भारतीय लोकदल बनाया गया। मुलायम सिंह ने इस पार्टी पर अपनी पकड़ मज़बूत की और 1977 में जब बीएलडी का जनता पार्टी में विलय हुआ तो वह मंत्री बनने में सफल रहे।
सबसे खास बात रही कि उन्होंने चरण सिंह की मौत के बाद उनके बेटे अजित सिंह का नेतृत्व स्वीकार करने से साफ़ इनकार करते हुए भारतीय लोकदल को तोड़ दिया।
मुलायम की सियासत के विभिन्न पहलुओं पर नजर डालें तो वर्ष 1989 में राजीव गांधी बोर्फोस काण्ड को लेकर गम्भीर आरोप झेल रहे थे। कभी उनके करीबियों में शुमार विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ऐसे में कांग्रेस से खुला विद्रोह कर दिया।
चुनाव के बाद जनता दल की सरकार बनाने की पहल हुई। ऐसे में चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री पद की ओर कदम बढ़ा रहे थे, तब दूसरे बड़े नेता देवीलाल विश्वनाथ प्रताप सिंह के पक्ष में खड़े थे और मुलायम को चंद्रशेखर के करीबियों में शुमार किया जाता था, लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम पाला बदलते हुए देवीलाल के साथ चले गए और इस वजह से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए।
चन्द्रशेखर के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। इसी तरह मुलायम ने वामपंथियों को भी बड़ा झटका दिया है। मुलायम को अपना करीबी मानने वाले वामपंथियों ने जब अमेरिका से परमाणु समझौते के विरोध में मनमोहन सरकार से समझौता वापस लिया तो मुलायम संकटमोचक की भूमिका में आए और उन्होंने अपना समर्थन देकर कांग्रेस सरकार गिरने से बचा ली।
इसी तरह राष्ट्रपति चुनाव के लिए कांग्रेस ने जब प्रणब मुखर्जी का नाम आगे किया तो मुलायम तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के साथ नजर आए। उनके साथ प्रेस कान्फ्रेंस भी साझा की।
ममता ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किए थे, लेकिन ऐन वक्त पर ममता ने फिर पाला बदला और प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया।
मुलायम का सियासी सफर बहुत लम्बा है। वह 1974, 77, 1985, 89, 1991, 93, 96 और 2004 और 2007 में उ.प्र. विधानसभा सदस्य रह चुके हैं। 1982 से 1985 तक वह उ.प्र. विधान परिषद् के सदस्य और नेता विरोधी दल रहे।
1989 से 1991 तक, 1993 से 1995 तक और साल 2003 से 2007 तक तीन बार वह उ.प्र. के मुख्यमंत्री रहे चुके हैं। वर्ष 2013 में एक बार फिर पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने पर उन्होंने अखिलेश यादव को सूबे कमान सौंप दी।
दरअसल वह 1996 से ही केन्द्र की राजनीति में सक्रिय थे और 1996, 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014 में लोकसभा के सदस्य चुने गए। कुश्ती के साथ सियासत के दांवपेंच में माहिर मुलायम को लग रहा था कि केन्द्र की राजनीति में अपनी अहम भूमिका साबित कर वह फिर से प्रधानमंत्री पद की रेस में शामिल हो सकेंगे।
लेकिन 5 नवम्बर 1992 को स्थापित जिस समाजवादी पार्टी के सहारे वह यह सब सोच रहे थे, आज उसी में उनको संरक्षक बनाकर एक तरह से किनारे कर दिया गया है।
हालांकि कई सियासी विश्लेषक इसे मुलायम का ही एक दांव मान रहे हैं, जिसमें शिवपाल की बलि देकर अखिलेश की राजनीति चमकाने और उन्हें अपना राजनीतिक वारिस बनाने का मकसद छिपा है, लेकिन अगर यह सच है तो भी मुलायम एक मजबूर शख्स के रूप में ही नजर आ रहे हैं।